कहते हैं कि अगर आप सही राह पर चलें और मेहनत करें तो आपको कोई अपनी मंजिल पाने से नहीं रोक सकता है. यह कहानी है सतेंद्रसिंह लिल्हारे की जिन्होंने बचपन से देखा कि कैसे उनके आसपास की महिलाएं लगातार संघर्ष करती हैं ताकि उनका और उनके परिवार का जीवन चलता रहे. सतेंद्र के पिता ने अपने परिवार को छोड़कर दूसरी शादी कर ली थी. उनका पालन-पोषण उनकी मां और मौसी ने किया. उनका मां खेती-बाड़ी करके जैसे-तैसे उनका पेट पालती थीं. बहुत बार तो उन्हें ठीक से खाना भी नहीं मिल पाता था.
ऐसे में, सतेंद्र ने शिक्षा को अपना हथियार बनाया और ठान लिया कि वह या तो अफसर बनेंगे या अपना बिजनेस करेंगे. ग्रेजुएशन पास करने के बाद उन्होंने स्कॉलरशिप पर अज़ीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी में मास्टर्स के लिए दाखिला लिया और यहां उन्हें अपनी राह मिली. उन्होंने अपने इरादे पक्के कर लिए और तय किया कि वह छत्तीसगढ़ में आदिवासी महिलाओं के लिए कुछ करेंगे क्योंकि उनका बचपन छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र के बॉर्डर पर एक गांव में बीता था जहां उन्होंने आदिवासियों की परेशानियों को सामने से देखा और समझा.
शुरू किया 'Batar se Bazaar Tak'
35 वर्षीय सतेंद्रसिंह ने 'बस्तर से बाज़ार तक प्राइवेट लिमिटेड' की शुरुआत की. आज वह इस फर्म के सह-संस्थापक और सीईओ हैं. औपचारिक रूप से इसकी शुरुआत सितंबर 2020 में हुई. उत्तरी बस्तर में स्थित, यह उद्यम गैर-लकड़ी वन उत्पादों (NTFP) की कटाई के बाद मैनेजमेंट करता है जिसमें फल और मेवे, सब्जियां, मछली, औषधीय पौधे, रेज़िन, खुशबू और फाइबर्स शामिल हैं.
बस्तर से बाज़ार तक जिन एनटीएफपी में डील करता है उनमें इमली, कस्टर्ड सेब, जामुन, 'देसी' आम, पपीता, हाथी रतालू और 'महुआ' फूल (खाना पकाने में आदिवासी समुदायों द्वारा उपयोग किया जाता है) शामिल हैं. इन्हें उद्यम की तीन प्रोसेसिंग यूनिट्स में लुगदी, स्लाइस, पाउडर, प्यूरी, पेस्ट और केक में प्रोसेस किया जाता है.
आदिवासी महिलाओं को सशक्त बनाना
सतेंद्र ने थर्टी स्टेड्स को बताया कि छत्तीसगढ़ घने जंगलों वाला राज्य है और बस्तर में 85 प्रतिशत ग्रामीण आबादी वन क्षेत्रों में निवास करती है. आजीविका के लिए, वे NTFP की बिक्री से होने वाली आय पर काफी हद तक निर्भर हैं. कटाई के बाद उपज अक्सर नष्ट हो जाती है, जिससे भारी नुकसान होता है. लेकिन बस्तर से बाज़ार तक इस वन उपज को खरीदकर प्रोसेसिंग और मार्केटिंग करता है. वे सीधे आदिवासी महिलाओं से उपज खरीदते हैं. कुछ महिलाएं जंगली उपज इकट्ठा करती हैं जबकि अन्य खेती करती हैं और फल और सब्जियां उगाती हैं. उत्पादों को धोने, छांटने और ग्रेड करने के लिए भी महिलाओं को रोजगार दिया जाता है.
यह उद्यम 17 गांवों की 1,150 आदिवासी महिलाओं से जुड़ा है. साल 2022-23 में सालाना टर्नओवर 52 लाख रुपये रहा. उनके प्रोडक्ट्स 'Forest Naturals' ब्रांड नाम से बिकते हैं और इसकी टैगलाइन है- 'from the hands of forest dwellers.' यह उद्यम न केवल जंगल और बाज़ार के बीच की दूरी को पाटता है, बल्कि शहरी ग्राहकों को क्वालिटी प्रोडक्ट्स भी देता है. ये उत्पाद शुद्ध, प्राकृतिक और स्वस्थ हैं क्योंकि वे रसायनों, सिंथेटिक रंगों और कृत्रिम स्वादों से मुक्त हैं.
ये हैं उनके प्रोडक्ट्स
फॉरेस्ट नेचुरल्स ब्रांड के तहत उत्पाद हैं- कस्टर्ड एप्पल का पल्प, आम का पल्प और स्लाइस, जामुन का पल्प, पीले पपीते के स्लाइस, अमचूर (सूखा आम पाउडर), इमली का पल्प और केक, कसूरी मेथी (सूखी मेथी की पत्तियां), त्रिफला पाउडर (एक औषधीय उत्पाद) ), और कस्टर्ड एप्पल, इमली और जामुन के बीज का पाउडर आदि. फॉरेस्ट नेचुरल्स के उत्पाद रायपुर, दुर्ग, भिलाई, इंदौर, नागपुर और हैदराबाद में बेचे जाते हैं.
आगे की योजना पर बात करें तो अब इमली कैंडी और जेली और इमली के बीज का पाउडर बनाने की योजना बनाई जा रही है. इसके अलावा, सूखे रूप में 'पापड़' और 'वडी' और अन्य उत्पाद बनाने की भी संभावना है. हर्बल 'गुलाल' बनाने पर एक पायलट प्रोजेक्ट शुरू किया गया था और यह एक अन्य उत्पाद बनने की संभावना है. अगले तीन वर्षों में, वे 5,000 किसानों के साथ जुड़ना चाहते हैं और 200 टन एनटीएफपी इकट्ठा करके मार्केट करना चाहते हैं. इस मॉडल को झारखंड में भी दोहराने की योजना है.