हमारे देश में सेब की पैदावार ठंड और बर्फीली जगह पर ही होती है. ऐसा आपने भी देखा और सुना होगा. और यह हकीकत भी है लेकिन आप यह सोच कर हैरान हो जाएंगे कि अब दुनिया के सबसे गर्म शहरों में से एक में सफलतापूर्वक सेब की पैदावार हो रही है. ऐसा हुआ है महाराष्ट्र के अकोला शहर में जहां के एक किसान ने हिमाचल प्रदेश से सेब के पौधे लाकर अपनी खेतों में लगाए. किसान ने पिछले दो साल से इन सेब के पौधों को अपने खेतों में हराभरा रखा. अब उसमें फूल और फल भी आ रहे हैं. ऐसा अनूठा प्रयोग करने वाले किसान हैं अकोला के छोटे से कस्बे देउलगांव के संतोष वानखेड़े. संतोष इन दिनों पूरे विदर्भ समेत महाराष्ट्र में चर्चा का विषय बने हुए हैं.
संतोष ने अपनी 2 एकड़ की खेती में 550 लगभग पौधे लगाए हैं. ये हरे पौधे अपने आप में कुछ अलग है क्योंकि इसे लगाने वाले किसान ने विदर्भ की एक नई उम्मीद के साथ लगाए हैं. ये पेड़ सेब के हैं और ये विदर्भ इलाके में फल-फूल रहे हैं. जहां धूप के दिनों में 45 डिग्री से ऊपर तापमान होता है. वहां पर भी ये सेब के पौधे आज चने सोयाबीन कपास की फसलों के साथ लहलहा रहे हैं. सूरज की तपिश में इन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता.
यह मुमकिन हुआ है कृषि वैज्ञानिकों की पहल से जिन्होंने नए प्रजातियों के पौधे तैयार कर विदर्भ जैसे उष्ण तटीय इलाके में भी किए जाने की एक नई प्रजातियां तैयार की हैं. वैज्ञानिकों ने HRM 99, अन्ना, डोरसेट गोल्डन नाम की तीन प्रजातियों के सेब के पौधे तैयार किए हैं जो कि 48 से 50 डिग्री सेल्सियस की धूप में भी लहलहाएंगे. पिछले साल की धूप में भी ये पेड़ जिंदा रहे और उन्हें रसायनिक उर्वरक नहीं बल्कि जैविक खाद देकर उनकी अच्छी देखभाल की जाती है.
किसान का मानना है कि रासायनिक खाद के बजाय अगर जैविक खाद दिए जाए तो अपनी फसलों पर किसी तरह के कीट पतंगों का अटैक नहीं होता. संतोष का कहना है कि इस साल तो सेब की फसल तैयार नहीं हो पाएगी लेकिन अगले साल सेब की फसल बड़े उम्मीद के साथ उत्साह के साथ लेने वाला हूं.
संतोष के दिमाग में कुछ अलग ही कर गुजरने की तमन्ना थी. वह सोशल मीडिया के माध्यम से हिमाचल प्रदेश और राजस्थान के कुछ किसानों के संपर्क में आए और उन्हें सेब की इस नई प्रजाति की जानकारी मिली. फिर उन्होंने उत्साह के साथ सेब की खेती की कि अगर जैसलमेर जैसे इलाके में सेब की खेती होती है तो अकोला में क्यों नहीं हो सकती. यही सोचकर संतोष ने यह नया प्रयोग किया और वह भी सफल हुआ.
आमतौर पर गर्मी से और बिना सिंचाई और कम ज्यादा बारिश के कारण विदर्भ के किसान और विदर्भ का यह इलाका किसानों की आत्महत्या के लिए जाना जाता है. वहीं कुछ किसान ऐसे भी होते हैं जो कुछ नया करने की बात कर आगे बढ़ते हैं. इसी नई उम्मीद के साथ संतोष के इस प्रयोग को देखने अब आसपास के किसान भी आने लगे हैं और उनसे जानने लगे कि अब यह सेब की खेती अपने लिए नई उम्मीद लेकर आने वाली है.
अमूमन महाराष्ट्र और खासकर विदर्भ में कपास, सोयाबीन, अरहर, चने, ज्वार और सिंचाई की व्यवस्था रही तो गेहूं आदि की फसलें किसान कर लेते हैं. साथ ही फलों में संतरे, अनार, मोसंबी, नींबू आदि की भी खेती कर लेते हैं और यह फसलों की यही इलाके की पहचान हैं लेकिन इस नए प्रयोग से अब महाराष्ट्र के विदर्भ के इस किसान को एक नई पहचान मिल रही है और बाकी किसान भी अब ऐसी फसल उगाने के लिए आगे आ रहे हैं.
धनंजय सांबले कि रिपोर्ट