कई बार गरीबी इंसान को ऐसा रास्ता दिखा देती है जिससे वह सफलता की मंजिल तय कर लेता है. मणिपुर में काकचिंग की मुकुटमोनी मोइरंगथेम के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ. गरीबी इतनी थी कि अपनी बेटी के लिए जूते नहीं खरीद सकती थीं. ऐसे में, पूराने जूतो को सोल पर ही ऊन से नया जूता बुन दिया. उनके हाथों का हुनर कमाल कर गया और आज वह सफल बिजनेस वुमन हैं.
अब तीन दशकों के बाद उनके प्रॉडक्ट्स ने देश के साथ-साथ विदेशों में भी अपना बाजार ढूंढ लिया है. मोइरंगथेम की उद्यमशीलता और गरीब महिलाओं को सशक्त बनाने के प्रयासों ने उन्हें पहचान दिलाई है और उन्हें उनकी कला के लिए 2022 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया.
खेतों में करती थीं काम
द न्यू इंडियन एक्सप्रेस से बात करते हुए मोइरंगथेम ने कहा कि वह अपने क्षेत्र की अन्य महिलाओं की तरह अपने तीन बच्चों के लिए घर पर ऊनी मोजे और मफलर बुनती थीं. लगभग तीन दशक पहले तक वह खेतों में काम करती थीं और जैसे-तैसे घर चल रहा था. लेकिन उनके हाथ के हुनर ने उन्हें सफलता की राह दी.
दरअसल, उनकी बेटी के जूते बचपन में खराब हो गए और वह बार-बार उनकी मरम्मत कर देती थीं. ताकि नए जूते न लेने पड़ें. लेकिन जब यह मुश्किल हो रहा था तो उन्होंने जूते के ऊपरी हिस्से को हटाकर, सोल के ऊपर ऊन से जूता बुन दिया. स्कूल में उनकी बेटी की टीचर को उनका यह अंदाज पसंद आया और उन्होंने अपनी बेटी के लिए ऐसे जूते बनाने के लिए कहा.
आर्मी अफसरों से मिलने लगे ऑर्डर
स्कूल टीचर के बाद, मोइरंगथेम को सेना के जवानों से भी ऑर्डर मिलने लगे. उनका कहना है कि गश्त के दौरान वहां तैनात सेना के जवानों ने उसके हाथ से बुने हुए जूते देखे. उन्हें बहुत हैरानी हुई और उन्होंने भी अपने बच्चों के लिए जूते खरीदे.
सेना के अफसरों ने उन्हें काफी समय तक ऑर्डर दिए. और उनके हाथ से बुने हुए जूतों को मणिपुर के बाहर पहुंचने का रास्ता मिला. उन्होंने 1990 में अपनी खुद की कंपनी मुक्ता शूज़ इंडस्ट्री की स्थापना की और इम्फाल शहर में बिजनेस मेले में अपने हाथ से बुने हुए उत्पादों का प्रदर्शन किया.
दूसरे देशों तक पहुंचे जूते
सा 1997 में नई दिल्ली के प्रगति मैदान में एक मेले में जाने का उन्हें मौका मिला. जहां उन्होंने केवल पांच दिनों में 1500 जोड़े बेचे. उनके जूते देश के शहरों में लगने वाले बड़े-बड़े मेलों में बेचे जाते हैं. दिल्ली स्थित बिचौलियों के माध्यम से जापान, रूस, सिंगापुर और दुबई जैसे देशों से भी ऑर्डर मिलते हैं.
उनके जूतों को दिल्ली, राजस्थान और बंगाल में भी ग्राहक मिल गए हैं. वर्तमान में लगभग 20 लोग, ज्यादातर महिलाएं उनके लिए काम करती हैं. एक वयस्क आकार के जूतों की एक जोड़ी को पूरा होने में लगभग चार दिन लगते हैं. उनका सपना है कि वह एक प्रशिक्षण केंद्र भी चलाएं जहां युवाओं को यह शिल्प सिखाया जाएगा और स्वरोजगार को मौके बढ़ें.