यूपी विधानसभा चुनाव में पहले दौर के प्रचार का शोर थम चुका है.11 ज़िलों की 58 सीटों पर जहां सियासी दलों ने अपनी पूरी ताक़त झोंक दी है वहीं शीर्ष नेताओं ने भी वोटरों को लुभाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी है. कुछ ऐसे दिग्गज भी हैं जिनका अपना राजनीतिक प्रभाव भी इस चुनाव से तय होने वाला है. साथ ही ये चेहरे कई सीटों के वोट पर प्रभाव भी डाल सकते हैं. जाटलैंड में ये चुनाव कई ऐसे दिग्गजों की व्यक्तिगत प्रतिष्ठा और राजनीतिक प्रभाव को भी सीधे सीधे तय करेगा.
पहले चरण में जिन विधानसभा सीटों पर चुनाव होने हैं वो कभी बसपा, फिर सपा का गढ़ रहा. लेकिन पिछले चुनाव में जाटलैंड की आब-ओ-हवा और समीकरण कुछ ऐसा बदला कि बीजेपी का इन सीटों पर क़ब्ज़ा हो गया.
इस चुनाव को अगर राष्ट्रीय लोक दल प्रमुख और चौधरी चरण सिंह के उत्तराधिकारी जयंत चौधरी का चुनाव कहा जाए तो कोई बड़ी बात नहीं होगी. समाजवादी पार्टी गठबंधन में जयंत और उनकी पार्टी आरएलडी की क्या स्थिति है, इस बात की चर्चा से इतर जयंत चौधरी कितना प्रभाव डाल सकते हैं इसका आकलन करना हो तो गृहमंत्री अमित शाह के बयान से इसे समझा जा सकता है. भले ही जयंत चौधरी ने ‘चवन्नी नहीं हूँ...’ कहकर इसे नकार दिया हो लेकिन जयंत का जाट पर प्रभाव और उस जाट-मुस्लिम कॉम्बिनेशन की चर्चा पश्चिमी यूपी के तापमान को बढ़ाती रही है जो मुज़फ़्फ़रनगर के दंगों के बाद टूटा और बीजेपी की झोली के जाट वोट आ गए. अब बदले सियासी समीकरण में जयंत चौधरी का प्रभाव उनकी विरासत और राजनीतिक भविष्य की दृष्टि से अहम है.
चौधरी जयंत के सामने बड़ी चुनौती
वरिष्ठ पत्रकार रतन मणि लाल कहते हैं, 'अजीत सिंह के गुज़र जाने के बाद जयंत चौधरी के सामने लगातार इस बात की चुनौती है कि राजनीतिक पहचान बनाए रखें. इसके साथ ही इस बात की भी चुनौती है कि परम्परागत जाट वोटों पर अपनी पकड़ बनाए रखें. हालाँकि अभी तक उसके लिए जयंत बहुत जद्दोजहद करते दिख रहे हैं. ऐसे में उनका हर कदम उनके प्रभाव और राजनीतिक भविष्य को भी तय करेगा.’
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बेबी रानी मौर्य का राजनीतिक सफ़र ये बता रहा है कि ये चुनाव उनके नाम के प्रभाव की दृष्टि से ख़ास है. पहले यूपी संगठन से उनको उत्तराखंड का राज्यपाल बनाया गया और उसके बाद इस्तीफ़ा दिलवाकर राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाया गया. लेकिन यूपी चुनाव में आगरा ग्रामीण से उनकी उम्मीदवारी से तय है कि बीजेपी उनके नाम और छवि का प्रभाव डालना चाहती है. इसके पीछे उनकी जाति जाटव तो है ही साथ ही महिला चेहरा होना और उच्च शिक्षित होना भी है.
वरिष्ठ पत्रकार रतन मणि लाल कहते हैं, 'दलितों में महिला चेहरा मिलना कठिन है. मायावती अपवाद हैं पर उनका भी लम्बा सियासी सफ़र रहा है. उनको चुनाव लड़ाने से बीजेपी आस पास के दलित वोटरों पर इस बात का प्रभाव डालने की कोशिश में है कि एक जाटव दलित महिला को राज्यपाल जैसे पद पर पार्टी ला सकती है तो दूसरे महत्वपूर्ण पदों पर भी उनको बिठाने का फ़ैसला कर सकती है.' ज़ाहिर है ये बात चुनाव पर प्रभाव डाल सकता है. उनको लेकर यूपी के सीएम तक की दावेदारी की चर्चा होने लगी है.
योगी कैबिनेट के 9 मंत्री पहले चरण में चुनावी मैदान में
पहले चरण में योगी सरकार के मंत्रिमंडल के 9 चेहरे ऐसे हैं जो चुनाव लड़ रहे हैं और अपने अलावा आस पास की सीटों पर प्रभाव डाल सकते हैं. शामली ज़िले की थानाभवन सीट से सुरेश राणा चुनाव लड़ रहे हैं. सुरेश राणा का अपने क्षेत्र में अच्छा ख़ासा प्रभाव है. सुरेश राणा के पास गन्ना विभाग होने की वजह से किसानों के साथ उनकी बातचीत होती रही है. किसान और ख़ास तौर पर गन्ना किसानों के बीच रहे हैं. सुरेश राणा अपनी सीट के अलावा आस पास की सीटों पर भी असर डालेंगे. ऐसे ही एक मंत्री हैं श्रीकांत शर्मा जो मथुरा से चुनाव मैदान में हैं. श्रीकांत शर्मा राज्य सरकार के प्रवक्ता भी हैं और 2017 में बीजेपी की सरकार बनने के बाद से योगी सरकार में मंत्री हैं.
वरिष्ठ पत्रकार प्रमोद गोस्वामी कहते हैं ‘ एक जनप्रतिनिधि का अपने क्षेत्र की जनता से जो सम्बंध होना चाहिए वो वैसा नहीं रहा. ऐसे में यहाँ के लोगों की नाराज़गी भी उनको लेकर हो सकती है.’ हालाँकि श्रीकांत शर्मा भी आस-पास की सीटों पर असर डाल सकते हैं. कांग्रेस विधानमंडल दल के नेता रहे प्रदीप माथुर भी मथुरा सीट से ताल ठोंक रहे हैं. उस क्षेत्र कर उनका प्रभाव माना जाता है. ऐसे में उनपर भी सबकी नज़र है. वहीं, मुज़फ़्फ़रनगर से योगी सरकार के ही एक अन्य मंत्री कपिल देव अग्रवाल और ग़ाज़ियाबाद से अतुल गर्ग भी चुनाव मैदान में हैं. वरिष्ठ पत्रकार प्रमोद गोस्वामी कहते हैं, 'इस बार किसान आंदोलनों से लेकर इस क्षेत्र में जो नाराज़गी केंद्र सरकार और बीजेपी के प्रति है वो भी इन मंत्रियों को उठानी पड़ सकती है. या ये कहा जाए तो ग़लत नहीं होगा कि ये उस नाराज़गी से भी जूझ रहे हैं.'
इसके अलावा एक और चेहरा भी इस क्षेत्र की सियासत के मिज़ाज के लिहाज से ख़ास है. वो चेहरा है संगीत सोम का. मेरठ की सरधना सीट से संगीत सोम फिर भाजपा के प्रत्याशी हैं. मुज़फ़्फ़रनगर दंगे में नाम आने के कारण संगीत सोम की सीट को लेकर भी नज़र है. जिस तरह पश्चिमी यूपी में इस बार भी ध्रुवीकरण के लिए नारे उछाले जा रहे है उससे संगीत सोम की उम्मीदवारी भी दिलचस्प हो गई है.
इतिहास पर नज़र डालें तो यूपी का चुनाव हर बार पश्चिमी यूपी से शुरू होता रहा है. 2012 में बसपा और सपा को 24-24 सीटें मिली थीं तो बीजेपी को 11 सीटों पर जीत मिली थी. 2013 में मुज़फ़्फ़रनगर के दंगों के बाद यहाँ का समीकरण बदला और पश्चिम यूपी की 58 सीटों में 53 सीटें भाजपा को मिलीं जबकि सपा और बसपा को 2-2 सीटों से संतोष करना पड़ा वहीं रालोद को सिर्फ़ एक सीट मिली थी.