जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनाव का ऐलान हो चुका है. 3 चरणों में वोटिंग होगी और 8 अक्टूबर को नतीजे आएंगे. केंद्र शासित प्रदेश का सियासी पारा चढ़ गया है. इस बीच सियासत की पुरानी यादें ताजा हो रही हैं. एक ऐसा ही किस्सा साल 1984 का है, जब 2 जुलाई को मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला अपने आवास में पत्नी के साथ चाय की चुस्की ले रहे थे. तभी राजभवन से एक फोन आता है और उनको गवर्नर मिलने के लिए बुलाते हैं. सीएम अब्दुल्ला नहा-धोकर राजभवन पहुंचते हैं तो सियासत पूरी तरह से बदल चुकी होती है. उनको पता चलता है कि उनकी सरकार अल्पमत में आ गई है. आखिर सीएम अब्दुल्ला के साथ राजभवन में क्या हुआ था? उनका अपना वो रिश्तेदार कौन था, जिसने पार्टी से बगावत कर दी थी. कैसे फारूक अब्दुल्ला को मुख्यमंत्री पद की कुर्सी छोड़नी पड़ी. चलिए आपको ये पूरा किस्सा बताते हैं.
चाय पी, नहा-धोकर राजभवन पहुंचे फारूक-
साल 1984 में 2 जुलाई की तारीख थी. मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला अपनी पत्नी मौली के साथ सुबह की चाय पी रहे थे. तभी राजभवन से फोन आता है और सीएम को मिलने के लिए बुलाया जाता है. सीएम अब्दुल्ला नहा-धोकर तैयार होकर राजभवन पहुंचे.
राजभवन में गवर्नर जगमोहन ने सीएम अब्दुल्ला को एक चिट्ठी थमा दी. उस चिट्ठी में साफ लिखा था कि मुख्यमंत्री ने विधानसभा में बहुमत खो दिया है और इसके साथ ही राज्य सरकार के प्रमुख के तौर पर बने रहने का अधिकार भी खो दिया है.
अब्दुल्ला ने गुस्से में मेज पर मुक्का मारा-
जब सीएम फारूक अब्दुल्ला और गवर्नर जगमोहन के अलावा उस समय राजभवन में एक और खास शख्स मौजूद था. उस शख्स का नाम गुलाम मोहम्मद शाह था. वो सीएम अब्दुल्ला के बहनोई थे और नेशनल कॉन्फ्रेंस के दिग्गज लीडर थे. गुलाम मोहम्मद शाह राजभवन के दूसरे कमरे में नेशनल कॉन्फ्रेंस के 12 विधायकों के साथ बैठ हुए थे.
फारूक अब्दुल्ला ने मोहम्मद शाह को देख लिया और गुस्से में गवर्नर के सामने की मेज पर मुक्का मारा और कहा कि आपको जो पसंद है, वो कीजिए, लेकिन उस आदमी को मुख्यमंत्री मत बनने दीजिए.
गुलाम शाह बने मुख्यमंत्री-
2 जुलाई 1984 को नेशनल कॉन्फ्रेंस के 12 विधायकों, एक निर्दलीय के साथ गुलाम मोहम्मद शाह ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली. कांग्रेस ने उनकी सरकार को बाहर से समर्थन दिया. कांग्रेस के 26 विधायकों के साथ गुलाम शाह ने बहुमत का आंकड़ा पार कर लिया था. उस समय सरकार बनाने के लिए 38 विधायकों की जरूरत थी. लेकिन गुलाम शाह के पास 39 विधायकों का समर्थन था.
हालांकि गुलाम शाह की सरकार ज्यादा दिन तक नहीं चल पाई थी. साल 1986 में अनंतनाग में सांप्रदायिक दंगों के बाद गवर्नर जगमोहन ने गुलाम शाह की सरकार को बर्खास्त कर दिया था.
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