साल 2020 के सरकारी आंकड़ों के अनुसार, भारत की जेलों में चार में से तीन कैदी मुकदमे के अधीन हैं यानी अंडर ट्रायल (Under Trial) हैं. प्रिज़न स्टैटिस्टिक्स इंडिया 2020 की रिपोर्ट के अनुसार, जेल में बंदियों की कुल संख्या पिछले साल की तुलना में 1% बढ़ी है, जबकि विचाराधीन कैदियों की संख्या में लगभग 12% की बढ़ोतरी हुई है. कई कैदियों की पूरी-पूरी उम्र जेल में निकल जाती है. इनमें से हर कोई बड़े घरों से नहीं होता है. बल्कि कई ऐसे होते हैं जो आपके या हमारी ही तरह होते हैं. हाल ही में रिलीज़ हुई फिल्म ‘हीमोलिम्फ-द इनविजिबल ब्लड’ (Haemolymph) भी इन्हीं कैदियों की कहानी है जो किसी झूठे केस में अपनी पूरी-पूरी जिंदगी जेल में काट देते हैं. ये कहानी एक ऐसे ही शिक्षक के संघर्ष के बारे में है.
27 मई को रिलीज़ हुई ये फिल्म एबी फिल्म्स इंटरटेनमेंट के बैनर तले बनी है. फिल्म 11 जुलाई 2006 को मुंबई ट्रेन मेें हुए बम विस्फोट के साथ शुरू होती है. शिक्षा की मशाल थामे, नई पीढ़ियों को ज्ञान बांटने वाले एक शिक्षक वाहिद शेख की इस घटना के बाद गिरफ्तारी हो जाती है. लेकिन कहते हैं कि सच्चाई की हमेशा जीत होती है और साल 2015 में वाहिद को बाइज्जत बरी कर दिया जाता है. बस ये कहानी गिरफ्तारी से बाइज्जत बरी होने के बीच के संघर्ष की है. फिल्म में वाहिद शेख की भूमिका रायपुर के रियाज अनवर ने निभाई है. वहीं, एक्ट्रेस की भूमिका रुचिरा जाधव ने और मुज्तबा अजीज नाजा ने इसमें म्यूजिक दिया है.
‘हीमोलिम्फ’ के रिलीज़ के मौके पर GNT Digital ने फिल्म के डायरेक्टर और लेखक सुदर्शन गमारे (Sudarshan Gamare) और लीड एक्टर डॉ. रियाज अनवर (Dr. Riyaz Anwar) से बात की. चलिए पढ़ते हैं बातचीत के मुख्य अंश-
समाज के निचले प्रतिनिधित्व की कहानी है हीमोलिम्फ
2006 के 7/11 मुंबई ट्रेन ब्लास्ट में अब्दुल वाहिद शेख को 'आतंकवादी' करार दिया गया था और जेल में डाल दिया गया था. जेल में रहते हुए उन्होंने जर्नलिज्म का कोर्स किया और फिर एलएलबी की पढ़ाई शुरू की. उसी दौरान उन्होंने अपनी किताब 'बेगुनाह कैदी' लिखी. 2015 में उन्हें सभी आरोपों से बरी कर दिया गया था.
फिल्म के नाम को लेकर सबसे पहले डायरेक्टर सुदर्शन ने बताया कि ये फिल्म समाज के उस वर्ग के बारे में है जिनकी कोई बात नहीं करता है. वे कहते हैं, “आपने चींटी को कभी मारा है? उसे मारने के बाद भी उसका खून निकलता है, वो खून हमें दिखता नहीं है. उसी खून को हीमोलिम्फ कहते हैं. हमारी ये कहानी समाज के निचले प्रतिनिधित्व की कहानी है जिन्हें ऊंचे वर्ग से हमेशा कुचला जाता है वे हमें दिखते नहीं हैं, पर वे होते हैं. हीमोलिम्फ का यही मतलब है कि जिन लोगों का शोषण किया जाता है उन्हीं की ये कहानी है. इसीलिये फिल्म का ये नाम रखा गया है.”
ये कहानी सबके सामने आनी चाहिए
इस कहानी के बारे में डायरेक्टर सुदर्शन कहते हैं, “दरअसल, शुरू से ही मुझे अलग-अलग किताबें पढ़ने का शौक है. मैं जेल पर कुछ पढ़ रहा था, उसी दौरान कुछ किताबें मेरे हाथों में आईं. उसमें मुझे वाहिद शेख की कहानी नजर आई. उस 10-12 पन्नों की कहानी पढ़कर मुझे लगा कि मैं भी इसी तबके से आता हूं. जहां मुझे हीमोलिम्फ की तरह देखा जाता है. उन्होंने अपनी जिंदगी के 9 साल इसी में गंवा दिए. जब वो पकड़े गए थे तब वे केवल 29 साल के थे. उस वक़्त उनका कुल 1 साल का बेटा था और दूसरा बच्चा 2 महीने का. 3 साल कुल शादी के हुए थे. घर का वो व्यक्ति जिसके दम पर उसका पूरा परिवार चल रहा है. कितनी जिंदगियां डिस्टर्ब हो गईं.”
इस पूरी घटना ने पूरे परिवार पर छोड़ दिए हैं जख्म
वे आगे कहते हैं इस पूरी घटना ने केवल वाहिद पर ही नहीं बल्कि के पूरे परिवार पर असर डाला है. और ये असर आज भी देखने को मिल रहा है. डायरेक्टर कहते हैं, “आपको जानकार हैरानी होगी कि उसका इतना असर हुआ है कि आज भी वाहिद के बड़े भाई भीड़-भाड़ वाले इलाके में नहीं जा पाते हैं, वे बाइक के अलावा किसी भी ट्रांसपोर्ट से नहीं जाते. भीड़ में खड़े होते हैं तो उन्हें चक्कर आते हैं. उनके मन में डर बैठ गया है कि मुझे कभी भी पुलिस उठा लेगी. उनकी मां को मेन्टल डिसऑर्डर हो गया, 1 साल के अंदर उनके पिता गुजर गए. तो ये सब जब पढ़ा कि एक आदमी को पकड़ा गया और पूरा कुनबा बर्बर हो गया. ये देखकर मुझे लगा कि ये कहानी सबके सामने आनी चाहिए. समाज को पता होना चाहिए कि एक तबके के इस इंसान की कहानी है, वो इंसान जिसे अनदेखा किया जा रहा है. जो बस गुमनाम जिए जा रहा है. बस यही चिंगारी थी जिसने मुझे इस फिल्म को बनाने के लिए प्रेरित किया.”
डायरेक्टर ने एक्टर को कर दिया था 10 घंटे तक एक कमरे में बंद
लीड एक्टर रियाज़ फिल्म को लेकर बताते हैं कि हमने इस फिल्म को केवल बनाया नहीं है बल्कि हर सीन में महसूस किया है. रियाज़ कहते हैं, “मैं भी एक बहुत छोटे शहर रायपुर से आता हूं. ऐसा बोलते हैं कि छोटे शहरों के लोगों के सपने बड़े होते हैं, लेकिन रुकावटें बहुत होती हैं. छोटे शहर से जब आप आते हैं तब आपके अंदर अपने लिए लड़ने की भावना अपने आप आ जाती है. तो जब मैंने वाहिद की कहानी पढ़ी तो मेरे लिए ये काफी शॉकिंग था. ये मुझे अंदर तक छू गया. इसके लिए हमने वाहिद के कई इंटरव्यू किए, रिसर्च किए. जेल के बाहर कुछ बेंच लगी हुई हैं. हम वहां जाकर बैठते थे ताकि हमें हल्का सा ही सही लेकिन आईडिया लग सके कि आखिर इन लोगों की जिंदगी में क्या चला रहा है ये किन हालातों से गुजर रहे हैं. ये सारी चीज़ें थीं.
वे आगे बताते हैं कि मैं इस फिल्म को बेहतर तरीके से समझ पाऊं और इसे महसूस कर पाऊं इसके लिए डायरेक्टर ने मुझे 10 घंटे तक बिना खाना पानी के एक कमरे में बंद कर दिया था. रियाज़ कहते हैं, “सुरदर्शन जी ने मुझे 10 घंटे तक एक कमरे में लॉक कर दिया था, जिसमें मैं बिना खाने के रहा था. उसमें सारी खिड़कियां बंद थीं. केवल 1 ही खिड़की खुली थी. वहां से मुझे बिल्डिंग दिख रही थी, वो फीलिंग मैं बयान नहीं कर सकता हूं. पहली बार मैंने बहुत छोटा महसूस किया था. ये चींटी वाली बात मुझे तब समझ आई. इस दौरान हमारी टीम काफी स्ट्रांग रहीं. सबने साथ दिया. ”
2019 से कर रहे हैं फिल्म पर काम
डायरेक्टर सुदर्शन कहते हैं, “साल 2019 में मार्च में हमने इसे शुरू किया था. मेरे एक दोस्त हैं मनीष सिन्हा उनका रिसर्च में बड़ा हाथ है. जब हमने मिलकर रिसर्च शुरू की तो पहले हम वाहिद से मिले उनके परिवार से मिले. उसके 2 महीने के बाद हमें महसूस है कि हम पूरे देश के लिए इस फिल्म को बना रहे हैं तो हमने सोचा कि हमारी फिल्म में एक सिंगल पॉइंट ऑफ व्यू नहीं होना चाहिए बल्कि सबकी बात होनी चाहिए. हमने सोचा कि हम आम लोगों की बाते करेंगे. इस रिसर्च में हमें 11 से साढ़े 11 महीने लगे. इसके बाद स्क्रीनप्ले ने एक आकर लेना शुरू किया. इसके बाद 6 महीने हमने स्क्रीनप्ले पर काम किया. 4 से 6 बार हमने इसे ड्राफ्ट किया और फिर हमने कास्टिंग शुरू की. अक्टूबर 2020 में हमने शूटिंग शुरू की. तब लॉकडाउन लग गया. उसके बाद थोड़ा गैप हो गया. अब जाकर ये फिल्म रिलीज़ हुई है. इस पूरी फिल्म को बनने में 4 से साढ़े 4 साल लगे.”
फिल्म की कहानी ही हीरो है
लीड एक्टर रियाज़ कहते हैं कि इस फिल्म की कहानी ही हीरो है. जब पहली बार मेरे हाथ में स्क्रिप्ट आई तो मैं काफी शॉक्ड था. हम जो देखते हैं उसी पर विश्वास करते हैं, लेकिन कई सारी चीज़ें अनदेखी होती हैं और जब ये सामने आती हैं तो हमें जोर से धक्का लगता है. जब हमने इन सबपर नजर डाली तो लगा कि हां ये भी चीज़ें हैं. मुकदमे चलते हैं लोग सालों-साल जेल में रहते हैं. उनकी जिंदगियां गुजर जाती हैं. हर कोई वाहिद शेख नहीं होता है. जो जेल में रहकर आरटीआई करे या दूसरे काम करे. हीरो बनने वाली इस कहानी में थी.
वाहिद की किताब बेगुनाह कैदी से मिली प्रेरणा
सुदर्शन बताते हैं, “वाहिद कहते हैं कि मैं चाहता तो गुस्से में कुछ भी कर सकता था लकिन मैंने कलम उठाई. मुझे नहीं लगता दुनिया में ऐसा कोई भी डायरेक्टर होगा जो उनकी किताब बेगुनाह कैदी को पढ़ने के बाद इस फिल्म को न बनाएं उस किताब से जो मोटिवेशन मिलता है कर जो सच्चाई दिखती है न वो लाजवाब है.”
परेशानी आई लेकिन हम डटे रहे
डायरेक्टर सुदर्शन कहते हैं, “दरअसल, हमने बहुत छोटे में बजट में काम किया है. तब सेट पर स्पॉट बॉय से लेकर एचओडी तक सभी मेरे पीछे खड़े होकर बोलते थे कि दादा टेंशन मत लो सब ठीक हो जाएगा. तो इन दो चीज़ों ने मेरे कान में घर बनाकर रखा है. अब जब भी कभी लगता है कि दिक्कत आ रही है तो यही कानों में गूंजती है कि सब ठीक हो जाएगा. सब अच्छा होगा. पूरे काम के दौरान हमने रोज ख़ुशी दी. पूरे प्रोसेस में काफी मजा आया. हमने सभी परेशानी का आसानी से सामना किया. हमें ख़ुशी है कि लोग जब सिनेमा हॉल से बाहर आते हैं तो गले लगाते हैं. और केवल लीड एक्टर की ही नहीं सभी कैरेक्टर की बात करते हैं. अभी जो लोग जा रहे हैं वे सभी खुश होकर ही बाहर निकलते हैं. ये फिल्म अगर नहीं देखी जाती है तो सचमें ये ऑडियंस का लॉस होगा, क्योंकि ये एंटरटेनमेंट नहीं है बल्कि ये इंफोटेनमेंट है. बस मैं चाहता हूं कि सभी इस फिल्म को देखें और इस मुद्दे को समझें.”