Ranjan Kumar Exclusive: बैचमेट से उधार लेकर भरी FTII की फीस, डायरेक्शन में आजमाया हाथ, पहली ही फिल्म Champaran Mutton पहुंची Oscar

Movie Champaran Mutton Director Ranjan Kumar Exclusive: बिहार के कलाकारों से सजी फिल्म चंपारण मटन ऑस्कर के 'स्टूडेंट अकेडमी अवॉर्ड' की सेमीफाइनल में पहुंच गई है. भारत की तरफ से ऑस्कर की रेस में पहुंचने वाली यह इकलौती फिल्म है. फिल्म के डायरेक्टर रंजन कुमार ने जीएनटी डिजिटल से बात करते हुए न सिर्फ फिल्म के बारे में बल्कि अपनी निजी जिंदगी के बारे में भी खुलकर बात की.

Champaran Mutton Director Ranjan kumar
केतन कुंदन
  • नई दिल्ली,
  • 07 अगस्त 2023,
  • अपडेटेड 9:13 PM IST
  • बज्जिका भाषा में बनी है फिल्म 'चंपारण मटन'
  • मुख्य भुमिका में हैं 'पंचायत' फेम चंदन रॉय

कहते हैं कि परिस्थिति चाहे लाख विपरीत हो इंसान चाहे तो वक्त से लड़कर अपनी तकदीर बदल सकता है. दुष्यंत कुमार लिखते हैं कि ‘कैसे आकाश में सूराख़ नहीं हो सकता, एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारो’. इसे बिल्कुल सही साबित किया है बिहार के एक छोटे से गांव के रंजन उमा कृष्ण ने. FTII के छात्र रहे रंजन कभी क्रेडिट कार्ड तो कभी एलोवेरा बेचकर गुजारा करते थे लेकिन आज उनका नाम सबकी जुबान पर है. वजह है उनकी पहली ही Film, 'Champaran Mutton' का ऑस्कर के 'स्टूडेंट अकेडमी अवॉर्ड' की नैरेटिव कैटगरी के सेमीफाइनल तक पहुंचना. रंजन इस फिल्म के डायरेक्टर और राइटर हैं. बता दें कि भारत की तरफ से यह इकलौती फिल्म है जो ऑस्कर की रेस में है. जीएनटी डिजिटल से रंजन कुमार ने एक्सक्लूसिव बातचीत करते हुए न सिर्फ फिल्म चंपारण मटन के बनने की कहानी बताई बल्कि अपने संघर्षों से भरे सफर के बारे में भी खुलकर बात की. 

दुनियाभर की 2444 फिल्मों में से सेलेक्ट हुई 'चंपारण मटन' 
 
'स्टूडेंट अकेडमी अवॉर्ड' के लिए 200 से ज्यादा देशों ने हिस्सा लिया. कुल 2444 फ़िल्मों में से नैरेटिव कैटगरी के लिए 17 फ़िल्में सेलेक्ट हुई है. 'चंपारण मटन' इनमें से एक है. रंजन बताते हैं कि FTII से तीन फिल्मों को भेजा गया था लेकिन सिर्फ चंपारण मटन ही सेमीफाइनल तक पहुंच पाई. उम्मीद है कि फिल्म को ऑस्कर मिल सकता है, क्योंकि हमने फिल्म के एक-एक पहलू पर बेहतरीन काम किया है. यहां आपको बताते चलें कि चंपारण मटन हिंदी या अंग्रेजी भाषा में नहीं बल्कि बज्जिका में बनी है. 

'चंपारण मटन' बनाने का आइडिया कहां से आया ?

रंजन बताते हैं कि मैं बिहार में जहां से आता हूं वहां मटन खाना प्रिविलेज माना जाता है. चूंकि मटन काफी महंगा होता है तो लोग खास मौके पर ही खरीद कर खाते हैं. मैं एक बार अपने रिश्तेदार के यहां गया था, वहां उस दिन मटन बना था. मेरे खाने के बाद अचानक दो तीन गेस्ट और आ गए तो मुझे लगा कि अब परिवार वालों के लिए तो बचेगा ही नहीं. वहीं मेरे दिमाग में आया कि मटन पर कुछ कहना चाहिए.

फिल्म की कहानी क्या है ?

इसका जवाब देते हुए रंजन कहते हैं कि फिल्म एक लोअर मिडिल क्लास फैमिली के बारे में है. कहानी कुछ ऐसे है कि एक गर्भवती महिला के पति की नौकरी लॉकडाउन की वजह से चली गई है. धीरे-धीरे बचत किए हुए पैसे खत्म हो गए. अब वह घर चलाने के लिए दोस्तों से पैसे उधार लेता है. जैसे-तैसे दिन गुजर रहे होते हैं. रंजन कहते हैं कि बिहार में कार्तिक महीना शुरू होने से एक-दो दिन पहले लोग नॉनवेज खाना चाहते हैं क्योंकि फिर एक महीने का ब्रेक लग जाएगा. फिल्म में जो गर्भवती महिला है उसे भी कार्तिक महीना शुरू होने से पहले मटन खाने का मन करता है. लेकिन घर की आर्थिक स्थिति खराब है. ऐसे में 800 रुपये किलो बिकने वाला मटन कैसे खरीदा जाए. रंजन बताते हैं कि यह कहानी हर लोअर क्लास लोगों के घर की है. मैंने यह फिल्म गरीब परिवार की एक-एक बारीकियों को ध्यान में रखते हुए बनाई है.

बिहार से ही हैं सभी कलाकार

रंजन बताते हैं कि फिल्म के सभी कलाकार बिहार से ही हैं. मुख्य भूमिका में चंदन रॉय और फलक खान हैं. चंदन बिहार के वैशाली से हैं तो वहीं फलक मुज़फ्फरपुर से हैं. बता दें कि चंदन वेब सीरीज पंचायत में कार्यालय सहायक 'विकास' भैया का किरदार निभा कर काफी मशहूर हुए और दर्शकों ने उनके काम को काफी सराहा. जब रंजन से पूछा गया कि चंदन किस तरह के कलाकार हैं तो उन्होंने बताया कि वो बहुत शालीनता और डेडिकेशन से काम करते हैं. टीम को हर वक्त मोटिवेट करते रहते हैं. मैंने जब उन्हें अप्रोच किया और फिल्म की कहानी बताई तो वो बहुत खुश हुए और फिल्म करने के लिए तुरंत हामी भर दी. इसके बदले उन्होंने कोई पैसा नहीं लिया.

कभी एलोवेरा तो कभी क्रेडिट कार्ड बेचा

मुज़फ्फरपुर (MIT) से मैकेनिकल इंजियंरिंग की पढ़ाई करने के बाद ISM धनबाद में एमटेक के लिए एडमिशन लिया लेकिन उसे भी बीच में ही छोड़ दिया. रंजन कहते हैं कि मुझे एहसास हुआ कि मैं इंजीनियरिंग के लिए बना ही नहीं हूं. इसके बाद घर की आर्थिक स्थिति खराब हुई तो मैंने पटना में एलोवेरा बेचने का काम किया. उसके बाद क्रेडिट कार्ड बेचने वाली एक कंपनी में काम किया. लेकिन कहीं भी मेरा मन नहीं लग रहा था. फिर मेरे एक दोस्त ने FTII के बारे में बताया. चूंकि FTII में एडमिशन लेने के लिए पैसे नहीं थे तो मेरे कई दोस्तों ने मेरी मदद की. डायरेक्शन ही क्यों चुना? इस सवाल का जवाब देते हुए वो कहते हैं कि डायरेक्टर प्रकाश झा मेरे प्रेरणा स्रोत हैं. उन्हीं को देखकर लगा कि इस फील्ड में जाना है.

पिताजी जूता बनाने का करते थे काम

रंजन बताते हैं कि हाजीपुर में मेरे दादाजी के समय से हमारी जूता-चप्पल की दुकान थी. मेरे पिताजी भी जूता-चप्पल बेचने और बनाने का काम करते थे. मेरे पिताजी इस काम में इतने हुनरमंद हैं कि आप उन्हें किसी भी तरह का जूता दिखा दीजिए वो बना देंगे. उन्होंने भले ये काम किया लेकिन कभी मुझपर दबाव नहीं बनाया. मेरी मां और पिताजी हमेशा सपोर्ट करते रहे और पढ़ने के लिए प्रेरित करते रहे. हालांकि परिवार के दूसरे लोगों से ज्यादा सपोर्ट नहीं मिला. मेरे घर में मुझसे नौकर की तरह व्यवहार किया गया. जब मैं पढ़ने बैठता था तो वो कई बार लालटेन छीन लेते थे. ऐसे में, मैं सुबह उठकर पढ़ता था. हालांकि उनका वही व्यवहार मुझे मजबूत करने में कारगर रहा. 

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