'अमर अकबर एंथनी' और 'मुकद्दर का सिकंदर' जैसी फिल्मों से अभिनेता अमिताभ बच्चन ने खूब नाम कमाया. लेकिन इन फिल्मों में एक और चेहरा था जो हमेशा उन्हें टक्कर दता नजर आया और जिसने उनके बराबर ही शोहरत पाई. और वह अभिनेता थे विनोद खन्ना.
विनोद खन्ना बॉलीवुड के मशहूर अभिनेताओं में से एक थे. साथ ही, भारतीय राजनीति पर भी उन्होंने अपनी छाप छोड़ी. आज उनके 76वीं बर्थ एनीवर्सरी है. अमर अकबर एंथनी, राजपूत, द बर्निंग ट्रेन, और कुर्बानी जैसी फिल्मों में भूमिकाएं निभाकर, विनोद खन्ना ने नए मानक बनाए और हिंदी सिनेमा के स्तर को ऊंचा किया.
हालांकि, सुपरस्टार विनोद खन्ना का अप्रैल 2017 में कई सालों तक कैंसर से जूझने के बाद निधन हो गया. उनकी मृत्यु ने भारतीय सिनेमा को एक बड़ा झटका दिया था. खन्ना को मरणोपरांत सिनेमा में भारत के सर्वोच्च पुरस्कार, दादासाहेब फाल्के पुरस्कार 2018 में भारत सरकार द्वारा 65वें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों में सम्मानित किया गया.
बिजनेस फैमिली से आते थे विनोद खन्ना
विनोद खन्ना एक बिजनेस फैमिली से आते थे. हमेशा से तय था कि वह बिजनेस संभालेंगे. लेकिन एक पार्टी में सूनील दत्त से हुई मुलाकात ने सबकुछ बदल दिया. सूनील दत्त उस समय अपने भाई को बतौर हीरो लॉन्च कर रहे थे और उसी फिल्म में खलनायक के किरदार के लिए उन्हें एक नए चेहरे की तलाश थी और उनकी तलाश विनोद खन्ना पर आकर खत्म हुई.
बहुत मुशकिल से विनोद ने अपने परिवार को मनाया और 1969 में ‘मन का मीत’ फिल्म से बॉलीवुड में एंट्री की. फिल्म में विनोद खन्ना विलेन की भूमिका में थे. लेकिन अपनी एक्टिंग से वह छा गए और उन्हें फिल्में मिलने लगीं. कई फिल्मों में विलेन का किरदार करने के बाद, विनोद ने 1971 में 'हम तुम और वो' फिल्म में लीड किरदार निभाया.
ओशो से जुड़ने के लिए छोड़ा फिल्मी करियर
विनोद खन्ना ने ‘मेरे अपने’, ‘हेरा-फेरी’ (1976), ‘खून-पसीना’ (1977), ‘मुक़द्दर का सिकंदर’ (1978) जैसी फिल्मों में काम किया. सब फिल्में एक से बढ़कर एक हिट, सुपरहिट हुईं. विनोद की जोड़ी उस दौर के सुपरस्टार अमिताभ बच्चन के साथ खूब जमी. उनकी गिनती फिल्मी दुनिया के सबसे महंगे हीरोज में होने लगी थी.
लेकिन 1975 के आसपास उनका ओशो से मिलना-जुलना हुआ और उन्होंने फिल्में छोड़कर उनका आश्रम जॉइन कर लिया. लेकिन 1982 में उन्होंने फिर से फिल्मों में कमबैक किया. और एक बार फिर सुपरहिट फिल्मों का दौर शुरू हो गया. उन्होंने 'दयावान’ (1988), ‘बंटवारा’ (1989), और ‘चांदनी’ (1989) जैसी फिल्में आईं.
रहे संस्कृति और पर्यटन मंत्री भी
विनोद खन्ना ने सिनेमा, संन्यास के बाद राजनीति का स्वाद भी चखा. उन्होंने बीजेपी जॉइन करके साल 1997 में गुरदासपुर से चुनाव लड़ा और जीते. इसके बाद वह लोकसभा पहुंचे. साल 1999 में वह दूसरी बार जीते और अटल बिहारी वाजपेयी के करीब आ गए. विनोद खन्ना को अटल ने संस्कृति और पर्यटन मंत्रालय दिया और फिर छह महीने में विदेश मंत्रालय में राज्य मंत्री के बतौर तैनात किया.
दिलचस्प बात यह रही कि राजनीति के साथ-साथ उन्होंने फिल्में भी कीं. उनकी दीवानापन (2001), क्रांति (2002), लीला (2002) जैसी उनकी फिल्में तब आईं जब विनोद खन्ना केंद्र में मंत्री रहे. विनोद ने जहां भी कदम रखा, हमेशा सफलता हासिल की. वह हमेशा अपने फैंस के चहेते रहे. और आज भी लोगों के दिल में बसे हैं.