जब उत्तर प्रदेश के हरदोई जिले के बांसा गांव के रहने वाले सम्पूर्णानंद ने अपने भतीजे के लिए 'जतिन ललित' नाम चुना तब शायद वह मशहूर संगीतकार जोड़ी जतिन-ललित के बड़े फैन रहे होंगे. वीसीआर पर चलने वाली फिल्मों में सम्पूर्णानंद ने यह नाम कई बार पढ़ा था. हालांकि बड़े होने पर जतिन ललित का संगीत से कोई वास्ता नहीं रहा.
जतिन ने स्कूली पढ़ाई पूरी करने के बाद दिल्ली आकर वकालत पढ़ी. पढ़ाई पूरी कर जतिन वकील तो बन गए, लेकिन दिल्ली में बिताए हुए समय ने उनके ऊपर गहरी छाप छोड़ी. यही वह समय था जिसने जतिन को अपने गांव लौटकर एक लाइब्रेरी खोलने के लिए प्रेरित किया. और ललित ने अपने वीसीआर वाले गांव को किताबें थमाने का फैसला किया.
कम्युनिटी लाइब्रेरी : दिल्ली से बांसा तक
यह सफर 2018 से शुरू हुआ जब जतिन पढ़ाई के साथ-साथ दिल्ली के कम्युनिटी लाइब्रेरी प्रोजेक्ट का हिस्सा बन गए. यह लाइब्रेरी पूरी दुनिया के लिए खुली हुई थी. कोई भी यहां आकर पढ़ सकता था, सीख सकता था. इस लाइब्रेरी में बिताया गया जतिन का समय बांसा कम्युनिटी लाइब्रेरी के लिए बेहद अहम साबित हुआ.
बांसा कम्युनिटी लाइब्रेरी की वर्तमान डायरेक्टर निहारिका बताती हैं, "बात सिर्फ किताबों की नहीं थी, बल्कि एक ऐसा स्पेस बनाने की थी जहां लोग शिक्षा के अधिकार तक पहुंच सकें. और कुछ सीख सकें. कई बार यह सौभाग्य समाज के कुछ खास हिस्सों को ही मिल पाता है. लाइब्रेरी में जतिन ने समाज के हर हिस्से से लोगों को देखा. वे वहां सिर्फ पढ़ने नहीं बल्कि बैठने, बात करने और एक-दूसरे से जुड़ने आ रहे थे."
निहारिका कहती हैं, "वह लाइब्रेरी एक ऐसी जगह थी जो जातिवाद, इस्लामोफोबिया और लैंगिक भेदभाव जैसी चीजों का विरोध करती थी. यह सिर्फ एक लाइब्रेरी नहीं बल्कि सामाजिक न्याय के सिद्धांतों पर बनी एक कम्युनिटी थी. जतिन को एहसास हुआ कि उनके गांव को इसी की जरूरत है. उन्होंने अपने लोगों के लिए भी एक ऐसी ही जगह का सपना देखा जहां वे पढ़ सकें, सीख सकें और बढ़ सकें."
इस तरह जतिन ने बांसा में भी एक कम्युनिटी लाइब्रेरी खोलने का फैसला किया. उन्होंने दिल्ली में रहते हुए सीखा कि एक कम्युनिटी लाइब्रेरी को कैसे चलाया जाता है. और धीरे-धीरे बांसा में लाइब्रेरी खोलने का काम शुरू कर दिया. लेकिन यह भला कब मुमकिन हुआ है कि कोई बड़ा काम बिना चुनौतियों के हो जाए?
ईंट से ईंट मिलाने के लिए साथ आया भारत
दरअसल जतिन अपने गांव में लाइब्रेरी तो जरूर खोलना चाहते थे लेकिन उन्होंने यह नहीं सोचा था कि उन्हें यह इतनी जल्दी करना होगा. कोविड-19 ने उन्हें लाइब्रेरी पर फौरन काम करने के लिए मजबूर किया. जब जतिन ने देखा कि महामारी के कारण गांव के कई युवा पढ़ाई के लिए शहर नहीं जा पा रहे हैं, तो उन्होंने शहर को बांसा लाने का फैसला किया.
निहारिका बताती हैं, "जतिन के गांव के कई विद्यार्थी और युवा अभ्यर्थी परीक्षाओं की तैयारी करने के लिए शहरों का रुख करते थे. लेकिन लॉकडाउन के कारण वे वहीं फंस गए. तभी जतिन ने महसूस किया कि अब गांव को लाइब्रेरी की सबसे ज्यादा जरूरत है. लोगों को संसाधनों की जरूरत उसी समय थी, इसलिए उन्होंने फैसला किया कि अब काम करने का वक्त आ गया है."
जब जतिन यह लाइब्रेरी शुरू करने को आए तो उनका साथ उनके दो दोस्तों ने भी दिया. मालविका और अभिषेक के साथ मिलकर जतिन ने क्राउडफंडिंग शुरू की. और देशभर से लोगों ने इस लाइब्रेरी को खड़ा करने में अपना योगदान दिया. किसी ने आर्थिक मदद की, किसी ने किताबें दीं और किसी ने अपना वक्त. बूंद-बूंद ने सागर भरा और 2020 में बांसा कम्युनिटी लाइब्रेरी बनकर खड़ी हो गई.
निहारिका बताती हैं कि कोविड-19 के दौरान यह लाइब्रेरी राशन और दवाइयां बांटने के लिए एक रिलीफ सेंटर के तौर पर भी काम आई. महामारी के गुजर जाने के बाद कुछ लोग प्रतिस्पर्धी परीक्षाओं की तैयारी करने के लिए इस लाइब्रेरी का फायदा उठाते हैं. कुछ लोग यहां आकर किताबों के साथ समय बिताते हैं तो कुछ सिलाई-बुनाई जैसी कलाएं भी सीख रहे हैं. यह लाइब्रेरी बांसा का सामाजिक केंद्र बन गई है.
बच्चे, बूढ़े, महिलाएं.... सब उठा रहे फायदा
चार साल पहले जो टीम तीन लोगों के साथ शुरू हुई थी उसमें अब 22 लोग शामिल हो चुके हैं. इसके अलावा बांसा लाइब्रेरी के पास देशभर में 80 वॉलंटियर भी हैं. बांसा कम्युनिटी लाइब्रेरी आज 36 गांवों के 40,000 लोगों तक पहुंच बना रही है. लाइब्रेरी में इस समय 2100 सदस्य रजिस्टर्ड हैं, जिनमें से ज्यादातर महिलाएं हैं.
इस लाइब्रेरी में पढ़ने वाले आठवीं क्लास के 200 बच्चे जहां राष्ट्रीय साधन-सह-मेधा स्कॉलरशिप (National Means-Cum-Merit Scholarship) हासिल करने में कामयाब रहे हैं, वहीं 31 अभ्यर्थी यहां से पढ़कर सरकारी नौकरियां हासिल कर चुके हैं. सिर्फ यही नहीं, 'पॉप-अप लाइब्रेरी' और 'बुक पैकेट' जैसी कोशिशें कई महिलाओं तक पहुंचने में भी बांसा की मदद कर रही हैं.
पॉप-अप लाइब्रेरी : बांसा कम्युनिटी लाइब्रेरी हफ्ते में एक दिन कुछ खास क्षेत्रों तक अपनी किताबें लेकर जाती है. वहां किताबों का पाठ होता है, चर्चाएं होती हैं. और उन महिलाओं को लाइब्रेरी से जुड़ने का मौका मिलता है जो कई कारणों से खुद लाइब्रेरी तक नहीं जा पातीं.
बूक पैकेट : महिलाओं की पसंद और जरूरत के अनुसार किताबें पैकेट में बंद करके उनके घर पर डिलीवर की जाती हैं. एक बार महिलाएं किताबें पढ़ लें तो वे उस किताब को लौटाकर दूसरा पैकेट अपने घर मंगवा सकती हैं.
इस तरह की योजनाएं ज्यादा से ज्यादा महिलाओं और ग्रामीणों तक पहुंचने में बांसा की मदद कर रही हैं. निहारिका बताती हैं कि पॉप-अप लाइब्रेरी और बुक पैकेट्स की मदद से वे इस साल 200 महिलाओं को बांसा कम्युनिटी लाइब्रेरी से जोड़ने में सफल रहे हैं.
अब ज्यादा लोगों तक पहुंचने की है कोशिश
बांसा कम्युनिटी लाइब्रेरी एक सफर का अंत नहीं थी, बल्कि एक सपने की शुरुआत थी. इस समय लाइब्रेरी की टीम कई छोटे-छोटे गांवों में मिनी-लाइब्रेरी बनाने पर काम कर रही है. कई सरकारी स्कूलों में भी लाइब्रेरी बनाने का काम किया जा रहा है. साथ ही कई 'मोबाइल लाइब्रेरी' भी तैयार की जा रही हैं. यानी चलने-फिरने वाली लाइब्रेरी.
इसके जरिए बांसा कम्युनिटी लाइब्रेरी की टीम ऐसे लोगों तक पहुंचने की कोशिश कर रही है जिनके लिए पारंपरिक तौर पर किताबों तक पहुंचना मुश्किल है. इसे अंजाम देने के लिए एक गाइड भी तैयार की गई है. जो लोग अपने गांवों में लाइब्रेरी खोलने के इच्छुक हैं वे इससे रीडिंग स्पेस खोलने से लेकर किताबों के मैनेजमेंट तक सब कुछ सीख सकते हैं.
बांसा कम्युनिटी लाइब्रेरी के सामने अब भी कई चुनौतियां हैं. महिलाओं सहित कई सदस्य अलग-अलग कारणों से लाइब्रेरी छोड़ देते हैं. किसी के ऊपर घर चलाने की जिम्मेदारी आ जाती है, जबकि कोई परिवार से बचाकर समय नहीं निकाल पाता. लेकिन बांसा टीम का मानना है कि शिक्षा में जिन्दगियां बदलने की ताकत होती है. और यही मान्यता उन्हें नए-नए तरीकों से लोगों तक किताबें पहुंचाने के लिए प्रेरित कर रही है.