भारत में मुगल सल्तनत के आखिरी बादशाह, और दिल से शायर कहे जाने वाले जफर यानी बहादुर शाह ज़फर की आज बर्थ एनिवर्सरी है. इन्हें दिल्ली का बादशाह भी कहा जाता है. जफर का पूरा नाम मिर्ज़ा अबू जफ़र सिराजुद्दीन मुहम्मद बहादुर शाह ज़फ़र था. चूंकि वो एक शायर भी थे इसलिए तखल्लुस के लिए जफ़र नाम का इस्तेमाल करते थे.
बहादुर शाह ज़फर ने जब मुगल सल्तनत की बागडोर संभाली तो मुगल सम्राज्य के खात्मे की शुरुआत हो चुकी थी, यानी कम ही जगह पर मुगलिया सल्तनत बची थी. जफर के दिल्ली का बादशाह कहलाए जाने के पीछे भी यही वजह रही है. लेकिन 1857 की क्रांति में हिंदुस्तान के सिपाहियों ने जफर को ही अपना नेता माना, इन पर भरोसा दिखाया और ज़फर से ही मदद ली. ज़फर का नाम उन बादशाहों मे लिया जाता है जो अपने धर्म को मानने के साथ -साथ अमन पसंदी वाले बादशाह रहे.
बहादुर शाह जफ़र यानी मुगलों के आखिरी दिन
प्रमोद नैयर की किताब ''द ट्रायल ऑफ बहादुर शाह जफर'' में इस बात का जिक्र है कि ''मुगल शासन का वास्तविक अंत क्या था"? क्या यह 1707 में आलमगीर में औरंगजेब की मौत के साथ था या साल 1717 का वो दौर था जब एक मुगल फरमान ने अंतर्देशीय व्यापार के लिए सभी सीमा शुल्क माफ कर दिए थे? या 1816 में, जब लॉर्ड हेस्टिंग्स ने मुगल मुद्रा को खत्म कर दिया और ब्रिटिश रुपये का चलन बढ़ गया?
आज़ादी की पहली लड़ाई यानी साल 1857 का विद्रोह भारत के इतिहास के लिए कई मायनों में खास है. इस संघर्ष के साथ ही भारत में मध्यकालीन दौर का अंत और नए युग की शुरुआत हुई, जिसे आधुनिक काल कहा गया.
शिव का संदेश, फ़कीर का कलमा
यूं तो इतिहास की किताबों में 1857 के बारे में ढे़रों किस्से कहानियां मौजूद है चाहे वो शिव का संदेश, फ़कीर का कलमा की दास्तां हो जिसमें दिल्ली की तरफ जाते सिपाहियों को नीले आसमान में उड़ता नीलकंठ का दिखना हो और एक सिपाही का ये कहना कि 'देखो हमारे भगवान शिव हमें रास्ता दिखा रहे हैं.' या फिर कुछ ही देर बाद एक सफ़ेद दाढ़ी वाले कलमा पढ़ते फ़कीर का दिखाई देना , मुसलमान सिपाहियों ने इसे अपने लिए शुभ संकेत माना. हालांकि एक कोबरा सांप ने इस फ़कीर को कलमा पढ़ने के दौरान काफी परेशान किया. वो अपना फ़न फैलाए फ़कीर के पास ही मौजूद रहा और फ़कीर को डर लगता रहा कि कहीं सांप उन्हें काट ना ले. इसे मारने के लिए पठान सिपाहियों पत्थर भी उठाए लेकिन ब्राह्मण और राजपूत सिपाहियों ने ऐसा करने नहीं दिया इसके पीछे उनका तर्क था कि ये नाग भगवान शिव का प्रतीक है जो उन्हें दुआएं देने आया है.
बहादुर शाह जफर का वो ख्वाब और एक नई सोच का पैदा होना
1857 के दौर की एक कहानी खूब लिखी गई है, जो बहादुर शाह से जुड़ी है, और वो है एक ख्वाब, बहादुर शाह ज़फ़र विद्रोही सिपाहियों का नेतृत्व करने के लिए पूरी तरह तैयार नहीं थे, लेकिन कहा जाता है कि एक सपने ने उनके विचार को बदल दिया.
बहादुर शाह ज़फ़र के निजी सचिव जीवन लाल बताते हैं कि बादशाह ने एक रात ख्वाब में अपने दादा शाह आलम को देखा, वो अपने पोते से कह रहे थे कि वक्त आ गया है कि 100 साल पहले हुई प्लासी की लड़ाई का बदला लिया जाए. बस फिर क्या था बहादुर शाह ज़फ़र विद्रोही सिपाहियों का नेतृत्व करने के लिए तैयार हो गए. उम्र की सभी रंग देख चुके बहादुर शाह उस वक्त बूढ़े हो चुके थे, लेकिन उन्होने ये ठान लिया था कि उन्हें ये लड़ाई लड़नी है.
जब हुमायूँ के मकबरे से जफर की गिरफ्तारी हुई
19 सितंबर 1857 में बादशाह को उनकी बेगमों और राजकुमारों के साथ हुमायूँ के मकबरे से गिरफ्तार किया गया था. और ज़फर की जिंदगी का यही सबसे विवादित इतिहास माना जाता है. या यूं कहे कि बहादुर शाह ज़फर को क्रांति का ऐसा प्रतीक माना गया जो हमेशा याद किया जाएगा.
मुगल साम्राज्य के सबसे कमजोर बादशाह होने के बावजूद (जो केवल दिल्ली तक ही महदूद था) वह अभी भी 'भारत का बादशाह' था. बहादुर शाह ज़फर ये अच्छे से जानते थे कि वह लाल किले में रहने वाला आखिरी मुगल शासक होंगे, और अपना प्रभुत्व कायम करने, अपनी मंजिल को पाने के लिए तपस्या, त्याग करते रहेंगे जब तक उसकी मांग पूरी नहीं हो जाती.
यूं तो दिल से शायर इस बादशाह के अनेको किस्से हैं, जिसके बारे में बातें हो तो बातें लम्बी हो जाएगी. लेकिन आज उनकी बर्थ एनिवर्सिरी पर उनकी शायरी के खजाने से एक शेर जरूर याद करना चाहिए जो अपने दिल की बात बड़े इतमिनान से कहता मालूम पड़ता है लेकिन पिर भी पूरी बात नहीं कह पाया.
भरी है दिल में जो हसरत कहूं तो किस से कहूं
सुने है कौन मुसिबत कहूं तो किस से कहूं
जो तू हो साफ तो कुछ मैं भी साफ तुझ से कहूं
तेरे है दिल में कुदुरत (गुस्ताखी) कहूं तो किस से कहूं
दिल उसे आप दिया आप जी पशिमन (पछतावा) हूं
की सच है अपनी नादमत (अफसोस) कहूं तो किस से कहूं