आनंदीबाई गोपालराव जोशी पहली महिला भारतीय चिकित्सक थीं. वह संयुक्त राज्य अमेरिका से पश्चिमी चिकित्सा में अपनी पढ़ाई पूरी करने वाली भारत की पहली महिला थीं. यह आनंदीबाई ही थीं जिन्होंने बहुत सी महिलाओं को भारत और संयुक्त राज्य अमेरिका में चिकित्सा के क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया. आनंदीबाई विदेश से वेस्टर्न मेडिसिन (पश्चिमी चिकित्सा) में दो साल की डिग्री पढ़ने और स्नातक करने वाली भारत की बॉम्बे प्रेसीडेंसी की पहली महिला भी बनीं.
पति के साथ से मिला पढ़ने का मौका
31 मार्च 1865 को जन्मी आनंदीबाई के जन्म का नाम 'यमुना' था. वह महाराष्ट्र में जमींदार घर में जन्मी थीं. लेकिन कुछ कारणों से उनके परिवार के आर्थिक हालात बिगड़ गए. और अपने परिवार के दबाव में उन्हें मात्र 9 साल की उम्र में शादी करनी पड़ी. आनंदी की शादी खुद से कई साल बड़े गोपालराव जोशी के साथ हुई. गोपाल राव की पहली पत्नी का देहांत हो गया था. उन्होंने ही यमुना को आनंदी नाम दिया.
गोपालराव, एक प्रगतिशील विचारक थे और महिलाओं के लिए शिक्षा का समर्थन करते थे. उन्होंने देखा कि आनंदी को पढ़ाई में दिलचस्पी है. इसलिए उन्होंने एक मिशनरी स्कूल में आनंगी को दाखिला दिलाया, और बाद में उन्हें अपने साथ कलकत्ता ले गए, जहां आनंदी ने संस्कृत और अंग्रेजी बोलना सीखा.
एक घटना ने बदला जीवन का रुख
1800 के दशक में, पतियों के लिए अपनी पत्नियों की शिक्षा पर ध्यान देना बहुत असामान्य था. गोपालराव आनंदीबाई की शिक्षा के प्रति आसक्त थे और चाहते थे कि आनंदी दुनिया में अपनी अलग पहचान बनाएं. आनंदी की स्कूली शिक्षा पूरी कराने में गोपाल राव की अहम भूमिका रही. हालांकि, आनंदी के डॉक्टर बनने की राह तब बनी जब उन्होंने 15 साल की उम्र में एक बेटे को जन्म दिया.
दरअसल, आनंदी का बच्चा मात्र 10 दिन ही जी सका. सही इलाज न मिलने के कारण वह अपने बच्चे को नहीं बचा सकीं. इसके बाद, आनंदी ने ठाना की वह डॉक्टर बनेंगी ताकि फिर किसी और औरत के साथ ऐसा न हो. वैसे भी उस समय भारत में सिर्फ पुरुष डॉक्टर थे और महिलाओं को उनसे इलाज कराने में डर लगता था. गोपालराव ने आनंदीबाई को मेडिकल की पढ़ाई करने के लिए अमेरिका भेजने का निर्णय.
लंबे संघर्ष के बाद पहुंची अमेरिका
आनंदी और गोपाल राव के पास इतने साधन नहीं थे कि वह अमेरिका में रहकर पढ़ पातीं. इसके लिए गोपालराव ने एक मिशनरी को पत्र लिखा कि वे उनकी मदद कर दें. हालांकि, ज्यादातर मिशनरी इस बात पर अड़े रहे कि वे अगर अपना धर्म बदल लें तो उनकी मदद की जा सकती है. लेकिन आनंदी और गोपाल ने इसके लिए मना कर दिया. हालांकि, उनके संघर्ष के बारे में जानकर एक अमेरिकी महिला ने आनंदी को अपने घर में रखने के लिए हां कह दी.
संयुक्त राज्य अमेरिका जाने से पहले, आनंदीबाई ने 1883 में एक सार्वजनिक हॉल को संबोधित किया, जहां उन्होंने भारत में महिला डॉक्टरों की कमी पर अपनी निराशा व्यक्त की. उन्होंने कहा, "मैं खुद को एक डॉक्टर के रूप में बतौर स्वयंसेवी पेश करती हूं."
आनंदीबाई की अमेरिका यात्रा
जनसभा में अपने प्रेरक भाषण के बाद उन्होंने अमेरिका में मेडिसिन की पढ़ाई पर अपने विचार व्यक्त किए.उन्होंने भारत में महिला डॉक्टरों की आवश्यकता पर भी जोर दिया और कहा कि एक महिला, दूसरी महिलाओं के लिए बेहतर डॉक्टर हो सकती है. हालांकि, उस समय तक उनका स्वास्थ्य बिगड़ने लगा था.
लेकिन गोपालराव ने उनसे अमेरिका जाने का आग्रह किया था ताकि वे देश की अन्य महिलाओं के लिए एक मिसाल कायम कर सकें. आनंदीबाई ने पेंसिल्वेनिया के महिला मेडिकल कॉलेज में दाखिला लिया और 19 साल की उम्र में चिकित्सा में अपना दो साल का कोर्स पूरा किया. उन्होंने 1886 में एमडी के साथ स्नातक की उपाधि प्राप्त की, जिसका विषय 'आर्यन हिंदुओं में प्रसूति' था.
अपनी थीसिस में, उन्होंने आयुर्वेदिक ग्रंथों और अमेरिकी पाठ्यपुस्तकों से जानकारी को कवर किया. उनके स्नातक होने पर, महारानी विक्टोरिया ने अपनी खुशी व्यक्त करते हुए उन्हें एक संदेश भेजा.
22 साल की उम्र में कहा दुनिया को अलविदा
आनंदीबाई का 22 वर्ष की आयु में टीबी के कारण निधन हो गया. इससे पहले कि वह मेडिसिन में प्रैक्टिस कर पातीं उनका स्वास्थ्य बहुत ज्यादा बिगड़ गया और उन्होंने दुनिया से विदा ली. उनके निधन पर पूरे देश में शोक मनाया गया. लेकिन आनंदी अपने पीछे एक बहुत बड़ी विरासत छोड़ गई थीं जिसे देश के बेटियों को संभालना था.
वेस्टर्न मेडिसिन पढ़ने वाली भारत की पहली महिला डॉक्टर आनंदीबाई जोशी थीं. लेकिन देश की पहली प्रैक्टिसिंग महिला डॉक्टर कादम्बिनी गांगुली बनीं. कादम्बिनी ने भारत में अपनी मेडिकल की शिक्षा पूरी की और पढ़ाई के बाद लोगों का इलाज भी किया. लेकिन स्त्री शिक्षा के लिए आनंदी के योगदान को कोई नहीं भुला सकता है.
उनकी मृत्यु के बाद भी, भारत में महिलाओं को शिक्षित करने के महत्व के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए कई लेखकों और शोधकर्ताओं ने उनके बारे में लिखना जारी रखा. दूरदर्शन ने उनके जीवन पर एक टेलीविजन सीरिज बनाई और अमेरिकी फेमिनिस्ट लेखिका कैरोलीन वेल्स हीली डॉल ने 1888 में उनकी जीवनी लिखी.