आईआईटी दिल्ली (IIT Delhi) के हॉल में बैठी हुई नेहा सूरी के सामने टेबल पर महिला की अपर बॉडी का डमी रखा है. इस डमी की ब्रेस्ट पर पांच ब्रेल-चिह्नित ओरिएंटेशन टेप चिपके हुए हैं. वे लोगों को बता रही हैं कि आखिर वे कैसे छूकर ब्रेस्ट में गांठों का पता लगा सकती हैं. नेहा दिल्ली में मेडिकल टैक्टाइल एग्जामिनर (MTE) हैं. टैक्टाइल ब्रेस्ट एग्जामिनेशन (Tactile Breast Examination) भारत और यूरोप में ऐसी महिलाओं के लिए एक नया और उभरता हुआ पेशा है जो देख नहीं सकती हैं. कैंसर से पति के गुजर जाने के बाद नेहा ने हाथों से ब्रेस्ट कैंसर स्क्रीनिंग (Breast Cancer Screening) सीखी. अब तक वे बड़े-बड़े अस्पतालों में लोगों का टेस्ट कर चुकी हैं. केवल नेहा ही नहीं उनके साथ कई ऐसी दृष्टिबाधित लड़कियां हैं जो अब तक हजारों महिलाओं की ब्रेस्ट कैंसर स्क्रीनिंग में मदद कर चुकी हैं. डिस्कवरिंग हैंड्स (Discovering Hands) के नाम से चल रही ये पहल भारत में, नेशनल एसोसिएशन ऑफ द ब्लाइंड इंडिया सेंटर फॉर ब्लाइंड वुमेन एंड डिसेबिलिटी स्टडीज (NABCBW) ने शुरू की है. साल 2017 में इसे शुरू किया गया था.
सबसे पहले टैक्टाइल ब्रेस्ट एग्जामिनेशन का विचार लाने वाले जर्मनी के गायनेकोलॉजिस्ट डॉ. फ्रैंक हॉफमैन (Dr Frank Hoffmann) हैं. उनका ब्रेनचाइल्ड कहलाने वाला ये प्रोजेक्ट डिस्कवरिंग हैंड्स अपने आप में काफी नया है. डॉक्टर फ्रेंक हॉफमैन ने पाया कि ऐसी महिलाएं जो देख नहीं सकती हैं वे आसानी से 6-8 मिमी जितनी छोटी गांठ महसूस कर सकती हैं. वहीं फिजिशियन केवल 10-20 मिमी की गांठों का ही पता लगा सकते हैं. ऐसे में लोगों को ब्रेस्ट कैंसर के प्रति जागरूक करने के मकसद से इस प्रोजेक्ट को दुनियाभर में शुरू किया गया.
ब्रेस्ट स्क्रीनिंग में झिझकती हैं महिलाएं
भारत में आज भी महिलाएं अपनी परेशानियों के बारे में बात करने में और अस्पतालों तक जाने में झिझकती हैं. यही कारण है कि ब्रेस्ट कैंसर का पता लगाने के लिए जो टेस्ट किया जाता है- मैमोग्राफी (Mammography), वो कहीं न कहीं यहां फेल हुआ है. नेशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसिन की एक रिपोर्ट के मुताबिक, महिलाओं में स्क्रीनिंग कराने में झिझक पैदा हो रही है. इसके कई कारण हो सकते हैं जैसे जागरूकता की कमी, हॉस्पिटल तक महिलाओं की पहुंच, डर और चिंता और आखिरी महिला रेडियोलॉजिस्ट की कमी. कुछ क्षेत्रों में महिला रेडियोलॉजिस्ट (Women Radiologist) की अनुपस्थिति कई महिलाओं के लिए इस टेस्ट को और भी मुश्किल बना देती हैं.
ऐसे में डिस्कवरिंग हैंड्स कहीं न कहीं ग्रामीण महिलाओं से लेकर शहरों में रहने वाली कामकाजी महिलाओं तक के लिए एक आशा की किरण है. कई रिसर्च कहती हैं कि देख न सकने के कारण दृष्टिबाधित लोगों की सुनने, छूने और दूसरी इंद्रियों में सेंसिटिविटी बढ़ जाती है. ऐसे में टच को बेहतर तरीके से समझ सकती हैं.
कैसे होता है एग्जामिनेशन?
नेहा सूरी भारत की उन महिलाओं में से एक हैं जिन्हें सबसे पहले डिस्कवरिंग हैंड्स की ट्रेनिंग दी गई थी. उनका कोर्स 2018 में पूरा हुआ था. फोर्टिस (Fortis) और मेदांता (Medanta) जैसे हॉस्पिटल में काम कर चुकी नेहा आज सर्टिफाइड मेडिकल टेक्टाइल एग्जामिनर हैं और अब तक 400 से ज्यादा टेस्ट कर चुकी हैं.
एग्जामिनेशन कैसे होता है इसे लेकर नेहा ने GNT डिजिटल को बताया कि वे सबसे पहले महिला से उनकी हिस्ट्री लेते हैं. उनकी मेडिकेशन के बारे में भी पूछते हैं. पूरा प्रोसेस समझाते हुए वे बताती हैं, “जो डमी पर टेप लगी है उसे डोकॉस (Docos) कहा जाता है. इससे हम सेंटीमीटर बाय सेंटीमीटर ब्रेस्ट को चेक करते हैं. इसमें हम सर्वाइकल लिम्फ नोड्स (Cervical lymph nodes), एक्सिलरी लिम्फ नोड्स (Axillary Lymph nodes) और सुपरक्लेविकुलर लिम्फ नोड्स (Supraclavicular Lymph Nodes) चेक करते हैं. क्योंकि ब्रेस्ट में अगर कहीं भी सूजन होती है तो सबसे पहले लिम्फ नोड्स बन जाते हैं, इसलिए कोई भी गांठ महसूस हो जाती है. नॉर्मल हॉस्पिटल में टेस्टिंग में ये सब नोड्स चेक नहीं किए जाते हैं. हम ब्रेस्ट को 4 हिस्सों में टेप के जरिए डिवाइड कर देते हैं. और फिर अपनी उंगलियों को पैरलेल मूव करते हैं. ये मूवमेंट सेंटीमीटर बाय सेंटीमीटर होता है, जिससे कोई भी एरिया अनछुआ नहीं रहता है. उंगलियों से तीन तरह के प्रेशर दिए जाते हैं- सुपरफिशियल, मीडियम और डीप. इससे हम आसानी से किसी भी गांठ का पता लगा लेते हैं.”
आगे नेहा कहती हैं, “सोनोग्राफी (Sonography) और मैमोग्राफी (Mammography) में 1-1.5 सेंटीमीटर से ऊपर ही लम्प नोटिस होता है लेकिन हम अपने हाथों से 0.5 सेंटीमीटर लम्प भी नोटिस कर लेते हैं. इसके बाद हम ये रिपोर्ट डॉक्टर को दे देते हैं और वो फिर आगे का प्रोसेस फॉलो करते हैं. हमारा काम शुरुआती चेकअप करना है. इस पूरे प्रोसेस में 45 से 50 मिनट लग जाते हैं.”
2017 में भारत में हुआ था शुरू
मौजूदा समय में टाटा के सभी अस्पतालों में इस मेथड को प्रपोज किया जा चुका है, जिसमें से कई में ये शुरू भी हो गया है. वहीं गुरुग्राम मेदांता और दिल्ली के सीके बिरला अस्पताल में भी ये टेस्ट शुरू हो चुका है.
वहीं, भारत में इसे शुरू करने वाली NAB की डायरेक्टर शालिनी खन्ना ने GNT डिजिटल को बताया, “अगस्त 2017 में हमने इसे शुरू करने का सोचा था. भारत के ही कुछ डॉक्टर्स का एक एनजीओ ऐसी औरतों को ढूंढ रहे थे जो देख नहीं सकती हैं. उनको जर्मन गायनेकोलॉजिस्ट डॉक्टर फ्रैंक हॉफमैन ने इसके लिए पूछा था. जब मुझे पता चला तो मैं जर्मनी गई और वहां देखा कि आखिर ये क्या है और भारत में इसका कितना स्कोप है? तब मुझे लगा कि हां इससे जुड़ा कोई इनिशिएटिव शुरू किया जा सकता है. इसके लिए सबसे पहले मैंने ट्रेनर को रिक्रूट किया और उन्हें जर्मनी लेकर जाया गया.”
भारत में महिलाओं को सबसे ज्यादा होता है ब्रेस्ट कैंसर
बताते चलें की ब्रेस्ट कैंसर की जांच के लिए स्टैंडर्ड टेस्ट मैमोग्राफी है, जिसमें ब्रेस्ट का एक्स-रे (Breast X-ray) लिया जाता है. हालांकि, विदेशों में या पश्चिम के देशों में ये काफी आम बात है, लेकिन लागत और महिलाओं की पहुंच की वजह से कहीं न कहीं ये भारत में काफी मुश्किल है. यही वजह है कि देश की महिलाओं में कैंसर से होने वाली मौत का प्रमुख कारण ब्रेस्ट कैंसर है. ज्यादातर मामलों में 60% महिलाओं का इलाज बीमारी की तीसरे या चौथी स्टेज में किया जाता है, जिससे जीवित रहने की दर काफी कम हो जाती है. बीबीसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारतीय महिलाओं में अगर पहली स्टेज का ब्रेस्ट कैंसर है तो जिन्दा रहने की दर 95%, वहीं स्टेज-2 में 92%, स्टेज-3 में 70% और स्टेज-IV के रोगियों में ये केवल 21% है.
हालांकि, डिस्कवरिंग हैंड्स को लेकर शालिनी बताती हैं कि औरतें इसे लेकर काफी पॉजिटिव हैं. वे कहती हैं, “हम जितनी भी कम्युनिटी में गए हैं वहां औरतें चेकअप करवाने के लिए तैयार रहती हैं. इसके दो कारण हैं, पहला कि वे एक औरत से चेकअप करवा रही हैं. वहीं दूसरा कि जो चेकअप कर रही हैं वो देख नहीं सकती हैं तो इससे उनकी झिझक भी हट जाती है. हालांकि, भारत में महिलाएं अपनी परेशानियों के बारे में बात करने में झिझकती हैं. हेल्थकेयर तक पहुंच की कमी, अपर्याप्त सुविधाएं, और अपनी जेब से खर्च करने के डर के कारण ट्रीटमेंट में देरी होती है, जिससे ठीक होने की संभावना कम हो जाती है. ऐसे में डिस्कवरिंग हैंड कहीं न कहीं महिलाओं को पहले ही चेकअप करवाने की सुविधा देता है.”
प्राइमरी हेल्थ वर्कर्स कर सकती हैं बीमारी को पकड़ने में मदद
2021 की मुंबई ब्रेस्ट स्क्रीनिंग रिसर्च में सामने आया था कि प्राइमरी हेल्थ वर्कर्स ब्रेस्ट कैंसर को शुरुआती स्टेज में पकड़ने में मदद कर सकती हैं. रिसर्च में सामने आया कि इससे 50 से ज्यादा उम्र की महिलाओं में बीमारी से मृत्यु दर (Death Rate) लगभग 30% तक कम हो सकती है. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अनुसार ब्रेस्ट स्क्रीनिंग में महिलाओं की भागीदारी दर "बेहद अपर्याप्त" है. कुल मिलाकर, पूरे भारत में 2019 और 2021 के बीच 1% से भी कम महिलाओं ने ब्रेस्ट कैंसर की जांच कराई थी. ऐसे में एमटीई (MTE) से जांच का उद्देश्य डॉक्टरों या मैमोग्राम की जगह लेना नहीं है, बल्कि एक सटीक नियमित ब्रेस्ट कैंसर स्क्रीनिंग की ओर पहला कदम बढ़ाना है.
आखिर में ब्रेस्ट कैंसर की प्री-टेस्टिंग को लेकर शालिनी कहती हैं कि भारत में ब्रेस्ट कैंसर बहुत छोटी उम्र से ही देखा जा रहा है. कुछ महिलाओं में तो 20 की उम्र में ही ये पाया गया है. रेडिएशन से जहां सभी को डर लगता है, ऐसे में एक महिला के हाथ से इतना परफेक्ट चेकअप कुछ नहीं हो सकता है. ब्रेस्ट कैंसर एक ऐसा कैंसर है जो जल्दी पकड़ा जाए तो बिलकुल ठीक हो सकता है, लेकिन अगर इसमें देरी हो तो जान जा सकती है. तो मुझे लगता है कि अपनी जिंदगी बचाने के लिए हर 6 महीने में अपना चेकअप करवाते रहें. हर एक महिला जो 18 साल से ज्यादा उम्र की हैं उन्हें ये चेकअप करवाना चाहिए.