Lifestyle Therapy: सिर्फ दवाओं से नहीं, सही खाने और एक्सरसाइज से भी दूर हो सकता है डिप्रेशन, जानिए क्या कहती है रिसर्च

ऑस्ट्रेलिया की डीकिन यूनिवर्सिटी की ओर से इसी सप्ताह प्रकाशित रिसर्च में यह दावा किया गया है कि सही खाना और एक्सरसाइज डिप्रेशन दूर करने में साइकोथेरेपी जितना ही कारगर है. कैसी गई की यह स्टडी और क्या कहते हैं इसके नतीजे, पढ़िए.

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  • नई दिल्ली ,
  • 05 अगस्त 2024,
  • अपडेटेड 1:51 PM IST
  • ऑस्ट्रेलिया की डीकिन्स यूनिवर्सिटी में हुई रिसर्च
  • 182 लोगों पर हुई रिसर्च

एक स्टडी के अनुसार भारत में करीब 5.7 करोड़ लोग डिप्रेशन से जूझ रहे हैं. इस बीमारी की चपेट में आने पर लोग या तो खुलकर बात करना और उपचार करना जरूरी नहीं समझते, या फिर डॉक्टर के पास जाते हैं. साइकोलॉजिस्ट के संपर्क में आने के बाद थेरेपी और ड्रग्स का सिलसिला शुरू है. ये ड्रग्स हमें डिप्रेशन से बाहर आने में मदद तो करते हैं लेकिन हमारी सेहत पर प्रतिकूल प्रभाव भी डालते हैं. अब एक रिसर्च में खुलासा हुआ है कि बेहतर डाइट का पालन करना और ज्यादा एक्सरसाइज करना भी डिप्रेशन को हराने में थेरेपी जितना ही कारगर हो सकता है. 

ऑस्ट्रेलिया की डीकिन यूनिवर्सिटी के फूड एंड मूड सेंटर (Food and Mood Centre, Deaking University) की ओर से इसी सप्ताह प्रकाशित हुई रिसर्च में यह दावा किया गया है. यह इस तरह का दुनिया का पहला ट्रायल है. इससे पहले की गई रिसर्च में यह तो साफ हुआ था कि लाइफस्टाइल बदलना डिप्रेशन से लड़ने में मददगार हो सकता है, लेकिन इसकी तुलना कभी साइकोलॉजिकल थेरेपी से नहीं की गई थी. 

कैसे की गई रिसर्च?
डीकिन यूनिवर्सिटी विक्टोरिया में मौजूद है. कोविड लॉकडाउन के दौरान विक्टोरिया में डिप्रेशन के कई मामले सामने आ रहे थे जबकि मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी सेवाएं बहुत सीमित थीं. इस रिसर्च के लिए विक्टोरिया के उन लोगों को चुना गया जो अत्यधिक तनाव के साथ जी रहे थे. यानी ऐसे लोग जिन्हें कम से कम हल्का डिप्रेशन था. जिन लोगों में उदासी, मायूसी और झुंझलाहट जैसे लक्षण देखे गए उन्हें स्टडी के लिए चुन लिया गया. 

फूड एंड मूड सेंटर के प्रोफेसर एड्रिएन ओ'नील और एसोसिएट रिसर्च फेलो सोफी महोनी बताते हैं कि उन्होंने इस काम के लिए स्थानीय मेंटल हेल्थ सेवाओं के साथ मिलकर 182 लोगों को चुना और ज़ूम पर पूरे ग्रुप को एक साथ संबोधित किया. सभी प्रतिभागियों ने आठ हफ्तों के दौरान छह सत्रों में हिस्सा लिया. इस ग्रुप के आधे लोगों ने एक डाइटीशियन और एक्सरसाइज साइकोलॉजिस्ट के दिशा-निर्देशों का पालन करते हुए एक खास तरह का खाना खाया और वर्कआउट किया. 

दूसरे ग्रुप के मरीजों ने दो मानसिक रोग विशेषज्ञों के साथ साइकोथेरेपी सत्रों में हिस्सा लिया. इस प्रोग्राम में 'कॉग्निटिव बिहेवियरल थेरेपी' (Cognitive Behavioural Therapy) का सहारा लिया गया. यह थेरेपी आमतौर पर तब दी जाती है जब एक साथ कई लोगों को संभालना हो. या थेरेपिस्ट और मरीज एक-दूसरे से दूर हों. 

लाइफस्टाइल थेरेपी वाले मरीजों को जहां खाने की एक टोकरी दी गई, वहीं साइकोथेरेपी वाले ग्रुप को कलरिंग बुक, स्ट्रेस बॉल और हेड मसाजर दिया गया. दोनों समूहों के मरीज अपने नए इलाज के साथ-साथ पुराने इलाज भी जारी रख सकते थे. 

कैसे रहे नतीजे?
रिसर्च के नतीजों में पाया गया कि इलाज के दोनों ही तरीके लगभग बराबर कारगर हैं. स्टडी की शुरुआत में हर प्रतिभागी को उनकी बताई गई मानसिक स्थिति के आधार पर स्कोर दिया गया था. आठ हफ्तों बाद स्टडी खत्म होने पर एक बार फिर सभी का आंकलन किया गया. जिन मरीजों के लाइफस्टाइल में बदलाव किया गया था, उनके कुल स्कोर में 42 प्रतिशत का गिरावट देखी गई. जिन मरीजों को मानसिक थेरेपी दी गई उनके स्कोर में 37 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई. 

दोनों समूहों में कुछ फर्क भी देखे गए. जैसे लाइफस्टाइल प्रोग्राम वाले मरीजों की डाइट बेहतर हो गई जबकि साइकोथेरेपी कार्यक्रम वाले मरीजों ने अपने आसपास समाज में एक बेहतर सपोर्ट सिस्टम महसूस किया. ध्यान देने वाली बात है कि दोनों कार्यक्रमों का खर्च भी लगभग बराबर ही रहा. साइकोथेरेपी प्रोग्राम में जहां हर मरीज के लिए 503 डॉलर का खर्च आया, वहीं लाइफस्टाइल प्रोग्राम में हर मरीज पर सिर्फ 482 डॉलर ही खर्च हुए.

प्रोफेसर एड्रिएन का मानना है कि यह स्टडी भविष्य में लाइफस्टाइल थेरेपी को बढ़ावा देने के लिए रास्ता हमवार करेगी. ऐसे में बढ़ते हुए मानसिक तनाव के मामलों के बीच मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों पर पड़ने वाला दबाव भी कम होगा. 

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