मेडिकल शिक्षा और पेशेवरों को नियंत्रित करने वाली संस्था नेशनल मेडिकल कमीशन (NMC) ने एंटीबायोटिक्स के संबंध में बड़ा फैसला लिया है. एनएमसी ने डॉक्टरों के लिए जारी की गई ताजा गाइडलाइन्स में कहा है कि डॉक्टर किसी मरीज को एंटीबायोटिक्स तब तक नहीं दे सकते जब तक डाइग्नोस्टिक टेस्ट से यह साबित न हो जाए कि उसे इसकी जरूरत है.
गाइडलाइन्स में कहा गया है कि हाल के वर्षों में एंटीबायोटिक्स का इस्तेमाल बढ़ा है. डॉक्टर किसी फैलने वाली बीमारी का शक होने पर मरीज को एंटीबायोटिक्स दे देते हैं. इससे शरीर में एंटी-माइक्रोबियल रेजिस्टेंस (AMR) विकसित हो गया है यानी एंटी-बायोटिक्स का असर कम होने लगा है.
एनएमसी ने शिक्षकों और रेसिडेंट डॉक्टर्स दोनों के लिए चिकित्सा संस्थानों को अपने 156 पेज की गाइडलाइन्स, 'नेशनल एक्शन प्लान ऑन एंटीमाइक्रोबियल रेजिस्टेंस (एनएपी-एएमआर) मॉड्यूल फॉर प्रिस्क्राइबर्स' भेजी हैं.
एएमआर क्या है?
एएमआर एक ऐसी स्थिति है जब उच्च श्रेणी के एंटीबायोटिक दवाओं के संपर्क में आने वाले रोगाणु समय के साथ उनके आदी हो जाते हैं. ऐसे में इन दवाओं की तासीर कम हो जाती है. इससे सामान्य संक्रमणों का इलाज करना मुश्किल हो जाता है. गंभीर बीमारी और मृत्यु का खतरा बढ़ जाता है. सिर्फ यही नहीं, एएमआर एक व्यक्ति को "सर्जरी, कीमोथेरेपी और स्थायी संक्रमण के प्रबंधन" के दौरान नए संक्रमण को रोकने में भी अप्रभावी बना देता है. बेहद आसान शब्दों में कहें तो बैक्टीरिया मार खा-खाकर इतने मजबूत हो जाते हैं कि फिर उन पर मार का कोई असर ही नहीं होता.
दिशानिर्देशों की जरूरत क्यों पड़ी?
यह जरूरी नहीं कि इन्फेक्शन बैक्टीरिया का ही हो. यह वायरल, फंगल या कोई पैरासाइट भी हो सकता है. दिशानिर्देश कहते हैं कि अगर इन्फेक्शन के कारण की सही तरह पहचान की जाती है तो हो सकता है कि एंटीबायोटिक की जरूरत ही न पड़े. दिशानिर्देश कहते हैं कि रोगियों को सबसे पहले लक्षणों के आधार पर बांटा जाए. ये श्रेणियां कुछ यूं हैं:
'तेज बुखार वाली बीमारी और चकते/खाज' के नाम से जो श्रेणी बनाई गई है, उसमें डेंगू या मलेरिया जैसे वायरल संक्रमण, स्कार्लेट बुखार जैसे बैक्टीरिया इन्फेक्शन, लाइम रोग और दवा के रिएक्शन जैसे अन्य इन्फेक्शन शामिल हैं.
पीलिया के साथ तेज बुखार वाली बीमारी नाम की श्रेणी में हेपेटाइटिस जैसे वायरल इन्फेक्शन, टाइफाइड जैसे बैक्टीरिया इन्फेक्शन और पित्त पथ के संक्रमण शामिल हैं.
दिमाग से जुड़ी हुई तेज बुखार वाली बीमारी में मेनिनजाइटिस शामिल है जबकि सांस से जुड़ी हुई तेज बुखार वाली बीमारी में फ्लू और निमोनिया शामिल हैं.
यहां ध्यान देने वाली बात है कि अंतिम श्रेणी को लेकर दिशानिर्देश कहते हैं, "सांस से जुड़ी हुई ज्यादातर बीमारियों के लिए एंटी-बायोटिक दवाओं की जरूरत नहीं होती है. वायरल संक्रमण खुद ही सीमित होते हैं और इनका लक्षणों के अनुसार ही इलाज किया जाता है. हालांकि, अगर श्वसन संबंधी लक्षणों वाले रोगी में बलगम निकलता है और सेप्टीसीमिया के लक्षण दिखाई देते हैं, तो निमोनिया का संदेह किया जाना चाहिए. थूक का सैम्पल लैब में भेजा जाना चाहिए और अनुभवजन्य एंटीबायोटिक शुरू किया जा सकता है.
एनएमसी ने डॉक्टरों से खून की सैम्पलिंग की सही तकनीक को समझने और माइक्रोबायोलॉजी लैब के साथ सही संचार करने का भी आग्रह किया है. इसमें कहा गया है, "सकारात्मक संस्कृति रिपोर्ट को तेजी से डॉक्टरों तक पहुंचाया जाना चाहिए ताकि चिकित्सीय हस्तक्षेप सही समय पर किया जा सके."
गाइडलाइन्स कहती हैं, "अनुभवजन्य एंटीबायोटिक चिकित्सा गंभीर रूप से बीमार रोगियों तक ही सीमित होनी चाहिए. यह चयन संस्थागत/स्थानीय एंटीबायोग्राम पर आधारित होना चाहिए (ये दर्शाते हैं कि जीवों की एक शृंखला कई एंटी-बायोटिक्स के प्रति कितनी संवेदनशील है). क्लिनिकल मूल्यांकन और एंटीबायोग्राम को ध्यान में रखते हुए सबसे संभावित रोगजनक के आधार पर उचित एंटीबायोटिक चुनें."