Rare Disease Day Exclusive: कैंसर से भी महंगे इलाज वाली इन बीमारियों में ERT थेरेपी है कारगर, पॉलिसी.. क्राउडफंडिंग के बाद भी कई सौ मरीजों के सामने हैं ये चुनौतियां 

Rare Disease Day: देश में कई ऐसी बीमारियां हैं जिनके बारे में लोग नहीं जानते हैं. इन दुर्लभ बीमारियों को रेयर डिजीज के रूप में जाना जाता है. इसको लेकर लोगों के मन में जागरूकता फैलाने के लिए हर साल फरवरी के आखिरी दिन रेयर डिजीज डे मनाया जाता है. भारत में अभी इसके 400 से अधिक मरीज हैं.

Rare Disease Day 2023
अपूर्वा सिंह
  • दिल्ली,
  • 28 फरवरी 2023,
  • अपडेटेड 10:04 AM IST
  • 2017 से पहले नहीं थी कोई पॉलिसी 
  • रेयर डिजीज में ERT थेरेपी है कारगर

22 साल के मयंक को साल 2007 में एंजाइम रिप्लेसमेन्ट थेरेपी (Enzyme Replacement Therapy) के बारे में पता चला था. ये थेरेपी रेयर डिजीज बीमारियों (Rare Disease) के इलाज में काम आती है. 2003 में जब मयंक को अपनी MPS टाइप बीमारी के बारे में पता चला तो उन्हें उम्मीद नहीं थी कि वे कभी नॉर्मल हो भी पाएंगे या नहीं. हालांकि आज वो एक अच्छी लाइफस्टाइल जी रहे हैं. ठीक ऐसे ही 30 साल के शशांक कुल 14 साल के थे तब उन्हें अपनी रेयर डिजीज के बारे में पता चला... इसका इलाज काफी महंगा था. लेकिन 2007 में एक फार्मास्यूटिकल कंपनी की मदद से उनका ट्रीटमेंट हो पाया. आज वे एमबीए करके एक अच्छी कंपनी में नौकरी कर रही हैं. 

दरअसल, रेयर डिजीज या दुर्लभ बीमारी से मुट्ठी भर लोग ही प्रभावित हैं. ये ऐसी बीमारियां हैं जिनके बारे में लोग नहीं जानते हैं. इन दुर्लभ बीमारियों को रेयर डिजीज के रूप में जाना जाता है. इसको लेकर लोगों के मन में जागरूकता फैलाने के लिए हर साल फरवरी के आखिरी दिन रेयर डिजीज डे (Rare Disease Day 2023) मनाया जाता है. ये बीमारियां मरीज और उसके परिजनों के लिए अनगिनत चुनौतियों को पेश कर सकती हैं. महंगा इलाज और सही ट्रीटमेंट न मिलने पर काफी दिक्कत हो सकती है. रिपोर्ट्स के मुताबिक, 20 में से 1 भारतीय किसी एक रेयर डिजीज से प्रभावित है.

(फोटो सोर्स: रेयर डिजीज पोर्टल)

ट्रीटमेंट में आता है लाखों-करोड़ों का खर्चा 

हालांकि, सिक्के का दूसरा पहलू ये भी है कि कई मरीज ऐसे भी हैं जो अभी तक फाइलों और अस्पतालों के चक्कर काट रहे हैं. दिल्ली में एक कंपनी के सुपरवाइजर भरत पिछले 7 साल से अपने बच्चे के इलाज को लेकर परेशान हैं. उनका बेटा न अब खुद बैठ पाता है और न ही समझ पाता है. GNT डिजिटल से बात करते हुए भरत कहते हैं, “मेरा 10 साल का बेटा है, जिसे ट्रीटमेंट की जरूरत है. जब वो 3 साल का था तब उसकी इस बीमारी का पता चला था. मैंने बेटे के लिए दिल्ली के गंगाराम अस्पताल से लेकर एम्स जैसे बड़े अस्पतालों के चक्कर भी काटे, लेकिन अभी भी इलाज को लेकर कोई आशा की किरण नहीं नजर आ रही है. इसके इलाज में कम से कम 40 से 50 लाख तक का खर्चा आएगा.” 

बता दें, रेयर डिजीज के एक मरीज के इलाज में कितना खर्च आएगा ये कई चीजों पर निर्भर करता है. जैसे बच्चे की उम्र क्या है, कौन सी स्टेज है, दवाई की कितनी कीमत होगी, जितना वजन बच्चे का कम होगा दवाई की कीमत उतनी ही ज्यादा होगी. डॉक्टर्स के मुताबिक, 10 से 15 किलो के बच्चे के इलाज में 50 लाख रुपए सालाना हो सकता है. वहीं 25-30 किलो के बच्चे का सालाना खर्च अगर वो ग्रुप 3 की बीमारियों में है तो ये 1.45 करोड़ रुपए तक हो सकता है. इस इलाज में एक कैंसर के मरीज से भी ज्यादा खर्चा होता है. और ये ट्रीटमेंट जिंदगी भर चलता है.

भारत में हैं अभी 450 से ज्यादा मरीज  

सरकारी आंकड़ों की बात करें तो भारत में इस समय रेयर डिजीज के 453 मरीज हैं. ये रोगी जिसमें ज्यादातर बच्चे हैं एक रेयर जेनेटिक कंडीशन से जूझ रहे हैं. इन्हें रेयर डिजीज कहा जाता है. इसमें ग्रुप 3 (ए) रोग- लाइसोसोमल स्टोरेज डिसऑर्डर (एलएसडी) जैसे गौचर रोग, पोम्पे रोग, एमपीएस और फैब्री रोग शामिल हैं. इनमें से 232 मरीज ऐसे हैं जिन्हें तुरंत इलाज की जरूरत है, या इन मरीजों को क्लिनिकल रिपोर्ट्स के मुताबिक और फंड की जरूरत है. ये 232 ग्रुप 3ए के मरीज हैं, जिन्हें जीवन भर के लिए इलाज या ट्रीटमेंट की आवश्यकता होती है. ये वही लोग जिन्हें 50 लाख की सरकारी फंडिंग में कवर मिल सकता है, जिसकी घोषणा इस मंत्रालय ने हाल ही में की है.

भारत सरकार के आंकड़ें (सोर्स: रेयर डिजीज क्राउडफंडिंग पोर्टल)

दरअसल, इन बीमारियों को ऑर्फन डिजीज यानि अनाथ बीमारी कहा जाता है. चूंकि इन बीमारियों के मरीज बहुत कम होते हैं इसलिए फार्मास्युटिकल कंपनियों के पास भी कोई स्थायी ट्रीटमेंट करने के लिए सैम्पल्स नहीं हो पाते हैं. गौचर रोग की ही बात करें तो इसके ट्रीटमेंट के लिए दुनिया में केवल तीन ही कंपनियां एंजाइम-रिप्लेसमेंट थेरेपी बनाती हैं. जिसकी एक डोज की लागत 7 लाख से 10 लाख के बीच होती है, जिसमें मरीज को हर एक या दो महीने में एक डोज लेनी होती है. और इसका ट्रीटमेंट पूरी जिंदगी चलता है. 

2017 से पहले नहीं थी कोई पॉलिसी 

इसे लेकर GNT डिजिटल ने रेयर डिजीज इंडिया फाउंडेशन के डायरेक्टर सौरभ सिंह से भी बात की. सौरभ कहते हैं, “भारत में 2017 से रेयर डिजीज के मरीजों के लिए कोई पॉलिसी नहीं थी. इसका खर्च करोड़ों में होता है, जो किसी आम मरीज के लिए मुमकिन नहीं है. 2017 में रेयर डिजीज को लेकर पॉलिसी आई तो हमारे इन मरीजों को लगा कि हमें इलाज मिल सकेगा, लेकिन कुछ समय बाद इस पॉलिसी को विचाराधीन रख दिया गया. धीरे धीरे इसमें बदलाव किए गए और नए फंड को बढ़ाकर 20 लाख से 50 लाख कर दिया गया. इसके लिए 10 अस्पताल भी पूरी तरह से डेडिकेट किए गए हैं, जिन्हें सेंटर ऑफ एक्सीलेंस कहा जाता है. हालांकि, इसे लेकर सरकार को थोड़ी और जागरूकता फैलाने की जरूरत है. ताकि इन मरीजों का इलाज अच्छे से हो सके और ये अपनी नॉर्मल जिंदगी जी सकें." 

अस्पताल और मरीजों का इलाज

2013 में आया था इस बीमारी को लेकर टर्निंग पॉइंट 

भारत में रेयर डिजीज पॉलिसी के लिए लड़ाई शुरू करने वाले एडवोकेट अशोक अग्रवाल कहते हैं कि किसी के लिए भी जिंदगी भर हर साल 10-10 लाख रुपये खर्च करना मुमकिन नहीं है. जनता के स्वास्थ्य का ध्यान रखना और उन्हें इलाज मुहैय्या करवाना सरकार की जिम्मेदारी भी ही और यही बात देश की सुप्रीम कोर्ट भी कहता ही. इसके बारे में अशोक अग्रवाल कहते हैं, “साल 2013 में सिराजुद्दीन के बेटे मोहम्मद अहमद के केस से भारत में रेयर डिजीज को लेकर एक टर्निंग पॉइंट आया था. जिसमें एम्स ने ट्रीटमेंट के लिए लिखा था कि अहमद के इलाज में हर महीने कम से कम 4 लाख 80 हजार का खर्चा आएगा, जो आजीवन होगा. जब इसके बारे में जब मुझे पता चला तो मैंने इस बारे में आर्मी के रिटायर्ड मेडिकल अफसर से बात की. हालांकि, मैंने उसे आईडिया दिया कि आप दिल्ली सरकार में अप्लाई कर दीजिये. लेकिन 5 लाख का फ्री इलाज होने के बाद फिर से ट्रीटमेंट होना था. अब मेरे सामने ये सवाल था कि इसका कोई परमानेंट इलाज चाहिए. तब मैंने कोर्ट में इस मामले को ले जाने का विचार बनाया. जिसके बाद फरवरी 2014 में ऑर्डर पास हुआ और सरकार को आदेश दिया कि आप इलाज के लिए पैसे दें.”  

बताते चलें कि मोहम्मद अहमद बनाम भारत संघ और अन्य (Mohd Ahmed v. Union of India & Ors) के मामले में, दिल्ली हाईकोर्ट ने माना था कि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के अधिकार में स्वास्थ्य का अधिकार भी शामिल है. इसपर फैसला सुनते हुए कोर्ट ने कहा था कि क्योंकि कोई गरीब है, इसलिए राज्य उसे मरने के लिए नहीं छोड़ सकता है. जिसके बाद कोर्ट ने राज्य सरकार से तुरंत उनके इलाज का आदेश दिया था. सुप्रीम कोर्ट (SC) ने भी यह माना है कि अनुच्छेद 21 के तहत किसी भी नागरिक को जीवन जीने का अधिकार है, और यह सुनिश्चित हो सके इसका दायित्व राज्य पर भी है. 

कहां काम करने की जरूरत है? 

इसको लेकर RDIF के डायरेक्टर सौरभ सिंह कहते हैं, “छोटे लेवल पर या जिलों में डॉक्टरों में ऐसी बीमारियों को लेकर काफी कम समझ है. उन्होंने केवल किताबों में पढ़ा है उन्होंने असल में मरीज को देख नहीं है. इसलिए लोगों के साथ जरूरी है कि मेडिकल फील्ड में भी समझ बढ़ाई जाए. सरकार ने जो ये पोर्टल बनाया है इसे ज्यादा से ज्यादा एडवर्टाइज करने की जरूरत है.क्योंकि अगर लोगों को पता ही नहीं होगा तो वो मदद के लिए हाथ भी नहीं बढ़ाएंगे. बाहर के देशों में रिसर्च अच्छी है, प्राइवेट कंपनियां भी क्लीनिकल ट्रायल्स करती हैं कोई इंश्योरेंस पॉलिसी ऐसी हैं जिसमें रेयर डिजीज को कवर किया जाता है. भारत में भी ऐसा कुछ होना चाहिए. 

(फोटो सोर्स: रेयर डिजीज पोर्टल)

इसको लेकर आखिर में अशोक अग्रवाल कहते हैं कि सरकार को इसके लिए ठोस कदम उठाने चाहिए. नागरिकों का ख्याल रखना सरकार जिम्मेदारी है. देश में राइट टू पब्लिक हेल्थ यानि सार्वजनिक स्वास्थ्य का अधिकार लाना चाहिए. लेकिन सरकार को ही इसके लिए कदम उठाना होगा. इसे लेकर जो 10 अस्पताल हैं वो काफी एक्टिव हैं लेकिन अभी और काम करने की जरूरत है. और तुरंत काम करने की जरूरत है. लेकिन ये अच्छी बात है कि इसपर बात हो रही है. जो लोग जहां काम कर सकते हैं वो सब कर रहे हैं. ये एक पॉजिटिव साइन है हालांकि ये बहुत लंबी लड़ाई है जिससे हमें लड़ना है.

बता दें भारत सरकार ने रेयर डिजीज के लिए जो नेशनल क्राउडफंडिंग पोर्टल बनाया है उस पोर्टल पर पैसे इकट्ठे किए जाते हैं और वो फंड मरीजों के इलाज में जाता है. हालांकि, अभी तक इस पोर्टल पर केवल 2 लाख 22 हजार रुपये का ही डोनेशन आया है. बीमारी की गंभीरता को देखते हुए लोकसभा और राज्यसभा के प्रमुख सांसदों ने केंद्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्री डॉ. मनसुख मंडाविया और स्वास्थ्य सचिव राजेश भूषण से तत्काल हस्तक्षेप की मांग भी की थी. 

 

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