Savitribai Jyotirao Phule Birth Anniversary: पति के साथ लड़ी समाज सुधार की लड़ाई, भारत की पहली महिला शिक्षक थीं सावित्रिबाई

सावित्रीबाई फुले का जन्म महाराष्ट्र के सतारा जिले के एक छोटे से गांव में हुआ था. इनको सजाज सेविका कवयित्री दार्शनिक आदि के रूप में पहचाना जाता है. देशभर में हर साल 3 जनवरी को सावित्रीबाई फुले जयंती के तौर पर मनाया जाता है.

Savitribai Phule
gnttv.com
  • नई दिल्ली,
  • 03 जनवरी 2024,
  • अपडेटेड 1:33 PM IST

हर साल 3 जनवरी को भारत एक विशेष दिन के तौर पर सावित्रीबाई फुले जयंती मनाता है. दरअसल इस दिन उनका कोई जन्मदिन नहीं होता है बल्कि यह उस उल्लेखनीय महिला को याद करने और सम्मान करने का दिन है जिन्होंने लड़कियों की शिक्षा के लिए लड़ाई लड़ी और भारत में क्रांति की अलख जगाई.

साल 1831 में जन्मी सावित्रीबाई को खुद स्कूल जाने का मौका नहीं दिया गया. यह वह समय था जब लड़कियों को सीखने की अनुमति नहीं थी. खासकर सावित्रीबाई जैसी निचली जाति की लड़कियों को. लेकिन उन्होंने एक ऐसी दुनिया का सपना देखा जहां हर लड़की, चाहे वे कोई भी हों, पढ़ सकें, लिख सकें और अपने दम पर खड़ी हो सकें. सावित्रीबाई फुले ने महिलाओं के लिए लम्बी लड़ाई लड़ी. महिलाओं की स्थिति में सुधार के लिए उनका बहुत बड़ा योगदान है.

पहली महिला शिक्षक
सावित्रीबाई फुले ने 19वीं सदी में प्रचलित पारंपरिक लैंगिक भूमिकाओं को उस समय चुनौती दी जिस दौरान ब्रिटिशर्स ने भारत पर कब्ज़ा कर लिया था. यह एक ऐसा समय था जब महिलाओं के मुद्दों पर शायद ही कभी ध्यान दिया जाता था. उन्होंने उस समय अपने पति ज्योतिराव फुले के साथ मिलकर 1848 में पुणे में महिलाओं के लिए भारत का पहला स्कूल स्थापित किया. सावित्रीबाई भारत की पहली महिला शिक्षिका थीं. इसके बाद उन्होंने 17 और स्कूल स्थापित किए. आज उनकी जयंती के मौके पर जानेंगे उनसे जुड़ी कुछ खास बातें.

जब सावित्रीबाई महज 9 साल की थीं तब उनका विवाह 13 साल के ज्योतिराव फुले से कर दिया गया था. शादी के समय वो अनपढ़ थीं. पढ़ाई में उनकी लगन को देखते हुए पति ज्योतिराव फुले प्रभावित हुए और उन्होंने सावित्रीबाई को आगे पढ़ाना का मन बना लिया. ज्योतिराव फुले शादी के समय खुद कक्षा तीन के छात्र थे. उन्होंने पति के साथ मिलकर 1848 में पुणे में लड़कियों का स्कूल खोला. इसे देश में लड़कियों का पहला स्कूल माना जाता है.

स्वतंत्रता से पहले भारत में महिलाओं के साथ काफी भेदभाव होता था. दलितों की स्थिति समाज में वैसे ही अच्छी नहीं थी और अगर कोई महिला दलित होती थी तो यह भेदभाव और भी बड़ा होता था. जब सावित्री बाई स्कूल जाती थीं, तो लोग उन्हें पत्थर मारते थे. लेकिन उन्होंने कभी हिम्मत नहीं हारी और हमेशा संघर्ष किया. उन्होंने समाजिक  कुरीतियों के खिलाफ जमकर आवाज उठाई.

जातिगत भेदभाव के खिलाफ लड़ाई - उन्होंने अपने पति ज्योतिराव फुले के साथ मिलकर समाज में प्रचलित जाति-आधारित भेदभाव के खिलाफ सक्रिय रूप से काम किया. उन्होंने दमनकारी जाति व्यवस्था को चुनौती देने के लिए एक सामाजिक सुधार संगठन, सत्यशोधक समाज की स्थापना की.

विधवाओं के लिए आश्रम- सावित्रीबाई फुले विधवाओं के अधिकारों की मुखर समर्थक थीं. उन्होंने उन प्रचलित रीति-रिवाजों के खिलाफ अभियान चलाया जो विधवाओं को अभाव का जीवन जीने के लिए मजबूर करते थे और विधवाओं के पुनर्विवाह के अधिकार के लिए अभियान चलाया.

समाज सुधारक - सावित्रीबाई और ज्योतिराव फुले ने अपना जीवन सामाजिक सुधार के लिए समर्पित किया. उन्होंने छुआछूत के खिलाफ लड़ाई लड़ी और शिक्षा और जागरूकता के माध्यम से निचली जातियों के उत्थान की दिशा में काम किया.

साहित्यिक योगदान - एक सामाजिक कार्यकर्ता होने के अलावा सावित्रीबाई फुले एक कवित्री और लेखिका भी थीं. उन्होंने भाषा और जातिगत भेदभाव के मुद्दे पर प्रकाश डालने वाली लैटिन कविताएं लिखीं जिन्होंने मराठी साहित्य में महत्वपूर्ण योगदान दिया.

पुणे में प्लेग फैला तो सावित्रीबाई फुले मरीजों की सेवा में जुट गईं. इसी दौरान उन्हें खुद भी प्लेग हो गया. साल 1897 में उनकी मृत्यु हो गई. सावित्रीबाई के पति ज्योतिराव का निधन उनसे पहले 1890 में हो गया था. पति के निधन के बाद सावित्रीबाई फूले ने ही उनका दाह संस्कार किया था.

 

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