कलत्ता हाईकोर्ट ने एक बड़े फैसले में कहा कि महिला का बांझपन तलाक का आधार नहीं हो सकता है. बांझपन से मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य समस्याओं से जूझ रही पत्नी को छोड़ना मानसिक क्रूरता है. कोर्ट ने कहा कि आईपीसी की धारा 498ए की परिभाषा के तहत पत्नी से आपसी सहमति से तलाक मांगना मानसिक क्रूरता के बराबर है, जबकि वह बांझपन के कारण पीड़ा में है. जस्टिस शम्पा दत्त ने कहा कि बांझपन का कारण तलाक का आधार नहीं है माता-पिता बनने के कई विकल्प हैं. एक जीवनसाथी को इन परिस्थितियों में समझना होगा, क्योंकि एक साथी ही दूसरे साथी की मानसिक, शारीरिक और भावनात्मक शक्ति को वापस पाने में मदद कर सकता है.
साल 2017 के मामले में फैसला-
कलकत्ता हाईकोर्ट ने साल 2017 के एक दंपत्ति के तलाक मामले में फैसला सुनाया है. दरअसल एक शख्स ने अपनी पत्नी से तलाक का मुकदमा दायर किया था. शख्स ने तलाक के लिए जो कारण बताया था, वो ये था कि उसकी पत्नी अब मां नहीं बन सकती. इस मामले के एक महीने बाद पत्नी ने पति के खिलाफ आपराधिक आरोप दायर किए. 6 दिसंबर 2017 को बेलियाघाटा पुलिस ने पति के खिलाफ आपराधिक विश्वासघात, शारीरिक और मानसिक क्रूरता और स्वेच्छा से चोट पहुंचाने के लिए आईपीसी की धाराओं का मामला दर्ज किया था. इस मामले में कोर्ट ने फैसला सुनाते हुए कहा कि बांझपन तलाक का आधार नहीं हो सकता है. इसके लिए पत्नी को छोड़ना मानसिक क्रूरता है.
पत्नी का इलाज चल रहा था-
इस जोड़े की शादी 9 साल पहले हुई थी. पत्नी स्कूल टीचर थी. पीड़ित महिला समय से पहले रजोनिवृत्ति के कारण मानसिक स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं से जूझ रही थी. पत्नी का इलाज बेंगलुरु के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरोसाइंसेस में इलाज चल रहा था. अदालत ने इस बात पर विचार किया कि पत्नी को प्राथमिक बांझपन की जानकारी होना बड़ा झटका था और आघात के कारण 2 सालों में उसका करीब 30 किलोग्राम वजन कम हो गया था.
ऐसी स्थिति में कोर्ट ने पति के आचरण को मानसिक क्रूरता के बराबर माना और कहा कि इस मामले में याचिकाकर्ता के लिए इस तरह की दर्दनाक स्थिति में विपरीत पक्ष को आपसी सहमति से तलाक के लिए कहना बेहद असंवेदनशील था, जो मानसिक क्रूरता के बराबर है, जिसने उसके जीवन और स्वास्थ्य को प्रभावित किया.
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