अयोध्या में राम जन्मभूमि के स्वामित्व और मंदिर के निर्माण का संघर्ष पांच सदी पुराना है. जिसपर आखिरकार विराम लग गया है और अब अयोध्या में राम मंदिर में रामलला की प्राण प्रतिष्ठा की जा चुकी है. बात अगर राम मंदिर के आधुनिक संघर्ष की करें जो 1949 में शुरू हुआ और साल 2019 में जिसका हल सामने आया, तो इसमें दो सिविल अफसरों की अहम भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है.
ब्रिटिश काल के ICS अधिकारी केके नायर और प्रधानमंत्री के पूर्व प्रमुख सचिव नृपेंद्र मिश्रा, दोनों ही ऐसे सिविल अफसर हैं जिन्होंने अलग-अलग मोर्चों पर भूमिका निभाई. एक के फैसले ने इतिहास को बदला तो दूसरे को आधुनिक राम मंदिर के आर्किटेक्ट के रूप में जाना जाएगा.
नायर ने बदली इतिहास की राह
जब 1949 में बाबरी मस्जिद के अंदर मूर्तियां रखी गई थीं तब कडांगलाथिल करुणाकरण नायर या केके नायर, फैजाबाद के जिला कलेक्टर थे. अयोध्या नगरी फैजाबाद जिले का हिस्सा थी. उस समय तत्कालीन प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू का आदेश था कि मस्जिद से मूर्तिया हटा दी जाएं लेकिन नायर ने कार्रवाई करने से इनकार कर दिया और इससे राम जन्मभूमि पर हिंदुओं और मुसलमानों ने मुकदमा शुरू किया.
बताया जा रहा है कि राम मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा समारोह के निमंत्रण कार्ड के साथ आने वाली पुस्तिका में राम जन्मभूमि आंदोलन में विभिन्न तरीकों से योगदान देने वाले लोगों में से नायर का प्रोफ़ाइल भी शामिल है. केरल के अलेप्पी में जन्मे नायर ने यहां के सनातन धर्म विद्याशाला से पढ़ाई की. इसके बाद वह लंदन के यूनिवर्सिटी कॉलेज से पढ़े और फिर भारतीय सिविल सेवा में शामिल हो गए.
आपको बता दें कि 22-23 दिसंबर, 1949 की रात को, राम लला की एक मूर्ति "रहस्यमय तरीके से" बाबरी मस्जिद के अंदर प्रकट हुई. जिसके बाद अलग-अलग घटनाएं घटीं और इन घटनाओं ने भारतीय राजनीति की दिशा बदल दी. मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, गजट और FIR सहित फैजाबाद के सरकारी रिकॉर्ड में यह दर्ज है कि सिटी मजिस्ट्रेट गुरु दत्त सिंह, केके नायर और अयोध्या मंदिर के पुजारी अभिराम दास ने 22 दिसंबर, 1949 को राम मूर्ति की स्थापना की देखरेख की थी.
वहीं, बाबरी मस्जिद के बाहर खड़े एक मुस्लिम गार्ड, अब्दुल बरकत ने उस दिन पुलिस को बताया कि उसने "दिव्य प्रकाश की एक चमक और 4-5 साल के एक बहुत ही सुंदर, देवतुल्य बच्चे की आकृति" देखी थी. मूर्ति के बाबरी मस्जिद में स्थापित होने के बाद तत्कालीन पीएम नेहरू ने यूपी के तत्कालीन मुख्यमंत्री गोविंद वल्लभ पंत को लिखा कि वह "अयोध्या के घटनाक्रम से परेशान हैं." और मूर्तियों को हटाने के लिए कहा.
लोगों के बीच मशहूर हो गए नायर
सांप्रदायिक दंगे भड़कने की आशंका के बीच, नायर ने मूर्ति हटाने के किसी भी कदम का विरोध किया और चेतावनी दी कि इसका परिणाम गंभीर हो सकता है. बाद में नायर को कर्तव्य में लापरवाही बरतने के आरोप में पद से हटा दिया गया. 16 दिसंबर, 1949 को यूपी के तत्कालीन गृह सचिव गोविंद नारायण को लिखे एक पत्र में, नायर ने कहा कि "उस स्थान (विवादित स्थल) पर एक भव्य मंदिर का निर्माण विक्रमादित्य ने किया था, जिसे 16 वीं शताब्दी में बाबर ने ध्वस्त कर दिया था और मस्जिद का निर्माण कराया जिसे बाबरी के नाम से जाना जाता था."
नायर ने जानमाल के नुकसान की आशंका के चलते मूर्तियां हटाने के राज्य सरकार के निर्देश का विरोध किया था. नायर ने यह कहते हुए मूर्ति हटाने से इनकार कर दिया कि "अगर सरकार अभी भी इस बात पर अड़ी है कि इन तथ्यों के बावजूद मूर्ति हटाई जानी चाहिए, तो मैं मेरी जगह किसी अन्य अधिकारी को नियुक्त करने का अनुरोध करूंगा." 27 दिसंबर 1949 को मुख्य सचिव को लिखे एक पत्र में, नायर ने कहा कि उन्हें कोई भी हिंदू नहीं मिलेगा जो मूर्तियों को हटाने का काम करेगा. इसके बाद से ही राम जन्मभूमि मुकदमा शुरू हुआ.
नेहरू का आदेश न मानने के कारण, नायर अयोध्या क्षेत्र में एक तरह के स्थानीय नायक बन गए थे. उन्होंने अपनी सर्विस पूरी होने से पहले सेवानिवृत्ति ले ली. इसके बाद वह और उनकी पत्नी जनसंघ में शामिल हो गए. यह वही पार्टी थी जिससे भाजपा का उदय हुआ. बाद में, वह और उनकी पत्नी दोनों उत्तर प्रदेश के बहराईच और कैसरगंज से सांसद चुने गए था. साल 1949 में नायर के एक फैसले के कारण इतिहास का रूख बदल गया.
राम मंदिर के आर्किटेक्ट
साल 1949 में शुरू हुई कहानी को आखिरकार 2020 में एक दूसरे सेवानिवृत्त IAS अधिकारी ने नया मोड़ दिया. हालांकि, मंदिर आंदोलन में नृपेंद्र मिश्रा की भूमिका की तुलना नायर के काम से नहीं की जा सकती है. क्योंकि नायर ने इतिहास की दिशा बदल दी थी. लेकिन राम मंदिर निर्माण समिति के अध्यक्ष के रूप में मंदिर निर्माण के प्रभारी व्यक्ति के रूप में मिश्रा की भूमिका प्रतीकात्मक है.
उत्तर प्रदेश कैडर के 1967 बैच के सेवानिवृत्त IAS अधिकारी, मिश्रा एक समय भारत के सबसे शक्तिशाली ब्यूरोक्रेट थे. वह एनडीए सरकार के पहले कार्यकाल के दौरान प्रधान मंत्री के प्रधान सचिव थे. मिश्रा को राम मंदिर निर्माण के लिए समिति का अध्यक्ष नामित किया गया था. मिश्रा को मंदिर निर्माण समिति की कमान सौंपने का निर्णय राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट की पहली बैठक में लिया गया था. वहीं, मंदिर आंदोलन के एक प्रमुख व्यक्ति महंत नृत्य गोपाल दास और वीएचपी पदाधिकारी चंपत राय को क्रमशः ट्रस्ट का अध्यक्ष और महासचिव नियुक्त किया गया.
सरकार ने 5 फरवरी, 2020 को संसद में 15 सदस्यीय ट्रस्ट के गठन की घोषणा की थी. श्री राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट में सात सदस्य, पांच नामित सदस्य और तीन ट्रस्टी हैं. ट्रस्ट का गठन नवंबर 2019 में अयोध्या विवाद पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुपालन में किया गया था और यह निर्माण समिति के काम की देखरेख करता है.
1000 सालों तक रहने वाला मंदिर
पीएम नरेंद्र मोदी के करीबी अधिकारी और राम मंदिर निर्माण समिति के अध्यक्ष नृपेंद्र मिश्रा प्रतिष्ठा समारोह के भी प्रमुख वास्तुकार हैं. राम मंदिर के अलावा, इस 78 वर्षीय अधिकारी ने दिल्ली में प्रधानमंत्री संग्रहालय के निर्माण का भी नेतृत्व किया, जो मोदी सरकार की एक प्रमुख परियोजना है. पूर्व IAS अधिकारी मिश्रा ने 2014 से 2019 तक मोदी के प्रधान सचिव के रूप में कार्य किया था. राम मंदिर के लिए उन्हें सिर्फ एक लाइन का विवरण मिला थी - एक ऐसा मंदिर बनाएं जो कम से कम 1,000 वर्षों तक चलेगा.
समिति में मिश्रा की नियुक्ति को पीएमओ की ओर से एक स्पष्ट संदेश के रूप में देखा गया था कि वह केंद्र, राज्य सरकार और पैनल के अन्य सदस्यों के बीच सेतु बनेंगे, जिनमें से कई मंदिर निर्माण आंदोलन का हिस्सा थे, ताकि बातचीत को आगे बढ़ाया जा सके. मिश्रा ने यूपी के दो मुख्यमंत्रियों - कल्याण सिंह और मुलायम सिंह यादव - के प्रधान सचिव के रूप में भी काम किया था. इसलिए उनका राजनीतिक अनुभव भी अच्छा था.
IAS बनने से पहले मिश्रा इलाहाबाद विश्वविद्यालय में लेक्चरर बनना चाहते थे. फिर उनके शिक्षक ने उन्हें सिविल सेवा परीक्षा देने की सलाह दी. मिश्रा ने सलाह को गंभीरता से लिया और 1967 में आईएएस बन गए. उन्होंने केंद्र और राज्यों में सरकारी विभागों और मंत्रालयों में कार्य किया. सिविल सेवा में अपने उत्कृष्ट करियर के लिए वह पद्म भूषण और जापान के प्रतिष्ठित ऑर्डर ऑफ द राइजिंग सन, गोल्ड और सिल्वर स्टार हासिल कर चुके हैं.
महत्वपूर्ण बात यह है कि मुलायम सिंह यादव (जब मुलायम मुख्यमंत्री थे) के प्रमुख सचिव के रूप में, मिश्रा ने 1990 में विवादित अयोध्या स्थल पर कार सेवकों को रोकने के लिए सख्त कार्यवाई करने का विरोध किया था. राम मंदिर जैसी परियोजना के लिए निश्चित रूप से विशाल शासन अनुभव वाले व्यक्ति की जरूरत थी और मिश्रा इस भूमिका में फिट बैठते थे.