पाकिस्तान के खिलाफ हुए हर युद्ध में भारत के वीर सपूतों ने अपनी वीरता और अद्मय साहस का परिचय दिया है. पाक को हर बार उसकी औकात दिखाई है. हम आज एक ऐसे ही भारत माता के वीर सपूत की कहानी बताने जा रहे हैं, जिन्होंने 1971 के युद्ध में पाकिस्तान के अजेय टैंक को ध्वस्त कर दिया था. जी हां, हम बात अरुण खेत्रपाल की कर रहे हैं.
अरुण खेत्रपाल के दादा से लेकर पिता तक रह चुके हैं सेना में
अरुण खेत्रपाल का जन्म 14 अक्टूबर 1950 को पुणे में हुआ था. उनका पूरा खानदान सेना में रह चुका है. शहीद अरुण के दादा विश्व युद्ध में ब्रिटिश आर्मी की तरफ से लड़ चुके हैं, वहीं उनके पिता मदन लाल खेत्रपाल सेना में ब्रिगेडियर रहे हैं. सिर्फ 17 साल की उम्र में अरुण खेत्रपाल का एनडीए (नेशनल डिफेंस एकेडमी) में चयन हो गया और तीन साल की ट्रेनिंग के बाद उनकी पहली ज्वॉइनिंग 13 जून 1971 को 17-पूना हॉर्स में हुई थी.
अरुण के साहसिक प्रदर्शन का किया है जिक्र
अरुण खेत्रपाल के ज्वॉइनिंग के 6 महीने के अंदर ही पाकिस्तान के साथ युद्ध शुरू हो गया और उन्हें इसमें हिस्सा लेने का मौका मिला. पाकिस्तान के साथ-साथ लड़ते-लड़ते ही वे शहीद हो गए और उस वक्त उनकी उम्र महज 21 साल थी. शहीद होने के बाद उन्हें मरणोपरांत सबसे बड़े सैन्य सम्मान 'परमवीर चक्र' से सम्मानित किया गया.
खेत्रपाल की वीरता के किस्से सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान में भी सुनाए जाते हैं. इसका सबूत है पाकिस्तान की आधिकारिक रक्षा वेबसाइट, जहां पूर्व ब्रिगेडियर ने अरुण क्षेत्रपाल की वीरता को सलाम करते हुए एक ब्लॉग लिखा है. इसमें जंग के दौरान अरुण की ओर से किए गए साहसिक प्रदर्शन का जिक्र किया गया है.
पाकिस्तान ने रची थी साजिश
बांग्लादेशन लिब्रेशन वॉर में भारतीय सेना की मौजूदगी ने पाकिस्तान सेना की मुसीबतें बढ़ा दी थी. पाकिस्तान किसी भी कीमत पर पूर्वी क्षेत्र से भारतीय सेना के दबाव को खत्म करना चाहता था. इन्हीं मंसूबों के तहत पाकिस्तान ने दो नई साजिशें रचीं. पहली साजिश राजस्थान के लोंगेवाला पोस्ट से भारत पर हमला कर जैसलमेर में कब्जा की थी. वहीं, दूसरी साजिश सियालकोट बेस की मदद से शकरगढ़ के रास्ते पंजाब के पठानकोट पर कब्जा करना था.
बैटल ऑफ बसंतर
पाकिस्तान पठानकोट पर कब्जा कर जम्मू और कश्मीर से शेष भारत का संपर्क काटना चाहता था. पाकिस्तान अपने दूसरे मंसूबे पर काम करता, इससे पहले भारतीय सेना ने शकरगढ़ इलाके में हमला कर उसे अपने कब्जे में लिया. पाकिस्तान के शकरगढ़ इलाके में हुई टैंक से टैंक के बीच इस भीषण लड़ाई को बैटल ऑफ बसंतर के नाम से जाना गया.
अरुण ने बसंतर में संभाला था मोर्चा
4-16 दिसंबर 1971 के बीच जंग में भारत और पाकिस्तान दोनों मुल्कों के कई जवान वीरगति को प्राप्त हुए थे. इस लड़ाई में अरुण ने बसंतर में मोर्चा संभाला था. पठानकोट पर कब्जा करने के मंसूबे के साथ पाकिस्तान ने तीन इंफेंट्री डिवीजन, एक आर्मर्ड डिवीजन और एक आर्मर्ड ब्रिगेड शकरगढ़ इलाके में बसंतर नदी के किनारे तैनात कर रखी थी. इधर, पाकिस्तान के मंसूबों पर पानी फेरने के लिए भारतीय सेना की 3 इंफेंट्री डिवीजन और 2 आर्मर्ड ब्रिगेड बसंतर नदी के इस पार पहुंच चुकी थीं.
दुश्मन ने बसंतर नदी के किनारे को लैंड माइन लगा दिए थे
भारतीय सेना और उसके टैंकों को रोकने के लिए दुश्मन ने बसंतर नदी के किनारे को लैंड माइन से पाट दिया था. इधर, 47 इंफैंट्री बटालियन और 17 पूना हार्स ने 15 दिसंबर की रात्रि नौ बजे बसंतर नदी पर पुल बनाने का काम पूरा कर लिया. पुल बनते ही भारतीय सेना की इंजीनियरिंग विंग ने माइन फील्ड को साफ करना शुरू कर दिया. इसी दौरान गुप्त सूचना मिली पाक सेना अपने टैंक ब्रिगेड के साथ उनकी तरफ बढ़ रहा है.
युद्ध शुरू होते ही दुश्मन के 7 टैंक को खाक में मिला दिया
इसके बाद तुरंत कैप्टन वी.मल्होत्रा, लेफ्टिनेंट अहलावत और सेंकेड लेफ्टिनेंट अरुण खेत्रपाल अपने टैंक के साथ दुश्मन की तरफ बढ़ गए. कुछ ही समय में, दुश्मन के 10 टैंक से मोर्चा लेने के लिए भारतीय सेना के तीन टैंक उनके सामने थे. युद्ध के आगाज के साथ कैप्टन मल्होत्रा, लेफ्टिनेंट अहलावत और सेकेंड लेफ्टिनेंट अरुण खेत्रपाल की तिकड़ी ने दुश्मन के सात टैंक को खाक में मिला दिया.
जब जिम्मेदारी अकेले अरुण खेत्रपाल पर आ गई
दुश्मन सेना के तीन टैंक अभी भी जंग के मैदान में आग बरसा रहे थे. कैप्टन मल्होत्रा का टैंक दुश्मन के टैंक से निकले गोले की चपेट में आ चुका था और लेफ्टिनेंट अहलावत का टैंक में तकनीकी खराबी आ गई थी. दुश्मन तीन टैंकों को अंजाम तक पहुंचाने की जिम्मेदारी अकेले अरुण खेत्रपाल पर आ गई थी. दुश्मन के तीन टैंक को अरुण हर हाल में निशाना बनाना चाहते थे. उन्होंने जल्द ही पाक के दो टैंक को ध्वस्त कर दिया.
टैंक पर आ गिरा था गोला
अब पाकिस्तान सेना का एक टैंक बचा था. अरुण दुश्मन के इस टैंक की तरफ रुख करते, इससे पहले दुश्मन सेना के टैंक से निकला एक गोला उनके टैंक पर आ गिरा. अरुण के टैंक से आग की लपटें उठने लगी. इस स्थिति को देखकर उनके यूनिट कमांडर ने टैंक छोड़कर वापस आने के लिए कहा. लेकिन अरुण ने यह आदेश मानने से इंकार कर दिया.
सर, मैं अपने टैंक को लावारिस नहीं छोड़ सकता
रेडियो पर अरुण के आखिरी शब्द थे. सर, मेरी गन अभी फायर कर रही है. जब तक ये काम करती रहेगी, मैं फायर करता रहूंगा. मैं अपने टैंक को लावारिस नहीं छोड़ सकता हूं. अब तक, दुश्मन सेना का तीसरा टैंक सेकेंड लेफ्टिनेंट अरुण खेत्रपाल से महज 100 मीटर की दूरी पर पहुंच चुका था. बिना समय गंवाए उन्होंने दुश्मन के टैंक पर निशाना साधना शुरू कर दिया. तभी अरुण खेत्रपाल की मशीन गन से निकली एक गोली ने दुश्मन सेना के विशालकाय टैंक को ध्वस्त कर दिया.
हालांकि अपने टैंक में लगी आग में घिरकर अरुण शहीद हो गए. उनका शव और उनका टैंक फमगुस्ता पाक ने कब्जे में ले लिया था, जिसे भारतीय फौज को लौटा दिया गया. उनका अंतिम संस्कार सांबा जिले में हुए और अस्थियां परिवार को भेजी गईं, जिन्हें उनके निधन के बारे में काफी बाद में पता चला था.