Sholay में गब्बर को फांसी हुई होगी या उम्र-कैद? फिल्मों के जरिए कानून सिखा रहे मध्य प्रदेश के जज, शोले फिल्म से पूछ डाले कानूनी सवाल!

इस बात में कोई दोराय नहीं कि शोले भारत की सबसे सफल और सबसे लोकप्रिय फिल्मों में से एक है. यही वजह है कि फिल्म करोड़ों लोगों के दिल पर छाप छोड़ गई है. इसी बात का फायदा उठाते हुए मध्य प्रदेश के एक जज ने इस फिल्म के जरिए कानून की पाठशाला लेने का फैसला किया.

यह वर्कशॉप मध्य प्रदेश की ग्वालियर बेंच के ऑडिटोरियम में हुई. (Screengrab: Sholay)
gnttv.com
  • नई दिल्ली,
  • 09 सितंबर 2024,
  • अपडेटेड 2:34 PM IST

रामगढ़ को डाकू गब्बर सिंह के आतंक से बचाने के लिए पूर्व पुलिस इंस्पेक्टर ठाकुर बलदेव सिंह जेल से रिहा हुए दो कैदियों जय और वीरू को चुनते हैं. गब्बर को पकड़ने के लिए सरकार ने 50,000 रुपए के इनाम की घोषणा की होती है, लेकिन ठाकुर जय-वीरू को 20,000 रुपए अपनी तरफ से भी ऑफर करते हैं. फिर वीरू-बसंती के प्यार और बुझते हुए लालटेन के साथ जय की तकरार के बाद आखिरकार गब्बर गिरफ्तार हो जाता है.

साल 1975 में आई रमेश सिप्पी की फिल्म 'शोले' अपने ज़माने में सुपरहिट रही और आज भी कई लोगों के दिलों पर राज करती है. लेकिन मध्य प्रदेश हाई कोर्ट के न्यायाधीश जस्टिस पाठक ने न सिर्फ यह फिल्म देखकर इसका आनंद लिया, बल्कि इसके जरिए वकीलों को कानून भी सिखा डाला. 

जस्टिस पाठक की 'शोले' क्लास
दैनिक भास्कर अखबार की एक रिपोर्ट बताती है कि मध्य प्रदेश हाई कोर्ट की ग्वालियर बेंच में जारी वर्कशॉप में प्रशासनिक न्यायमूर्ति जस्टिस आनंद पाठक ने फिल्म के जरिए वकीलों से कानून पर चर्चा करने का यह तरीका आज़माया है. वर्कशॉप के दौरान ग्वालियर बेंच के ऑडिटोरियम में उच्च न्यायालयों और जिला अदालतों के जज, ट्रेनी आईपीएस, पुलिस अफसर और वकीलों की मौजूदगी में शोले फिल्म का 12 मिनट का सीन दिखाया गया.

इस सीन में इंस्पेक्टर बलदेव सिंह जय और वीरू को गिरफ्तार कर ट्रेन में जेल ले जा रहे हैं कि तभी कुछ डाकू उन पर हमला कर देते हैं. जय-वीरू डाकुओं से लड़ने में इंस्पेक्टर सिंह की मदद करने का फैसला करते हैं. ट्रेन लूटने आए गब्बर के डाकुओं से मुठभेड़ के बाद जय-वीरू और इंस्पेक्टर जीत भी गए. 

जस्टिस पाठक ने पूछे यह सवाल
सीन खत्म होने के बाद जस्टिस पाठक ने ऑडिटोरियम में मौजूद लोगों पर कानूनी दांव-पेच से जुड़े कुछ सवाल दागे. भास्कर की रिपोर्ट के अनुसार, जस्टिस पाठक ने पूछा:
1. डाकुओं के हमले के बाद ट्रेन करीब 25 किलोमीटर चली. इस हिसाब से कौनसे थाने में एफआईआर होगी और कौनसी धाराएं लगेंगी? 
2. आरोपियों पर मुकदमा डकैती का चलना चाहिए या हमले का? 
3. जब डकैतों ने हमला चलती ट्रेन पर किया तो जांच पुलिस करेगी या आरपीएफ? 
4. एक सवाल यह भी उठा कि ठाकुर आरोपियों को मालगाड़ी से क्यों ले जा रहे थे. क्या यह कानून की नजर से सही था? 
5. जस्टिस पाठक ने यह भी पूछा कि जब गब्बर, सांभा और कालिया हमले में नहीं दिखे तो उन्हें घटना में आरोपी कैसे बनाया जा सकता है?

जाहिर है, ऑडिटोरियम में बैठे लोगों को भी भारतीय कानून में दक्षता हासिल थी. एक वकील ने कहा कि डाकुओं को धारा 27 के मेमो के आधार पर आरोपी बनाया जा सकता है. इस तरह कई वकीलों ने अपनी बात रखी. 

पुलिस को भी दी नसीहत 
जस्टिस पाठक ने वकीलों से सवाल-जवाब करने के अलावा पुलिस को भी जरूरी नसीहत की. उन्होंने कहा कि इस तरह फिल्म का सीन दिखाना 'दृश्यम' विधि का पहला चरण है. पुलिस जब तक किसी घटना की ठीक तरह कल्पना नहीं करेंगे तो न ही एफआईआर ठीक लिख पाएंगे और न ही सही कार्यवाही कर पाएंगे. 

अगर ट्रेन पर हमला हुआ है तो पुलिस को मौका-ए-वारदात से वे बंदूकें लेनी होंगी जिनसे हमला हुआ. गोलियों के खाली खोके लेने होंगे और मरे हुए डाकुओं की बंदूकें भी बरामद करनी होंगी ताकि यह साबित किया जा सके कि हमला इन्हीं बंदूकों से हुआ है. इस तरह जस्टिस पाठक ने एक फिल्म के जरिए कानून के कई पहलुओं को छू लिया. अब इस वर्कशॉप में हिस्सा लेने वाले वकील और पुलिसकर्मी जब भी शोले देखेंगे, ये बातें उनके दिमाग में जरूर ताजा हो जाएंगी! 

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