30 जनवरी 1948 को महात्मा गांधी की हत्या भारतीय इतिहास की सबसे दुखद और महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक है. लेकिन इस मर्डर केस की न्यायिक प्रक्रिया भी काफी अलग थी. अब गांधी मर्डर केस जजमेंट की 211 पन्नों की फाइल दिल्ली हाई कोर्ट ने अपने वेब पोर्टल ई-म्यूजियम पर अपलोड की है. इसी पूरी जजमेंट फाइल को GNT टीम ने पढ़ा और कई अनछुए पहलुओं को देखा और समझा. यह मुकदमा भारत के इतिहास में किसी दूसरे से बिल्कुल अलग था, इसमें अलग से कोर्ट, सबूतों का इकट्ठा करना, विचार-विमर्श जैसे पहलू शामिल थे. गांधी मर्डर केस सीरीज के इस चौथे भाग में हम इस पर चर्चा करेंगे कि कैसे इस केस का ज्यूडिशियल प्रोसेस दूसरों मुकदमों से एकदम अलग था.
गांधी हत्या के मुकदमे की सबसे बड़ी विशेषताओं में से एक स्पेशल कोर्ट का बनना था. सामान्य आपराधिक मामलों के अलग, जो नॉर्मल कोर्ट सेटिंग्स में निपटाए जाते हैं, इस मुकदमे का संचालन बॉम्बे पब्लिक सिक्योरिटी मेजर्स एक्ट, 1947 के तहत किया गया, जिसे दिल्ली तक बढ़ाया गया था. भारत सरकार के गृह मंत्रालय द्वारा 4 मई 1948 को एक नोटिफिकेशन के माध्यम से इस कोर्ट का गठन किया गया और कुछ दिनों बाद, 13 मई 1948 को इस स्पेशल कोर्ट को यह मामला सौंपा गया.
मुकदमे की सुनवाई लाल किले में हुई थी. ये ऐतिहासिक रूप से एक महत्वपूर्ण जगह थी, क्योंकि एक समय में यह मुगल साम्राज्य की सीट रहा करती थी. इस तरह से अलग से कोर्ट का बनना दिखाता है कि ये कोई सामान्य आपराधिक मामला नहीं था. विशेष सुरक्षा व्यवस्था के तहत इस पूरे केस की सुनवाई हुई थी, जो बताता है कि ये केस काफी ज्यादा संवेदनशील था. आरोपी को नियमित जेल में नहीं रखा गया था. बल्कि इसके लिए लाल किले के अंदर ही एक स्पेशल जगह बनाई गई थी और उसे सरकारी अधिसूचना के तहत जेल घोषित किया गया था.
बड़े-बड़े वकील थे शामिल
दोनों पक्षों की कानूनी टीमों में उस समय के सबसे बड़े नाम शामिल थे. मुख्य आरोपी नाथूराम गोडसे का प्रतिनिधित्व वी.वी. ओक ने किया था. जबकि उनके सह-साजिशकर्ताओं के पास अपने-अपने बचाव वकील थे, जिनमें प्रमुख वकील के.एच. मंगले, जी.के. दुआ, और पी.एल. इनामदार शामिल थे. दूसरी ओर, प्रॉसिक्यूशन का नेतृत्व सी.के. दफतारी, बंबई के एडवोकेट जनरल, ने किया, जिनकी मदद एक प्रतिष्ठित कानूनी टीम ने की, जिसमें जे.सी. शाह भी शामिल थे. आपको बता दें, जे.सी. शाह वही व्यक्ति हैं जो बाद में भारत के चीफ जस्टिस बनें.
कई भाषाओं का इस्तेमाल
मुकदमे में एक सबसे बड़ी बाधा भाषा की थी. विष्णु करकरे मुख्य रूप से मराठी बोलता था, जबकि शंकर किस्तैया तेलुगु समझता था और मदनलाल पाहवा हिंदुस्तानी और पंजाबी में ज्यादा सहज था. गवाह भी अलग-अलग भाषाई पृष्ठभूमियों से आए थे, जिससे सुनवाई और ज्यादा मुश्किल हो गई थी. इस समस्या को सुलझाने के लिए कोर्ट ने तीन इंटरप्रेटर को रखा था. ये इंटरप्रेटर आरोपी, गवाह और कोर्ट के बीच होने वाली बातचीत को आसान बनाते थे.
हालांकि, इंटरप्रेटर के होने से केस समझने में आसानी तो हुई लेकिन इससे मुकदमा काफी लंबा खिंच गया. हर प्रश्न और फिर हर उत्तर को कई भाषाओं में अनुवाद करना पड़ता था. जैसे- अंग्रेजी, गुजराती, मराठी, तेलुगु, हिंदुस्तानी और पंजाबी.
सबूतों का रिकॉर्ड
गांधी हत्या के मुकदमे की एक प्रमुख विशेषता पेश किए गए सबूतों की भारी मात्रा थी. केवल प्रॉसिक्यूशन ने 149 गवाह पेश किए थे, जिनकी गवाही 720 पन्नों के अदालती रिकॉर्ड में दर्ज की गई थी. इसके अलावा, प्रॉसिक्यूशन ने 404 दस्तावेजी सबूत (documentary exhibits) और 80 भौतिक सबूत (material exhibits) प्रस्तुत थे. इनमें जांच के दौरान जब्त किए गए हथगोले, फायरआर्म्स और दूसरे विस्फोटक शामिल थे.
हालांकि बॉम्बे पब्लिक सिक्योरिटी मेजर्स एक्ट के तहत अदालत को केवल एक ज्ञापन बनाए रखने की अनुमति थी, लेकिन बचाव पक्ष के अनुरोध पर, अंग्रेजी में सबूतों का एक पूरा रिकॉर्ड रखा गया.
प्रॉसिक्यूशन में शामिल दिगंबर बड़गे ने इस मामले में अहम भूमिका निभाई, जिन्होंने अभियुक्तों (co-accused) के खिलाफ गवाही दी. दिगंबर बड़गे को 21 जून 1948 को अदालत ने माफी दी, जिसके बाद दिगंबर ने मुकदमे में प्रॉसिक्यूशन की सहायता की. दिगंबर बड़गे की गवाही ने नाथूराम गोडसे, नारायण आपटे और विष्णु करकरे सहित दूसरे अभियुक्तों की साजिश के बारे में बताया.
बिरला हाउस का लोकल इंस्पेक्शन
इस मुकदमे का एक विशेष पहलू बिरला हाउस का लोकल इंस्पेक्शन था. इस जगह गांधी की हत्या हुई थी. 24 जून 1948 को अदालत ने यह इंस्पेक्शन किया. यह काफी असामान्य कदम था.
चार्जशीट को 27 मई 1948 को कोर्ट में प्रस्तुत किया गया था. अभियुक्तों पर भारतीय दंड संहिता (IPC) की अलग-अलग धाराओं के तहत आरोप लगाए गए थे, जिनमें हत्या के लिए धारा 302, उकसाने के लिए धारा 109, और विस्फोटक अधिनियम की धारा 3, 4, 5, 6 शामिल थीं. सबूतों के बावजूद, सभी अभियुक्तों ने खुद को निर्दोष घोषित किया और मुकदमे की मांग की.
प्रॉसिक्यूशन ने अपने सबूत पेश करने की प्रक्रिया 24 जून 1948 से शुरू की, जो 6 नवंबर 1948 तक चली. प्रॉसिक्यूशन की ओर से सबूत पेश करने के बाद बयान लिए गए. 8 नवंबर से 22 नवंबर के बीच ये बयान दर्ज किए गए थे, जो 106 पृष्ठों पन्नों के थे. विशेष रूप से, नाथूराम गोडसे सहित आरोपियों ने 297 पन्नों के लिखित बयान दिए.
गोडसे का तर्क
इस मुकदमे का सबसे असाधारण पहलू नाथूराम गोडसे की अपनाई बचाव रणनीति थी. दूसरे हत्या के मुकदमों के विपरीत, गोडसे ने एक अलग स्ट्रेटेजी अपनाई. गोडसे ने इस तथ्य से इनकार नहीं किया कि उसने गांधी को गोली मारी; बल्कि, उसने कहा कि इसके पीछे कोई साजिश नहीं थी. गोडसे ने कोर्ट में खुद का प्रतिनिधित्व किया. गोडसे ने इसके लिए कोर्ट में एक भाषण भी दिया जिसमें उसने गांधी की हत्या के पीछे अपनी वैचारिक वजहें बताईं.
दोनों पक्षों की दलीलें सुनने के बाद, अदालत ने 10 फरवरी 1949 को अपना फैसला सुनाया. नाथूराम गोडसे और नारायण आप्टे को फांसी की सजा सुनाई गई, जबकि दूसरे अभियुक्तों को अलग-अलग सजाएं दी गईं.