अगर आप शादीशुदा हैं और गर्भवती हैं, तो क्या आपको मैटरनिटी लीव (मातृत्व अवकाश) लेने के लिए शादी का पक्का सबूत देना होगा? एक महिला कर्मचारी से ऐसा ही किया गया, लेकिन जब मामला मद्रास हाईकोर्ट पहुंचा, तो न्यायालय ने सख्त लहजे में फैसला सुनाते हुए महिला को न्याय दिलाया और निचली अदालत को फटकार लगाई.
क्या है पूरा मामला?
तमिलनाडु के कोडावासल कोर्ट में ऑफिस असिस्टेंट के रूप में काम करने वाली बी. कविता ने अक्टूबर 2024 में मैटरनिटी लीव के लिए आवेदन किया था. लेकिन उनके आवेदन को तीन आधारों पर खारिज कर दिया गया. पहला यही कि उनकी शादी रजिस्टर्ड नहीं थी, दूसरा उनके पति भरत पर पहले धोखाधड़ी का मामला दर्ज था और तीसरा उनकी प्रेग्नेंसी शादी से पहले की बताई गई.
कोडावासल के डिस्ट्रिक्ट मुनसिफ-कम-ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट ने कहा कि मैटरनिटी लीव सिर्फ विवाहित महिलाओं को मिलती है, और कविता की शादी को लेकर संदेह था.
हाईकोर्ट ने क्या कहा?
जब यह मामला मद्रास हाईकोर्ट पहुंचा, तो न्यायमूर्ति आर. सुब्रमण्यम और न्यायमूर्ति जी. अरुलमुरुगन की पीठ ने इस फैसले को ‘अमानवीय’ बताते हुए सख्त टिप्पणियां कीं. कोर्ट ने कहा, “अगर किसी कर्मचारी की शादी को लेकर कोई विवाद नहीं है, तो नियोक्ता (employer) को शादी का सबूत beyond reasonable doubt (संदेह से परे) मांगने का अधिकार नहीं है.”
कोर्ट ने आगे कहा, “आज के समय में जब सुप्रीम कोर्ट लिव-इन रिलेशनशिप को भी मान्यता दे चुका है, तब मजिस्ट्रेट द्वारा इस तरह का पुराना और संकीर्ण नजरिया अपनाना पूरी तरह अनुचित और निंदनीय है."
शादी का सबूत देने की मजबूरी क्यों?
कोर्ट ने निचली अदालत के फैसले को खारिज करते हुए कहा कि कविता ने अपने पति भरत के खिलाफ धोखाधड़ी का केस किया था, लेकिन बाद में परिवार की सहमति से उन्होंने शादी कर ली. उन्होंने शादी की तस्वीरें और निमंत्रण पत्र भी सबूत के तौर पर दिए थे. इसके बावजूद मजिस्ट्रेट ने उनकी प्रेग्नेंसी पर सवाल उठाकर उनका आवेदन खारिज कर दिया.
कोर्ट ने कहा कि यह रवैया महिला कर्मचारियों के प्रति असंवेदनशीलता को दर्शाता है और इससे महिलाओं के अधिकारों का हनन होता है.
₹1 लाख मुआवजा देने का आदेश!
मद्रास हाईकोर्ट ने इस मामले में बड़ा फैसला लेते हुए आदेश दिया कि बी. कविता को पूरी मैटरनिटी लीव दी जाए. मुख्य जिला न्यायाधीश (Principal District Judge) इस आदेश को लागू करें. उन्हें मानसिक पीड़ा के लिए ₹1 लाख का मुआवजा दिया जाए, जो हाईकोर्ट के रजिस्ट्रार जनरल द्वारा चार हफ्तों के भीतर भुगतान किया जाना चाहिए.
पहले भी आए हैं ऐसे फैसले
भारत में कई बार महिलाओं को मैटरनिटी लीव को लेकर संघर्ष करना पड़ा है. 2019 में दिल्ली हाईकोर्ट ने भी एक मामले में कहा था कि गर्भवती महिला को नौकरी से निकालना गैरकानूनी है. वहीं, साल 2022 में राजस्थान हाईकोर्ट ने आदेश दिया था कि गर्भवती महिला को भले ही कॉन्ट्रैक्ट पर रखा गया हो, उसे भी मैटरनिटी लीव दी जानी चाहिए.