साल 1964 में न्यूयॉर्क में महिला इंजीनियरों की सोसायटी का पहला अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित किया गया था. इस आयोजन में एक साधारण सी साड़ी पहने एक महिला अपनी बात कहने के लिए मंच पर चढ़ी और उन्होंने कहा, "अगर मैं 150 साल पहले अपने देश में पैदा हुई होती, तो मुझे अपने पति के शरीर के साथ चिता में जला दिया जाता."
दुनिया के लिए भारत की पहली महिला इंजीनियर ए ललिता को नोटिस करने के लिए यह बात काफी थी. तमिलनाडु के मद्रास में जन्मी ललिता उस जमाने में इंजीनियर बनीं जब महिलाओं को घर की चारदीवारी से निकलने की अनुमति भी नहीं होती थी. और सिर्फ इतना ही नहीं उन्होंने अपनी पहचान अपने पति के देहांत के बाद बनाई. आज भी वह देश की हर लड़की के लिए प्रेरणा हैं.
15 की उम्र में शादी और 18 की उम्र में हुईं विधवा
27 अगस्त, 1919 को मद्रास में एक मध्यमवर्गीय परिवार में जन्मी ललिता की शादी 1934 में हुई, जब वह सिर्फ 15 साल की थीं. दसवीं के बाद, ललिता ने अपने परिवार की देखभाल के लिए अपनी पढ़ाई छोड़ दी. उनकी बेटी श्यामला का जन्म 1937 में हुआ था. हालांकि, बेटी के जन्म के चार महीने बाद ही ललिता के पति की मृत्यु हो गई.
चार महीने की बेटी के साथ 18 साल की विधवा ललिता अपने माता-पिता के पास लौट आई. ललिता के पिता, पप्पू सुब्बाराव, इंजीनियरिंग कॉलेज (सीईजी), गुइंडी में प्रोफेसर थे. ललिता अपनी बेटी क लालन-पालन खुद करना चाहती थीं. इसलिए वह आत्मनिर्भर बनने के लिए प्रोफेशनल डिग्री हासिल करना चाहती थीं. अपने परिवार के सपोर्ट से, ललिता ने मद्रास के क्वीन मैरी कॉलेज में पढ़ाई की और इंटरमीडिएट की परीक्षा पास की.
मेडिकल की बजाय चुना इंजीनियरिंग का क्षेत्र
उस जमाने में मेडिकल क्षेत्र में महिलाएं ज्यादा थीं. लेकिन यह बहुत डिमांडिंग सेक्टर था. आपकी कभी भी ड्यूटी आ सकती थी और ललिता अपनी बेटी को खुद पालना चाहती थीं. इसलिए उन्होंने तय किया कि उन्हें ऐसा कुछ करना है जिससे वह सिर्फ 9 से 5 की नौकरी करें. और इसलिए उन्होंने इंजीनियरिंग पढ़ने की ठानी.
लेकिन उस जमाने में तकनीकी शिक्षा भारत में महिलाओं के लिए वर्जित थी. कोई भी एक महिला नहीं थी जिसने इंजीनियरिंग की हो. लेकिन ललिता ने हार नहीं मानी और उनके पिता ने सीईजी गुइंडी के तत्कालीन प्रिंसिपल डॉ केसी चाको से विशेष अनुरोध किया कि उनकी बेटी को इंजीनियरिंग कोर्स करने की अनुमति दी जाए. काफी मशक्कत के बाद ललिता को इंजीनियरिंग में दाखिला मिला.
भारत की पहली महिला इंजीनियर
हालांकि, कॉलेज में उस समय कोई और छात्रा नहीं थी. ऐसे में, उनके पिता ने अपनी बेटी के अकेलेपन के लिए एक अनूठा उपाय सोचा। उन्होंने एक अखबार में विज्ञापन दिया, जिसमें महिलाओं को इंजीनियरिंग कोर्स करने के लिए आमंत्रित किया गया! चाल काम आई: दो और महिलाओं, पीके थ्रेसिया और लीलम्मा जॉर्ज ने दाखिला लिया. हालांकि, वे दोनों सिविल इंजीनियरिंग करने पर आमादा थे, जबकि ललिता इलेक्ट्रिकल की अपनी पसंद पर अड़ी रहीं.
ललिता ने अपनी पढ़ाई में उत्कृष्ट प्रदर्शन किया. उन्होंने सितंबर 1943 में ऑनर्स के साथ इंजीनियरिंग पूरी की और देश की पहली महिला इंजीनियर बनीं! ललिता ने कोर्स के लिए जमालपुर रेलवे वर्कशॉप में एक साल की अप्रेंटिसशिप भी की.
भाखड़ा नंगल बांध परियोजना पर काम किया
वह 1944 में एक शोध सहायक के रूप में केंद्रीय मानक संगठन, शिमला में शामिल हुईं. ललिता ने इस नौकरी को इसलिए चुना क्योंकि इससे वह वहां रहने वाली एक भाभी की मदद से अपनी बेटी श्यामला का पालन-पोषण कर सकती थी. 1948 में एसोसिएटेड इलेक्ट्रिकल इंडस्ट्रीज, कलकत्ता में शामिल होने से पहले, उन्होंने नौकरी छोड़ दी और अपने पिता के इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग अनुसंधान में मदद की. उन्होंने भाखड़ा नांगल बांध परियोजना पर भी काम किया.
जून 1964 में न्यूयॉर्क में महिला इंजीनियरों और वैज्ञानिकों (ICWES) के पहले अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में आमंत्रित, ललिता ने विज्ञान में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने की बात कही. भारत की पहली महिला इंजीनियर 1977 में रिटायर हुईं और साल 1979 में महज 60 साल की उम्र में उनका निधन हो गया. ललिता आज हर उस महिला के लिए प्रेरणा हैं जिसे लगता है कि मां बनने के बाद करियर रूक जाता है. ललिता ने साबित किया कि एक मां कुछ भी कर सकती है और वह भी अपने सपनों को पूरा करते हुए.