हिन्दुस्तान की सरजमीं पर कुछ ही घंटे बाद अफ्रीकी चीते पहुंचने वाले हैं. क्योंकि इन चीतों को लाने वाला विशेष बोइंग विमान नामीबिया की राजधानी विंडहाक से उड़ान भर चुका है. इस विमान को बाहर और अंदर से विशेष तरह से तैयार किया गया है. ताकि चीतों के पिंजरों को आसानी से रखा जा सके. इसके बाद हेलीकॉप्टर के जरिए चीतों को कूनो नेशनल पार्क पहुंचाया जाएगा. प्रधानमंत्री मोदी अपने जन्मदिन के मौके पर इन चीतों को कूनो पार्क में छोड़ेंगे.
नामीबिया से खास विमान में आए नए मेहमान
अफ्रीकी देश नामीबिया की राजधानी विंडहोक से 8 चीतों का पूरा कुनबा आज हिन्दुस्तान पहुंच चुका है. बाघ की धरती भारत अब दुनिया की चीता कैपिटल से आ रहे चीतों का नया ठिकाना बनेगी. इस प्रोजेक्ट के लिए कई सालों से रिसर्च चल रहा था. आखिरकार वो समय आ गया है जब चीते भारत पहुंच चुके हैं. भारत के लोग पहले चीते का स्वागत करने के लिए बेकरार हैं.
चीतों का घर है नामीबिया का नेशनल पार्क
नामीबिया के जिस नेशनल पार्क से चीतों को लाया जा रहा है वो नेशनल पार्क चीतों के घर के रूप में मशहूर है. यहां चीतों की अच्छी खासी तादाद है. इंसानी बस्तियों की तरह य़हां चीतों की देखरेख के लिए पूरा इंतजाम है. नामीबिया से 8 चीतों को लाने के लिए तैयारी भी बेहद खास तरीके से की गई थी. नामीबिया से चीते जंबो जेट बोइंग 747 के जरिए भारत लाए जा रहे हैं. चीतों को लाने के लिए इस एयरक्राफ्ट को इसलिए चुना गया है ताकि री-फ्यूलिंग के लिए इसे कहीं रुकना न पड़े. चीते बिना रुके सीधे भारत पहुंच जाएं. बिना रुके दुनिया के एक कोने से दूसरे कोने तक पहुंचने की क्षमता वाले इस एयरक्राफ्ट पर चीते की पेंटिंग बनाई गई है.
विशेष प्रोजेक्ट के तहत भारत आ रहे चीते
नामीबिया के इन आठ चीतों को विशेष चीता प्रोजेक्ट के तहत भारत लाया जा रहा है. भारत लाने के प्लान पर नामीबिया में मौजूद भारतीय उच्चायुक्त करीबी नजर बनाए हुए हैं. वो नामीबिया के नेशनल पार्क जाकर खुद पूरे मिशन को देख रहे हैं. नामीबिया की राजधानी से 8 चीतों को लेकर जो लेकर स्पेशल चार्टर्ड फ्लाइट भारत आ रहा है. उसमें चीता कंजर्वेशन फंड की संस्थापक डॉक्टर लॉरिन मार्कर भी हैं. 2009 में जब नामीबिया से चीतों को भारत लाने की बात उठी तो लॉरिन मार्कर चीतों की नई रिहाइश का इंतजाम देखने खुद मध्यप्रदेश में श्योपुर के कूनो नेशनल पार्क पहुंची थीं.
नामीबिया की जगह ईरान से आ सकते थे चीते
ऐसा नहीं है कि हिंदुस्तान में पहले चीते नहीं आ सकते थे. 1970 के दशक में ईरान के शाह ने कहा था कि वो भारत को चीते देने के लिए तैयार हैं. लेकिन बदले में उन्हें हिन्दुस्तान से बब्बर शेर चाहिए था. उसी दौरान भारत की सरकार ने वाइल्डलाइफ (प्रोटेक्शन) एक्ट बनाया. जिसे 1972 में लागू किया गया. इसके मुताबिक देश में किसी भी जगह किसी भी जंगली जीव का शिकार करना प्रतिबंधित है. जब तक इन्हें मारने की कोई वैज्ञानिक वजह न हो या फिर वो इंसानों के लिए खतरा न बने. इसके बाद देश में जंगली जीवों के लिए संरक्षित इलाके बनाए गए. लेकिन लोग चीतों को संभवतः भूल गए.
2009 में फिर उठी आवाज
असल में इसकी आवाज उठी साल 2009 में, जब वाइल्डलाइफ ट्रस्ट ऑफ इंडिया यानी WTI ने राजस्थान के गजनेर में दो दिन का इंटरनेशनल वर्कशॉप रखा. सितंबर में हुए इस दो दिवसीय आयोजन में ये मांग की गई कि भारत में चीतों को वापस लाया जाए. कहा गया कि देश में ऐसे पांच राज्य हैं, जहां पर चीतों को रखा जा सकता है. जिनमें उत्तर प्रदेश, गुजरात, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश शामिल हैं. एक्सपर्ट्स को लगता था कि इन पांचों राज्यों में से किसी भी जगह पर चीतों को रखा जा सकता है. उनके हिसाब से यहां वातावरण ठीक है.
नामीबियाई चीतों के लिए कूनो नेशनल पार्क क्यों
नामीबियाई चीतों के लिए कूनो नेशनल पार्क को इसलिए चुना गया, क्योंकि यहां पर चीतों के खाने की कमी नहीं है. यानी पर्याप्त मात्रा में शिकार करने लायक जीव हैं. चीतल जैसे जीव काफी मात्रा में मौजूद हैं. जिन्हें चीते पसंद से खाते हैं. चीते को ग्रासलैंड यानी थोड़े ऊंचे घास वाले मैदानी इलाकों में रहना पसंद है. यानी चीते खुले जंगलों में रहने के आदी हैं. उन्हें घने जंगलों में रहना रास नहीं आता है. इसके अलावा वातावरण में ज्यादा उमस न हो, थोड़ा सूखा हो. इंसानों की पहुंच भी कम हो. यही नहीं चीतों के लिए तापमान बहुत ठंडा न हो और बारिश भी ज्यादा न होती हो. इन मानदंडों का विश्लेषण करने के बाद पता चला कि कूनो नेशनल पार्क अफ्रीकन चीतों के लिए सबसे मुफीद जगह है. यहां पर चीतों के सर्वाइव करने की संभावना सबसे ज्यादा है.
चीतों के लिए की जा रही खाने की व्यवस्था
कूनो नेशनल पार्क में कोई इंसानी बस्ती या गांव नहीं है और न ही खेती-बाड़ी. चीतों के लिए शिकार करने लायक बहुत कुछ है. यानी चीता जमीन पर हो या पहाड़ी पर. घास में हो या फिर पेड़ पर. उसे खाने की कमी किसी भी हालत में नहीं होगी. कुनो नेशनल पार्क में सबसे ज्यादा चीतल मिलते हैं, जिनका शिकार करना चीतों को पसंद आएगा. कुनो नेशनल पार्क में पहले करीब 24 गांव थे. जिन्हें समय रहते दूसरी जगहों पर शिफ्ट कर दिया गया. इन्हें कूनो नेशनल पार्क के 748 वर्ग किलोमीटर के पूर्ण संरक्षित इलाके की सीमा से बाहर भेज दिया गया. एक्सपर्ट्स के मुताबिक कूनो नेशनल पार्क में 21 चीतों के लिए शिकार है, यानी इतने चीते आ सकते हैं. अगर 3,200 वर्ग किलोमीटर में सही प्रबंधन किया जाए तो यहां पर 36 चीते रह सकते हैं और पूरे आनंद के साथ शिकार कर सकते हैं.
1952 में भारत से विलुप्त हो गए थे चीते
साल 1952 में हिंदुस्तान से विलुप्त हो चुका चीता एक बार फिर से भारत की सरजमीं पर कदम रखने जा रहा है. नामीबिया से भारत लाए जा रहे चीतों को कल प्रधानमंत्री मोदी कूनो नेशनल पार्क में छोड़ेंगे. 'बिग कैट फैमिली' का हिस्सा चीता एकमात्र ऐसा बड़ा मांसाहारी जानवर है. जो भारत में पूरी तरह से विलुप्त हो गया था. चीतों के विलुप्त होने की बड़ी वजह उनके शिकार को माना गया.
आखिर क्यों गायब हो गए चीते
वाइल्ड लाइफ विशेषज्ञों का कहना है कि चीता शब्द संस्कृत के चित्रक शब्द से आया है. जिसका अर्थ चित्तीदार होता है. भोपाल और गांधीनगर स्थित नवपाषाण युग के गुफा चित्रों में भी चीते नजर आते हैं. दावा तो यहां तक किया जा रहा है कि भारत में कभी हजार से ज्यादा चीते होते थे. बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी के पूर्व उपाध्यक्ष दिव्य भानु सिंह की किताब 'द एंड ऑफ ए ट्रेल- द चीता इन इंडिया' में ये दावा किया गया है कि अकबर के बेटे जहांगीर ने चीतों के जरिए 400 से ज्यादा हिरण पकड़े थे और कैद में रखने की वजह से उनकी आबादी में गिरावट आई.
हालांकि किताब में ये भी कहा गया है कि मुगलों के बाद अंग्रेजों ने चीतों को पकड़ने में ज्यादा दिलचस्पी नहीं दिखाई. वे ऐसा कभी-कभी किया करते थे.
20वीं शताब्दी की शुरुआत में आई चीतों की आबादी में गिरावट
वहीं 20वीं शताब्दी की शुरुआत से भारतीय चीतों की आबादी में तेजी से गिरावट आई. जब देश में चीतों की संख्या महज सैकड़ों में रह गई. इसके साथ इसके शिकार का चलन भी कम होने लगा. कहा जाता है कि साल 1947 में कोरिया के राजा रामानुज प्रताप सिंहदेव ने देश के आखिरी तीन चीतों का शिकार कर उन्हें मार दिया. इसके बाद कई सालों तक चीते दिखाई न देने के बाद साल 1952 में भारत सरकार ने आधिकारिक रूप से चीतों को भारत में विलुप्त घोषित कर दिया. 1970 के दशक में भारत सरकार ने विदेश से चीतों को भारत लाने पर विचार शुरू किया. इसके बाद ईरान से शेरों के बदले चीते लाने को लेकर बातचीत भी शुरू हुई. लेकिन इस प्रोजेक्ट को अमली जामा नहीं पहनाया जा सका.