Secularism in the Indian Constitution: क्या सच में यूरोप से उधार लिया गया है Secularism? भारतीय संविधान में किस तरह फिट बैठता है ये शब्द?

तमिलनाडु के राज्यपाल आर. एन. रवि ने कहा है कि पंथ निरपेक्षता एक "यूरोपीय अवधारणा" है और इसे भारत में गलत तरीके से लागू किया गया है. उनकी टिप्पणी ने अलग-अलग राजनीतिक नेताओं के बीच तीखी नोक-झोंक शुरू कर दी है.

Constitution of India
अपूर्वा सिंह
  • नई दिल्ली,
  • 24 सितंबर 2024,
  • अपडेटेड 2:51 PM IST
  • यूरोप से जुड़ी हैं जड़ें 
  • प्रस्तावना में बाद में जोड़ा गया ये शब्द 

नवंबर 1948… भारत एक नया स्वतंत्र देश था और अपना संविधान बना रहा था. इस दौरान संविधान सभा में बहस के दौरान प्रोफेसर के टी शाह ने एक विचार रखा. उन्होंने सुझाव दिया कि संविधान की प्रस्तावना में "पंथनिरपेक्ष " या “सेक्युलरिज्म" (Secularism) शब्द जोड़ा जाए. 

हालांकि, सभी सदस्य इस बात से सहमत थे कि भारत को पंथनिरपेक्ष होना चाहिए. इस शब्द का मतलब है कि कोई धर्म विशेष को प्राथमिकता न दी जाए, लेकिन उस समय प्रस्तावना में "पंथनिरपेक्ष " शब्द शामिल नहीं किया गया. लेकिन लगभग 30 साल बाद, 1976 में, इंदिरा गांधी की सरकार ने 42वें संशोधन के जरिए संविधान में इस शब्द को जोड़ दिया. 

पंथनिरपेक्षता शब्द को कुछ लोगों ने सराहा, जबकि दूसरों ने कहा कि इसका विचार यूरोप से आया है और यह अलग-अलग धर्मों वाले भारत में पूरी तरह फिट नहीं बैठता. लोगों का कहना था कि भारतीय संविधान में पंथ निरपेक्षता शब्द यूरोप से उधार लिया गया है. 

अब इस बहस ने एक बार फिर से जोर पकड़ लिया है. तमिलनाडु के राज्यपाल आर. एन. रवि ने कहा है कि पंथ निरपेक्षता एक "यूरोपीय अवधारणा" है और इसे भारत में गलत तरीके से लागू किया गया है. उनकी टिप्पणी ने अलग-अलग राजनीतिक नेताओं के बीच तीखी नोक-झोंक शुरू कर दी है.

आर. एन. रवि की इस टिप्पणी ने यह सवाल उठा दिया है कि क्या सच में पंथ निरपेक्ष ता या सेक्युलरिज्म पश्चिम से उधार लिया गया है? यह भारतीय संविधान में कैसे फिट होता है?

दरअसल, पंथ निरपेक्षता का विचार मध्यकालीन यूरोप में पैदा हुआ. अमेरिका और तुर्की जैसे देशों ने पंथ निरपेक्षता को अपनाया ताकि धर्म और राज्य को अलग रखा जा सके. हालांकि, नेहरू और बी.आर. अंबेडकर, जो संविधान के मसौदे को तैयार करने में मुख्य भूमिका निभा रहे थे, ने प्रस्तावना में "पंथ निरपेक्ष " शब्द शामिल करने का विरोध किया था. उनका मानना था कि संविधान की मूल भावना में इसे शामिल तो किया जाए लेकिन अलग से इस शब्द को नहीं लिखा जाना चाहिए.

पंथ निरपेक्षता अपने आप में एक ऐसा शब्द बन गया जिसका इस्तेमाल सभी धर्मों को समान रूप से सम्मानित करने के लिए किया जा सके. 

यूरोप से जुड़ी हैं जड़ें 
पश्चिम में पंथ निरपेक्षता या सेक्युलरिज्म का कॉन्सेप्ट राज्य और धार्मिक संस्थाओं, विशेष रूप से ईसाई चर्च, के बीच सदियों से चली आ रही नोक-झोंक से पैदा हुआ. मध्यकालीन यूरोप में चर्च को काफी ताकत मिली हुई थी और अक्सर वह राजनीतिक और सामाजिक मानदंडों को निर्धारित करता था. राजाओं और शासकों को अक्सर धार्मिक संस्थाओं के अधीन माना जाता था. 16वीं सदी में मार्टिन लूथर जैसे व्यक्तियों ने इसे बदलने के लिए कुछ कदम उठाए. ये माना गया कि राज्य और चर्च को एक दूसरे से अलग रखा जाए. 

जॉन लॉक, वोल्टेयर और जीन-जैक्स रूसो जैसे विचारकों ने राज्य और चर्च को अलग रखने की बात कही. रूसो ने इसे लेकर अपनी किताब "द सोशल कॉन्ट्रैक्ट" में जोर दिया कि भले ही धर्म निजी नैतिकता को आकार दे सकता है, लेकिन राज्य को पंथ निरपेक्ष  होना चाहिए ताकि धार्मिक संघर्षों से बचा जा सके और सामाजिक व्यवस्था बनी रहे.

लेकिन यूरोप की अगर बात करें, तो वहां पंथ निरपेक्षता का मतलब धर्म का पूरी तरह से खारिज करना नहीं था, बल्कि एक सार्वजनिक क्षेत्र को न्यूट्रल बनाने का प्रयास करना था. यहां व्यक्ति बिना किसी बंदिश के अपने धर्म का पालन कर सकते थे, जबकि राज्य को यह सुनिश्चित करना था कि धर्म शासन में हावी न हो. 

फ्रांस का Laïcité 
यूरोप में पंथ निरपेक्षता की सबसे जरूरी डेफिनेशन फ्रांस से आई, जिसमें 20वीं सदी की शुरुआत में "ला-इसीटे" (Laïcité) की स्थापना हुई. इस कानून के तहत, फ्रांसीसी राज्य आधिकारिक तौर पर धर्म के मामलों में न्यूट्रल हो गया, जिससे व्यक्तियों को निजी तौर पर अपने धर्म का पालन करने की अनुमति मिली जबकि धार्मिक संस्थाओं को राजनीति और राज्य के मामलों से दूर रखा गया.

भारतीय संविधान का मसौदा बनाने वालों के साइन

स्वतंत्रता से पहले और बाद की स्थिति
लेकिन भारत में धर्म का कॉन्सेप्ट काफी अलग है. ये देश सदियों से हिंदू धर्म, बौद्ध धर्म, जैन धर्म, सिख धर्म, इस्लाम, ईसाई धर्म, पारसी धर्म, आदि का घर रहा है. हालांकि, पंथ निरपेक्षता का आधुनिक विचार ब्रिटिश शासन के दौरान उभरा. 

भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के नेताओं, विशेष रूप से महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू, की पंथ निरपेक्षता पर अलग-अलग राय थी. महात्मा गांधी एक पंथ निरपेक्ष  राज्य की कल्पना करते थे जो "सर्व धर्म समभाव" (सभी धर्मों की समानता) पर आधारित हो. गांधी के लिए पंथ निरपेक्षता का मतलब सार्वजनिक जीवन से धर्म को हटाना नहीं था, बल्कि सभी धर्म का सम्मान करना था. वे भारत की धार्मिक विविधता को एक ताकत के रूप में देखते थे.

दूसरी ओर, नेहरू, भारत के पहले प्रधानमंत्री, पश्चिमी, विशेष रूप से यूरोपीय, पंथ निरपेक्षता मॉडल से ज्यादा प्रभावित थे. नेहरू मानते थे कि राज्य को धार्मिक संस्थाओं से एकदम दूर रहना चाहिए ताकि साम्प्रदायिक हिंसा को रोका जा सके और व्यक्तिगत स्वतंत्रता सुनिश्चित की जा सके. 

प्रस्तावना में बाद में जोड़ा गया ये शब्द 
जब 1940 के दशक के अंत में भारतीय संविधान का मसौदा तैयार हो रहा था. सभी ने विभाजन की पीड़ा झेली. हिंदुओं और मुसलमानों के बीच बड़ी साम्प्रदायिक हिंसा हुई. तब प्रस्तावना में सेक्युलरिज्म शब्द नहीं जोड़ा गया था लेकिन संविधान में इसे लेकर बात की गई थी. अनुच्छेद 14 समानता का अधिकार सुनिश्चित करता है, और अनुच्छेद 25 धर्म की स्वतंत्रता की गारंटी देता है. राज्य को एक धर्म को दूसरे पर तरजीह नहीं देनी थी, और हर व्यक्ति को अपनी आस्था का पालन, प्रचार और प्रसार करने का अधिकार था. 1976 में, प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के दौरान आपातकाल में 42वें संशोधन में संविधान की प्रस्तावना में "पंथ निरपेक्ष" शब्द जोड़ दिया गया. 

हालांकि पंथ निरपेक्षता शब्द औपचारिक तौर पर यूरोपीय मूल का हो सकता है, लेकिन कई लोग यह तर्क करते हैं कि पंथ निरपेक्षता का मतलब ही धार्मिक सहिष्णुता, बहुलवाद, और सभी विश्वासों के प्रति सम्मान है, जो भारतीय संस्कृति की पहचान है. सदियों पुराने भारत के प्राचीन ग्रंथ, जैसे कि ऋग्वेद से लेकर अशोक की शिक्षाओं और भक्ति-सूफी आंदोलन में धार्मिक विविधता का जिक्र है. 


 

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