कभी घर-घर जाकर बेचा प्रेशर कुकर और पुराने फोन, आज तिहाड़ में बड़े-बड़े अपराधियों की निकालते हैं हेकड़ी, जानिए कौन है तिहाड़ जेल के सिंघम दीपक शर्मा

यूं तो तिहाड़ जेल के जेलर दीपक शर्मा की पहचान देश के हाई प्रोफाइल केस से हुई. दिल्ली के निर्भया केस में आरोपियों को फांसी दिलवाने की जिम्मेदारी के बाद उन्होंने कई हाई प्रोफाइल केस पर निगरानी रखी है. जैसे जेल में बंद यासीन मलिक, सुकेश चंद्रशेखर और पहलवान सुशील कुमार का जिम्मा भी दीपक शर्मा पर ही है.

Deepak Sharma
नीतू झा
  • नई दिल्ली,
  • 14 जून 2023,
  • अपडेटेड 7:44 PM IST

बॉलीवुड में न जाने कितनी ऐसी फिल्में बनती हैं जिसमें वर्दी पहने एक फौलादी पुलिस वाला एक्शन सीन करते नजर आता है, लेकिन रील और रियल की ऐसी ही मिलती जुलती कहानी है तिहाड़ जेल के जेलर दीपक शर्मा की. बचपन अभाव में बीता और जवानी में दोस्त नहीं बने. नौबत यहां तक आ गई कि घर-घर जा कर प्रेशर कुकर से लेकर पुराने फोन तक बेचने पड़े लेकिन दीपक ने हार नहीं मानी और फिर तय किया कि वो अपने परिवार की स्थिति को बदलने के लिए पढ़ेंगे और घर वालों का नाम रोशन करेंगे और फिर दिल्ली पुलिस में भर्ती हुई. यहां से किसी फिल्मी हीरो की तरह दीपक शर्मा कि कहानी भी बदल गई. पहले फिटनेस की ओर कदम बढ़ाया और फिर बढ़ते-बढ़ते तमाम मेडल और अप्रिशिएशन के साथ उनकी पहचान बन गया.

फिटनेस से बनी पहचान
यूं तो तिहाड़ जेल के जेलर दीपक शर्मा की पहचान देश के हाई प्रोफाइल केस से हुई. दिल्ली के निर्भया केस में आरोपियों को फांसी दिलवाने की जिम्मेदारी के बाद उन्होंने कई हाई प्रोफाइल केस पर निगरानी रखी है. जैसे जेल में बंद यासीन मलिक, सुकेश चंद्रशेखर और पहलवान सुशील कुमार का जिम्मा भी दीपक शर्मा पर ही है. एक ओर जहां उनकी पहचान काम से होती है, वहीं सोशल मीडिया पर उनकी पहचान फिटनेस से है, दीपक बताते हैं उनकी फिटनेस को देखते हुए ही उनके सीनियर्स का भरोसा उनपर और बढ़ जाता है क्योंकि उन्हें पता है कि दीपक बड़े से बड़े खूंखार अपराधी की हेकड़ी खत्म कर सकते हैं.

दबंग और सिंघम ने दिया प्रोत्साहन
दीपक बताते है कि उनका बचपन काफी सामान्य बीता. परिवार में आर्थिक तंगी के बीच उन्होंने कभी जिम जाने का सोचा भी नहीं लेकिन जब दिल्ली पुलिस में भर्ती हो गई तब साल 2014 में  दबंग और सिंघम जैसी फिल्मों ने उनको बहुत आकर्षित किया और तब उन्होंने तय किया कि वो भी कुछ ऐसा ही करेंगे. पहले उनका वजन 60 किलो था इसके बाद उनका सफर शुरू हुआ और आज उनके नाम कई मेडल हैं और बीते 5 सालों से वो नेशनल चैंपियन हैं और 17 से 18 मेडल उनके नाम है.

डिपार्टमेंट के लोग भी लेते है इंस्पिरेशन
दीपक बताते हैं कि कोरोना के बाद लोगों में फिटनेस का क्रेज बढ़ गया है. 2017-18 के बाद उनके डिपार्टमेंट में भी जितने सिपाहियों की भर्ती होती है वह अक्सर उनसे फिटनेस टिप्स लेते हैं. इतना ही नहीं जेल में बंद कैदी भी उनसे फिट रहने के तरीके जानने समझने की कोशिश करते हैं और वह खुद भी कैदियों को योगा करवाते हैं. वहीं जो कैदी स्पोर्ट्स खेलते हैं या जिनका रुझान खेलो के प्रति है उनको भी खेल के प्रति प्रोत्साहित किया जाता है.

डिस्कवरी चैनल में किया शो
दीपक शर्मा बताते हैं कि हाल ही में उन्होंने डिस्कवरी चैनल के लिए भी एक शो किया था और वो ऐसे पहले पुलिस वाले बने जिसने तिहाड़ जेल को नेशनल गेम्स में रिप्रेजेंट किया. इसके बाद उनके सीनियर्स का उन पर भरोसा काफी बढ़ गया. यही वजह थी कि उन्हें निर्भया केस का जिम्मा सौंपा गया. निर्भया के दरिंदों को जब फांसी दी जानी थी तब वो 72 घंटों तक सोए नहीं थे क्योंकि उस वक्त पूरे देश की नजरे निर्भया के आरोपियों पर थी.

जेलर बनने की नहीं थी ख्वाहिश
अपने बचपन को याद करते हुए दीपक बताते हैं कि उनके 5 भाई बहन हैं, परिवार उत्तर प्रदेश के बागपत का रहने वाला है लेकिन नौकरी के सिलसिले में दिल्ली आ गया और उनका जन्म यही हुआ. बचपन में उनकी ख्वाहिश न जेलर बनने की थी ना ही पुलिस फोर्स में भर्ती होने की. वो एमबीए करना चाहते थे लेकिन परिवार के पास इतने पैसे नहीं थे. घर में आर्थिक तंगी थी. पिताजी को बागपत में रोजाना 80 किलोमीटर साइकिल चला कर नौकरी पर जाना पड़ता था. इसके बाद वो दिल्ली आ गए लेकिन स्थिति यहां भी बहुत नहीं बदली. इसलिए उन्हें गर्मियों की छुट्टियों में छोटे-छोटे काम भी करने पड़े जैसे प्रेशर कुकर बेचना, पुराने फोन बेचना साथ ही कोरियर का भी काम किया था. इसके बाद उन्होंने ये तय किया कि वो अब सरकारी नौकरी करेंगे लेकिन कोचिंग लेने के भी पैसे नहीं थे. ऐसे में दिल्ली यूनिवर्सिटी से पढ़ाई की फिर एलएलबी का एग्जाम दिया और फिर दिल्ली पुलिस का एग्जाम निकाला और उनकी पोस्टिंग दिल्ली जेल में हुई और फिर उनका सफर आज भी जारी है.

कैदियों को करते हैं इंस्पायर
दीपक बताते हैं कि वो कैदियों को भी इंस्पायर करते हैं. जेल में मौजूद कैदियों को उनकी रुचि और टैलेंट के हिसाब से काम दिए जाते हैं जिन लोगों को काम नहीं आता है, उन्हे ट्रेन किया जाता है जिससे जब वो जेल से बाहर निकले तो एक बेहतर इंसान के तौर पर निकले.

 

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