कभी सड़क पर बैठकर भीख मांगते थे, पिछले 23 सालों से बेसहारा लोगों के लिए 'मसीहा' बने हुए हैं; जानिये कोयंबटूर के मुरुगन की कहानी

बी मुरुगन की उम्र 47 साल है और उन्होंने करीब 24 साल पहले 1998 में एनजीओ निज़ल मैय्याम की स्थापना की थी. तब से लेकर आज तक बेसहारा लोगों और बच्चों को भोजन बांट रहे हैं. मुरुगन करते हैं कि जब वे 12वीं की परीक्षा में तीन बार फेल हुए तब उन्होंने तीन बार खुदकुशी की कोशिश की. बिना किसी उम्मीद के 1992 में वे कोयंबटूर के सिरुमुगई आ गए. एक भिखारी के पास रूके और दोनों भोजन के लिए संघर्ष करते थे. जब उन्होंने देखा कि कई ऐसे भिखारी हैं जिसकी हालत उनके जैसी है, तब उन्होंने उनकी मदद करने का फैसला किया.

मुरुगन इसी तरह सड़क किनारे बैठे बेसहारा लोगों को भोजन बांटते हैं
gnttv.com
  • कोयंबटूर,
  • 16 जनवरी 2022,
  • अपडेटेड 9:26 AM IST
  • हर दिन 200 से ज्यादा लोगों को बांटते हैं भोजन
  • 1998 में बेसहारा लोगों को भोजन बांटने की शुरुआत
  • कंपनी मालिक और दोस्तों ने की पूरी मदद

दिन की शुरुआत सुबह 3 बजे होती है. पत्नी और तीन हेल्पर की मदद से खाना बनाते हैं. सभी मिलकर सुबह 6 बजे तक भोजन तैयार करते हैं और उसे पैक करते हैं. ये कहानी किसी हॉस्टल या मेस चलाने वाले की नहीं है बल्कि ये कहानी है कोयंबटूर के बी मुरुगन की जो बेसहारा लोगों के लिए सहारा बने हुए हैं. दो-चार साल नहीं बल्कि पिछले 23 सालों से वे इस काम में लगे हैं.

हर दिन 200 से ज्यादा लोगों को बांटते हैं भोजन
बी मुरुगन की उम्र 47 साल है और उन्होंने करीब 24 साल पहले 1998 में एनजीओ निज़ल मैय्याम की स्थापना की थी. तब से लेकर आज तक बेसहारा लोगों और बच्चों को भोजन बांट रहे हैं. इस काम में उनके वॉलेंटियर्स भी मदद करते हैं. मुरुगन इस बात का पूरा ध्यान रखते हैं कि जो भोजन वे लोगों को बांट रहे हैं उसकी क्वालिटी अच्छी हो. वह बिरयानी के साथ 'गमागमा सांभर' बनाते हैं और पैक कर बेसहारा लोगों के बीच बांटते हैं. हर दिन करीब 200 बेसहारा लोगों और हर रविवार 18 अनाथालयों में करीब एक हजार बच्चों को भोजन बांटते हैं.

कभी सड़क पर बैठकर भीख मांगते थे...
एनजीओ की स्थापना और बेसहारा लोगों के पेट भरने का ख्याल कहां से आया, इस सवाल पर मुरुगन करते हैं कि जब वे 12वीं की परीक्षा में तीन बार फेल हुए तब उन्होंने तीन बार खुदकुशी की कोशिश की. बिना किसी उम्मीद के 1992 में वे कोयंबटूर के सिरुमुगई आ गए. एक भिखारी के पास रूके और दोनों भोजन के लिए संघर्ष करते थे. जब उन्होंने देखा कि कई ऐसे भिखारी हैं जिसकी हालत उनके जैसी है, तब उन्होंने उनकी मदद करने का फैसला किया.

1998 में की शुरुआत
एक वरिष्ठ नागरिक करुप्पन ने एक छोटे से होटल में काम दिलवाने में मुरुगन की मदद की. बाद में एक लॉरी में क्लीनर के तौर पर कुछ सालों तक काम किया. इसी दौरान ऑटो चलाना सीखा और एक कंपनी ऑटो ड्राइवर बन गया. हर महीने तीन हजार रुपए कमाने लगे. मुरुगन बताते हैं कि 1998 में हर रविवार उन्होंने 25 बेसहारा लोगों के लिए खाना बनाना शुरू किया और उन्हें बांटना शुरू किया. मुरुगन शुरुआत में मेट्टूपलायम में बेसहारा लोगों को भोजन बांटते थे.

"जब दोस्तों और कंपनी के मालिक को इस बात का पता चला तो उन्होंने कई तरह से मदद की. उन्होंने पैसे, सब्जी, चावल और राशन दिए. जब और मदद मिलने लगी तो मैं अपनी सैलरी का बड़ा हिस्सा इस काम में लगाने लगा. निज़ल मैय्याम की स्थापना के बाद कुछ लोग इससे प्रभावित हुए और साथ आ गए. 2011 में जब वॉलेंटियर्स साथ आए तब 200 बेसहारा लोगों को भोजन बांटना शुरू किया".

कोयंबटूर को भिखारी मुक्त शहर बनाने का सपना
दुकानों और होटलों में पत्तल बांटने वाले मुरुगन सुबह जल्दी उठते हैं और 9 बजे तक काम पर चले जाते हैं. उनका डेली रूटीन काफी व्यस्ततम है. मुरुगन कहते हैं कि वे और करना चाहते हैं. मुरुगन का कहना है कि-"मेरा सपना कोयंबटूर को भिखारी मुक्त शहर बनाने का है. हमें बेसहारा बच्चों और व्यस्कों की देखभाल के लिए एक अनाथालय की आवश्यकता है".

ये मुरुगन जैसे ही लोग हैं जो अपने दम पर दुनिया को बदलने के लिए आगे आते हैं. जिस तरह इन्होंने कोयंबटूर जैसे बड़े शहर को भिखारी मुक्त बनाने का सपना देखा है, अगर इसी तरह इस देश में बस कुछ लोग सामने आएं तो यकीनन हिंदुस्तान को बदलने से कोई नहीं रोक सकता. मुरुगन जैसे लोग ही अपने दम पर हालात को बदलते हैं और दूसरों के लिए प्रेरणा बनते हैं.

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