शिवसेना के नाम और चुनाव चिन्ह के इस्तेमाल पर चुनाव आयोग ने अगले आदेश तक रोक लगा दी है. अब शिवसेना के नाम और सिंबल का कोई भी गुट इस्तेमाल नहीं कर सकता है. एकनाथ शिंदे और उद्धव ठाकरे गुट को दूसरा चुनाव चिन्ह आवंटित किया जाएगा. इसके लिए आयोग ने दोनों गुटों को अपनी-अपनी प्राथमिकता बताने को कहा है. ये पहला मौका नहीं है जब चुनाव चिन्ह और पार्टी के नाम को लेकर कानून लड़ाई चल रही है. इससे पहले भी कई दफा ऐसा हो चुका है. इंदिरा गांधी से लेकर जयललिता तक, अखिलेश से लेकर चिराग पासवान तक की पार्टी में बवाल हो चुका है. हर बार चुनाव आयोग ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और समस्या का समाधान किया. चलिए ऐसा ही कुछ मामले का जिक्र करते हैं, जहां एक पार्टी में सिंबल और नाम को लेकर पार्टी दो फाड़ हो गई थी.
कांग्रेस में कलह-
साल 1969 में कांग्रेस में वर्चस्व की लड़ाई चल रही थी. एक गुट इंदिरा गांधी के साथ था और दूसरा गुट पुराने नेताओं का था, जिसे सिंडिकेट कहते थे. पार्टी दो गुटों में बंट गई. इंदिरा गांधी गुट को कांग्रेस (आर) और सिंडिकेट को कांग्रेस (ओ) नाम मिला. दोनों गुटों ने कांग्रेस के चुनाव चिन्ह दो बैल की जोड़ी पर अपना-अपना दावा किया. लेकिन आयोग ने चुनाव चिन्ह फ्रीज कर दिया. कांग्रेस (ओ) को तिरंगे में चरखा और कांग्रेस (आर) को गाय और बछड़ा चुनाव चिन्ह मिला. साल 1971 इलेक्शन में कांग्रेस (आर) को 352 सीटें और कांग्रेस (ओ) को 16 सीटें मिलीं.
अन्ना द्रमुक में सिंबल पर संग्राम-
तमिलनाडु के दिग्गज नेता एमजी रामचंद्रण की मौत के बाद पार्टी में दो गुट हो गए. एमजीआर की पत्नी जानकी के समर्थन में पार्टी के विधायक और सांसद थे. जबकि जयललिता को पार्टी पदाधिकारियों का समर्थन था. हालांकि चुनाव आयोग के फैसले से पहले ही दोनों गुटों में समझौता हो गया. 1989 विधानसभा चुनाव में जयललिता को27 सीटें मिलीं, जबकि जानकी गुट को सिर्फ 2 सीट मिली. इसके बाद लोकसभा चुनाव में जयललिता की अगुवाई में अन्ना द्रमुक ने 11 सीटों पर जीत हासिल की.
चंद्रबाबू नायडु की बगावत-
साल 1994 में एनटी रामाराव की अगुवाई में टीडीपी ने साइकिल सिंबल पर 216 सीटों पर जीत हासिल की. लेकिन 1995 में उनके दामाद चंद्रबाबू नायडु ने पार्टी की कमान छीन ली. दिसंबर 1995 में सिंबल और नाम का मामला चुनाव आयोग पहुंचा. मुख्य चुनाव आयुक्त टीएन शेषन ने चंद्रबाबू नायडु के पक्ष में फैसला सुनाया.
अखिलेश Vs शिवपाल-
समाजवादी पार्टी में अखिलेश गुट और शिवपाल गुट में झगड़ा चल रहा था. इस बीच एक जनवरी 2017 को राष्ट्रीय सम्मेलन में एक गुट ने अखिलेश यादव को राष्ट्रीय अध्यक्ष बना दिया गया. समाजवादी पार्टी के कई बड़े नेता अखिलेश यादव के समर्थन में आ गए. जबकि मुलायम सिंह यादव शिवपाल यादव के साथ खड़े दिखाई दिए. मुलायम सिंह ने अखिलेश को राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाने का विरोध किया. मुलायम सिंह अपने समर्थकों के साथ चुनाव आयोग पहुंच गए और समाजवादी पार्टी पर अपना दावा पेश किया. चुनाव आयोग ने दोनों का पक्ष सुनने के बाद समाजवादी पार्टी का नाम और चुनाव चिन्ह दोनों अखिलेश यादव को सौंप दिया.
चिराग और पशुपति की लड़ाई-
रामविलास पासवान के निधन के बाद एलजेपी में वर्चश्व वर्चस्व की लड़ाई शुरू हो गई. रामविलास पासवान के बेटे चिराग पासवान और भाई पशुपति पारस ने एलजेपी पर अपना-अपना दावा ठोका. पशुपति पारस के पास एलजेपी सांसद थे तो चिराग पासवान के पास पार्टी के सदस्य. लेकिन जब मामला चुनाव आयोग के पास पहुंचा तो सिंबल और पार्टी का नाम फ्रीज हो गया. दोनों गुटों को अलग-अलग सिंबल और नाम दिए गए. चिराग पासवान गुट को लोकजनशक्ति पार्टी(रामविलास) और पशुपति पारस गुट को राष्ट्रीय लोक जनशक्ति पार्टी ना मिला. जबकि चिराग गुट को हेलिकॉप्टर और पशुपति पारस गुट को सिलाई मशीन चुनाव चिन्ह आवंटित किया गया.
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