White Paper: सरकार को 1997 में ही मिल गया था दिल्ली की जहरीली हवा का इलाज, फिर भी क्यों नहीं हुई राजधानी की हवा साफ? जानिए क्या था दिल्ली का व्हाइट पेपर

बारिश के मौसम के बाद दिल्ली में दस्तक देती है सर्दी. और सर्दी के साथ दस्तक देता है वायु प्रदूषण. भले ही पिछले 10 सालों से राजधानी की जहरीली हवा ने लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचा हो लेकिन यह समस्या करीब तीन दशक पुरानी है. और करीब तीन दशक पहले ही दिल्ली की हवा को साफ करने का इलाज भी ढूंढ लिया गया था. तो फिर दिल्ली की हवा साफ क्यों नहीं हो सकी.

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शादाब खान
  • नई दिल्ली,
  • 26 अक्टूबर 2024,
  • अपडेटेड 1:22 PM IST
  • केंद्र सरकार ने 1997 जारी किया था श्वेत पत्र
  • रिपोर्ट में दिए गए थे राजधानी में प्रदूषण के कारक

दिल्ली-एनसीआर (Delhi NCR) की हवा लगातार 'बुरी और बहुत बुरी' श्रेणियों के बीच बनी हुई है. सर्दियों का मौसम आते ही राष्ट्रीय राजधानी के लोगों को वायु प्रदूषण (Delhi Air Pollution) की मार झेलनी पड़ती है. लेकिन यह परेशानी नई नहीं, बल्कि तीन दशक से भी ज्यादा पुरानी है. साल 1989 में सामने आई विश्व स्वास्थ्य संगठन (World Health Organisation) की एक रिपोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट को इस प्रदूषण की सनद लेने के लिए मजबूर किया था. 

अगले एक दशक में सुप्रीम कोर्ट के आदेश से लेकर केंद्र सरकार के मश्वरों तक कई चीजों ने दिल्ली में वायु प्रदूषण से जुड़ी नीतियों को प्रभावित किया. इन नीतियों को प्रभावित करने वाली चीजों में एक 'व्हाइट पेपर' भी था जिसने दिल्ली में वायु प्रदूषण के कारणों को पहचाना था. इस व्हाइट पेपर और इसके सुझावों का क्या हुआ. आइए जानते हैं विस्तार से.

दिल्ली में वायु प्रदूषण का इतिहास
दिल्ली की सामाजिक संस्थाओं ने भले ही पिछले 10 सालों में राजधानी के प्रदूषण पर नजर डाली हो लेकिन यह समस्या 90 के दशक से बनी हुई है. सुप्रीम कोर्ट ने मार्च 1995 में पर्यावरणविद् और वकील एम.सी. मेहता की याचिका पर सुनवाई करते हुए डब्ल्यूएचओ की 1989 की रिपोर्ट का हवाला देते हुए कहा था कि दिल्ली दुनिया का चौथा सबसे प्रदूषित शहर है.

अदालत ने अपने फैसले में दो प्रदूषणकारी कारकों की पहचान की. पहला, दिल्ली की गाड़ियों और दूसरा दिल्ली की फैक्ट्रियां. साल 1996 में चरणबद्ध तरीके से दिल्ली के आवासीय क्षेत्रों से 1,300 से अधिक अत्यधिक प्रदूषणकारी फैक्ट्रियों को बंद करने या स्थानांतरित करने का आदेश दिया गया. कई ईंट भट्टों को भी शहर की सीमा से बाहर भेजा गया.

एक साल बाद 1996 में मेहता ने फिर सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया. इसी साल केंद्रीय पर्यावरण और वन मंत्रालय ने दिल्ली के प्रदूषण को लेकर एक रिपोर्ट जारी की. यही था दिल्ली का श्वेत पत्र (White Paper). सुप्रीम कोर्ट ने इस रिपोर्ट का स्वतः संज्ञान लेकर दिल्ली सरकार को प्रदूषण के खिलाफ एक एक्शन प्लान बनाने का आदेश दिया. बाद में दोनों मामलों को मिला भी दिया.

क्या कहता था श्वेत पत्र?
श्वेत पत्र का खुलासा यह है कि इसने दिल्ली के प्रदूषण के लिए यहां के 'विकास' को जिम्मेदार ठहराया. पत्र में कहा गया कि आजादी के बाद यह शहर वाणिज्य, उद्योग और शिक्षा का केंद्र बन गया है. साथ ही सरकारी कार्यालयों के बढ़ने से शहर का विस्तार हुआ है. और इन्हीं चीजों ने दिल्ली के प्रदूषण में अपना योगदान दिया है.

वायु प्रदूषण की बात करें तो श्वेत पत्र में इसके चार कारण बताए गए. वाहनों से निकलने वाला धुआं, कोयले से चलने वाले थर्मल पावर प्लांट, फैक्ट्रियां और घरों से निकलने वाला धुआं. दिल्ली की गाड़ियां (67 प्रतिशत) जहां शहर के एक-तिहाई वायु प्रदूषण के लिए जिम्मेदार थीं, वहीं थर्मल प्लांट (13 प्रतिशत) और फैक्ट्रियां (12 प्रतिशत) चौथाई प्रदूषण के लिए जिम्मेदार थे. घरों (8 प्रतिशत) से होने वाला वायु प्रदूषण न के बराबर था.

श्वेत पत्र में वायु प्रदूषण से निपटने के लिए सुझाव भी दिए गए. लेकिन क्या इन सुझावों पर अमल हुआ?

श्वेत पत्र पर क्या हुआ?
दिल्ली सरकार ने श्वेत पत्र पर अमल करते हुए सुप्रीम कोर्ट के सामने एक एक्शन प्लान पेश किया. अदालत ने निर्णय लेने और अपने आदेशों को लागू करने में तकनीकी सहायता और सलाह की जरूरत को पहचानते हुए पर्यावरण और वन मंत्रालय को दिल्ली के लिए एक प्राधिकरण स्थापित करने के लिए कहा. नतीजतन 1998 में दिल्ली एनसीआर के पर्यावरण प्रदूषण नियंत्रण प्राधिकरण (EPCA) का निर्माण हुआ.

ईपीसीए ने उस साल जून में दो-वर्षीय एक्शन प्लान वाली अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की. सुप्रीम कोर्ट ने बाद में दिल्ली परिवहन निगम (DTC) के बस बेड़े, ऑटो और टैक्सियों को कंप्रेस्ड नैचुरल गैस (CNG) में बदलने का आदेश दिया. और 1990 से पहले के सभी ऑटो को धीरे-धीरे सड़कों से उतारने का भी फैसला किया गया. 

फिर 1990 के दशक के अंत और 2000 के दशक की शुरुआत के बीच कई अन्य उपाय अपनाए गए. जैसे सीसा युक्त पेट्रोल को पूरी तरह से हटा दिया गया. 15 और 17 साल पुराने वाणिज्यिक वाहनों को हटाया गया और दो-स्ट्रोक इंजन वाले ऑटो रिक्शा की संख्या पर 55,000 की सीमा लागू कर दी गई. सबसे महत्वपूर्ण, दिल्ली के भीतर कोयले से चलने वाले पावर प्लांट्स को बाद में गैस से चलने वाले पावर प्लांट्स से बदल दिया गया. 

लेकिन... छूट गए ये उपाय
साल 1997 में ही शहर की प्रदूषण नियंत्रण समिति ने निष्कर्ष निकाला था कि 2001 तक बढ़ती मांग को ध्यान में रखते हुए दिल्ली को 15,000 से ज्यादा बसों की जरूरत है. लेकिन यह जरूरत कभी भी पूरी नहीं हुई. डीटीसी की बसों को पदलने के बावजूद कभी भी शहर को पर्याप्त बसें नहीं मिलीं. साल 1997 में दिल्ली में डीटीसी की 3,000 बसें चलती थीं. दिल्ली सांख्यिकी 2016 की रिपोर्ट के अनुसार, 2015-16 में यह संख्या बढ़कर 3,817 ही हो सकी. 

27 साल पहले यह पता लगा लिया गया था कि परिवहन राजधानी के प्रदूषण का सबसे बड़ा कारण है. लेकिन पब्लिक ट्रांसपोर्ट की संख्या बढ़ाकर इस कारण को कम करने की कोशिश नहीं की गई है. सरकार भले ही सर्दियां आते ही ग्रेप (GRAP) जैसी नीतियां लागू करे, लेकिन अगर पूरे साल नियोजित तरीके से प्रदूषण से नहीं लड़ा जाएगा तो इस समस्या को मात देना बेहद मुश्किल साबित होगा.

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