भारत के बिल्कुल बीचोंबीच में जो जंगल दिखाई देते हैं इन्हें हसदेव अरण्य (Hasdeo Forest) कहा जाता है. ये जंगल सैकड़ों वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है.. जहां दुर्लभ पौधों और हजारों आदिवासी समुदायों का घर और लुप्त हो रही प्रजातिया हैं, जिनका जीवन इस जंगल पर आधारित है. हसदेव अरण्य उत्तर छत्तीसगढ़ के 3 जिलों में फैला हुआ है. यहां भारत सरकार ने कोयला खदान का प्रस्ताव रखा है. लेकिन यहां रहने वाले आदिवासी जंगल की कटाई का कई सालों से विरोध कर रहे है. राष्ट्रीय स्तर पर आंदोलन हो चुके है. इस आंदोलन के नेता हैं आलोक शुक्ला.
वन और आदिवासी अधिकार कार्यकर्त्ता आलोक शुक्ला (Alok Shukla) को उनके सफल अभियान के लिए आलोक शुक्ला को ग्रीन नोबेल कहा जाने वाला प्रतिष्ठित 2024 गोल्डमैन पर्यावरण पुरस्कार से सम्मानित किया गया है. लेकिन इसकी शुरुआत छोटे स्तर पर की गई थी.
साल 2012 में आलोक ने पहली बार हसदेव अरण्य पर मंडराते खतरे को महसूस किया. अकेले आलोक को इन जंगलों की कीमत का एहसास नहीं था. यहां के आदिवासी भी अपनी जमीनें नहीं देना चाहते थे. फिर आलोक ने जंगल बचाने के उद्देश्य के तहत अलग-अलग समूहों को एकजुट किया और हसदेव अरण्य बचाओ संघर्ष समिति का गठन किया जोकि कार्पोरेट घरानों और सरकारी तंत्र से लड़ सके. उनका मिशन साफ था, वहां के लोगों को उनके कानूनी अधिकारों के बारे में बताना, उनकी आवाज उठाना और उनकी जमीन पर नजर रखने वाले कॉर्पोरेट को वापस भगाना.
उनका उद्देश्य एक ही रहा...हसदेव बचना चाहिए...
आलोक और उसके सहयोगियों ने लगातार 12 सालों तक इसके लिए लड़ाई लड़ी. उन्हें सरकारी नीलामियों, कॉर्पोरेट हितों और यहां तक कि वैश्विक महामारी का भी सामना करना पड़ा. कभी उन्हें डराने की कोशिश की गई तो कभी फर्जी FIR हुई, कभी उनके आंदोलन को 'पेड' करार दिया गया. लेकिन हर हार ने आलोक के संकल्प को और मजबूत किया. उनका उद्देश्य एक ही रहा...हसदेव बचना चाहिए.
संघर्ष आज भी जारी है
वे अपनी इस लड़ाई में अब तक 21 कोयला ब्लॉक को रद्द करा चुके हैं. उनका संघर्ष ही था कि 2000 वर्ग किलोमीटर का एरिया, जिसमें 70 से ज्यादा कोल ब्लॉक आते थे, सुरक्षित किया गया. आलोक का संघर्ष अभी भी जारी है. आलोक शुक्ला की कहानी विपरीत परिस्थितियों में एकजुट समुदायों के लचीलेपन का प्रतीक है. उनके नेतृत्व ने न केवल कई एकड़ कीमती जंगल बचाए बल्कि दुनिया भर में पर्यावरण न्याय आंदोलनों के लिए आशा की किरण भी जगाई. आलोक कहते हैं, आदिवासी सदियों से इन जंगलों में रहते आ रहे हैं. वे इस जंगल के अलावा कुछ नहीं जानते. ये जंगल उनकी पहचान हैं. इसलिए हमें उन्हें इससे दूर नहीं करना चाहिए.