असंभव: उत्तराखंड के पहाड़ों की बंजर जमीं पर बुजुर्ग दंपत्ति ने बनाया मानव निर्मित घना जंगल, बच्चों की तरह करते हैं पौधों की देखभाल

78 वर्षीय नारायणसिंह मेहरा और 70 वर्षीय नंदादेवी ने चकोरी के पहाड़ों पर एक पूरा मानव निर्मित जंगल खड़ा कर दिया है. नंदादेवी बताती हैं कि शुरुआत में उन्हें मुश्किलें बहुत आई. कभी पौधे मार जाते तो कभी जानवर खा जाते, पर उन्होंने खुद से पौधों का ध्यान रखा.

बुजुर्ग दंपत्ति
तेजश्री पुरंदरे
  • चाकोड़ी/ उत्तराखंड,
  • 19 अगस्त 2022,
  • अपडेटेड 11:19 PM IST
  • शुरुआत में मुश्किलें बहुत आईं.
  • नारायण सिंह राइटरमेंट के पूर्व होरिकल्चर विभाग में काम करते थे.

यदि इंसान एक बार मन में ठान ले तो वह असंभव जैसी चीज़ को भी बड़े ही आसानी से पूरा कर लेता है. और कुछ ऐसा ही संभव का काम कर दिखाया है उत्तराखंड के चकोड़ी में रहने वाले बुजुर्ग दंपत्ति ने. 78 वर्षीय नारायणसिंह मेहरा और 70 वर्षीय नंदादेवी ने चकोरी के पहाड़ों पर एक पूरा मानव निर्मित जंगल खड़ा कर दिया है. आपको जानकर आश्चर्य होगा कि जिस पहाड़ी पर इन्होंने जंगल बनाया है वह पहले एक बंजर जमीन के अलावा और कुछ भी नही थी. लेकिन आज यहां पर हरा भरा घना जंगल है.

दरसल, नारायणसिंह मेहरा और नंदा देवी ने इस काम की जरूर आज से पच्चीस साल पहले यानि कि सन 1996. में की थी. नंदादेवी बताती हैं कि उन्हें शुरू से ही गांव में रहने का शौक रहा है. इसलिए उन्होंने अपनी पति से ज़िद की कि वे चकोड़ी के पहाड़ों पर जंगलों के बीच ही रहना चाहती हैं. बस उसके बाद से दोनों ने चकोड़ी की पहाड़ियों पर रहने का निर्णय किया. 

लेकिन साल 1996 में जब वे आए थे तब सिर्फ खुला मैदान और बनकर ज़मीन के अलावा कुछ भी नहीं था. फिर एक दिन उनके पति नारायणसिंह को ख्याल आया कि पहाड़ों के बीच असली वजह पर्यावरण है लेकिन पेड़, पौधे और जंगल जैसा तो कुछ है नही. बस फिर क्या था, उन्होंने उसी दिन एक पेड़ लगाया. एक वो दिन था और एक आज का दिन है, जहां आज हजारों पेड़ लगाकर एक जंगल खड़ा कर दिया है.

Narayan Singh and Nandi Devi in forest

नारायण सिंह राइटरमेंट के पूर्व होरिकल्चर विभाग में काम करते थे. इसलिए उन्हें ज्यादातर पौधों की परख थी. उसी को ध्यान ने रखते हुए उन्होंने जंगल बनाने की शुरुआत की. चूंकि इलाका पहाड़ी था इसलिए शुरुआती दौर में ज़मीन की खुदाई में बड़ी मुश्किलें आई, लेकिन दोनों ने जंगल बनाने का ठान ही ली थी इसलिए वे रुके नहीं. अपनी समझ और सूझ बूझ से नंदकिशोर ने ऐसे पौधे लगाए जो छाया भी दे और फल भी. वहीं उनकी पत्नी ने ऐसे पौधे और पेड़ लगाए जो औषधीय गुणों से भरपूर भी थे और छायादार भी. इसी मेलजोल के साथ वे काम करते गए और आज एक घना जंगल सांस ले रहा है.

नंदादेवी बताती हैं कि शुरुआत में उन्हें मुश्किलें बहुत आई. कभी पौधे मार जाते तो कभी जानवर खा जाता.पहाड़ों पर पानी के कमी कारण वो कभी मर जाते. पर उन्होंने खुद से पहले पौधों का ध्यान रखा. दोनों के लिए ही पौधे पेड़ परिवार से भी बढ़कर हैं इसलिए वे उनका एक बच्चे की तरह ही ध्यान रखते हैं.

Narayan Singh and nandi Devi

इसके अलावा जब जब उनके आस पास के जंगलों में आग लगी तब तब उन्होंने पूरी कोशिश करके उस आग को बुझाने की कोशिश की. कई बार तो ऐसा भी हुआ कि पेड़ों की आग बुझाने वक्त खुद भी झुलस जाते थे. नंदादेवी एक घटना का स्मरण करते हुए बताती हैं कि घर पर कोई नहीं था और जंगल में आग लग गई. उन्होंने ढेर सारी गीली घास इकट्ठा करके आग को बुझाने की कोशिश की लेकिन वे भूल गई कि उनके खुद के कपड़ों ने आग पकड़ ली थी. नंदी देवी बताती हैं कि उनकी पीठ भी इस घटना के दौरान जल चुकी थी. वहीं नारायण सिंह बताते हैं कि ऐसा उन लोगे साथ एक नहीं बल्कि कई बार हुआ. लेकिन उनका मकसद एक ही था और वो था पेड़ों की रक्षा करना.

 

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