National Shooter Gargi: हौसलों की उड़ान! मेरठ की गार्गी ने साइन लैंग्वेज से सीखी शूटिंग, नेशनल लेवल पर जीता सिल्वर मेडल

National Shooter Gargi: कहते हैं कि कोई अगर मन कुछ चाहे तो वो उसे जरूर मिलता है. ऐसे ही मेरठ की गार्गी बोल-सुन नहीं सकती है. लेकिन उन्होंने साइन लैंग्वेज से शूटिंग सीखी और अब नेशनल लेवल पर सिल्वर मेडल जीता है.

National Silver Medalist Gargi
मनीष चौरसिया
  • नई दिल्ली,
  • 23 मार्च 2023,
  • अपडेटेड 8:59 PM IST
  • कोच को नहीं आती थी साइन लैंग्वेज
  • कभी रोई, कभी गुस्से में घर चली गई

दिल में जुनून है.. हाथ में एयर पिस्टल है..और दिमाग में निशाना क्लियर है.. नाम है गार्गी चौधरी. मेरठ की रहने वाली हैं गार्गी सुन नहीं सकती, बोल नहीं सकती लेकिन गार्गी आज नेशनल मेडलिस्ट शूटर हैं. गार्गी ने हाल ही में नेशनल गेम्स में सिल्वर मेडल जीता है. लेकिन गार्गी की ये सक्सेस स्टोरी कई स्ट्रगल्स और ट्विस्ट से भरी हुई है.

ये दुनिया दिव्यांगों के लिए इतनी आसान भी नहीं है. कोई दिव्यांग बच्चा स्कूल से लेकर अपने मोहल्ले तक कई संघर्षों से होकर गुजरता है. गार्गी की मां रविता तरार बताती हैं कि हमारे घर में और कोई भी दिव्यांग बच्चा नहीं है. गार्गी हमारी पहली बेटी है, लेकिन उसकी दिव्यांगता की वजह से कई बार परिवार के लोग और समाज के लोग हमें ताना मारते थे या हम पर हंसते थे. लोग पूछते थे कि इसकी शादी कैसे होगी? ये क्या करेगी? खुद गार्गी भी किसी मेहमान के आने पर अपने कमरे में कैद हो जाती थी. वो नॉर्मल लोगों के बीच खुद को एडजस्ट नहीं कर पाती थी. लेकिन अब ताना मारने वाले घर पर गुलदस्ते लेकर आते हैं.

कभी डांस सिखाया तो कभी बैडमिंटन..लेकिन.

गार्गी की मां बताती हैं कि वह शुरू से ही दिव्यांग स्कूल में जाती थी. वे कहती हैं, “12वीं के बाद हम चाहते थे कि वह कोई ऐसी लाइन पकड़ ले जिससे उसका करियर सेट हो जाए. हमने पहले उसे डांस सिखाने की कोशिश की, कुछ महीने उसने डांस की प्रैक्टिस की उसके बाद हमने उसे बैडमिंटन की कोचिंग के लिए भेजा. लेकिन किसी भी जगह से कुछ खास नतीजा नहीं निकल रहा था और गार्गी को भी ज्यादा इंटरेस्ट नहीं आ रहा था. तभी शूटिंग के बारे में किसी ने बताया और हम उसे लेकर दिसंबर 2019 में यहां आ गए. 1 महीने बाद ही गार्गी ने एक स्टेट लेवल चैंपियनशिप के लिए क्वालीफाई कर लिया था. क्वालीफाई गेम्स में उसका खेल देखकर हमें बहुत खुशी हुई और लगा कि हां शूटिंग में गार्गी कुछ अच्छा कर सकती है. जब गार्गी को पहला मेडल आया तो मैं बस रोए जा रही थी.”

कोच को नहीं आती थी साइन लैंग्वेज

गार्गी के इस सफर में गार्गी के माता-पिता के अलावा दूसरा सबसे महत्वपूर्ण रोल उनके कोच राहुल ने अदा किया है. राहुल खुद शूटिंग में नेशनल मेडलिस्ट हैं. राहुल कहते हैं, “गार्गी से पहले उन्होंने खुद कभी किसी से दिव्यांग बच्चे को ट्रेन नहीं किया था. जब गार्गी उनके पास आई तो वह खुद समझ नहीं पा रहे थे कि आखिर बात आगे कैसे बढ़ेगी. लेकिन फिर धीरे-धीरे मैनें थोड़ी साइन लैंग्वेज सीखी और इस तरह मेरे और गार्गी के बीच अच्छी समझ विकसित हो गई इसका नतीजा हम सबके सामने है.”

राहुल आगे बताते हैं कि दिव्यांग बच्चों के साथ ट्रेनिंग बहुत आसान नहीं होती क्योंकि उन्हें एक बात कई बार बतानी पड़ती है. राहुल कहते हैं, “मैं गार्गी को लगभग 4 साल से ट्रेनिंग दे रहा हूं गार्गी को ट्रेन करने के बाद मेरे अंदर भी हिम्मत आई और अब मैंने भी गार्गी जैसे और दिव्यांग बच्चों को ट्रेनिंग देनी शुरू की है, मतलब यह मेरे लिए भी एक नई शुरुआत है.”

कभी रोई, कभी गुस्से में घर चली गई

कोच राहुल बताते हैं कि गार्गी बहुत मेहनती है मैंने उसका पूरा शेड्यूल बना रखा है. सुबह 5:00 से उठकर रात तक की ट्रेनिंग का तारा ख्याल गार्गी बहुत अच्छे से रखती है. गेम की शुरुआत में उसे कई बार डांट भी पड़ी, वो रोई भी, गुस्से से चली भी गई लेकिन अगले दिन जब लौटी तो और ज्यादा हिम्मत के साथ. अब गार्गी की नजर ओलंपिक मेडल पर है. गार्गी ने अपनी मेहनत और काबिलियत से ये साबित कर दिया है कि नमुमकिन कुछ भी नहीं. 


 

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