जब भी बात पेड़ा की होती है तो सबसे पहले जुबान पर मथुरा-वृंदावन या बनारस का नाम आता है. क्योंकि इन जगहों का पेड़ा देश-दुनिया में मशहूर है. वैसे तो उत्तर भारत के लोगों को भले ही यह लगता हो कि पेड़ा सिर्फ उन्हीं की मिल्कियत है लेकिन ऐसा है नहीं. क्योंकि दक्षिण भारत के पास भी इस मिठाई का अपना एक वर्जन है. जी हां, हम बात कर रहे हैं कर्नाटक के मशहूर धारवाड़ पेड़े की.
आज कर्नाटक क्या, दूसरे शहरों में भी धारवाड़ पेड़ा बेचने वाले बहुत से आउटलेट्स आपको मिल जाएंगे. लेकिन एक जमाना था जब यह मिठाई धारवाड़ (कर्नाटक राज्य का एक शहर) में लाइन बाजार नामक क्षेत्र में सिर्फ एक दुकान में बेची जाती थी. और लोग घंटो कतार में खड़े होकर अपनी बारी आने पर इसे खरीदते थे. आज दस्तरखान में हम आपको बता रहे हैं इसी खास धारवाड़ पेड़े की कहानी, जिसे अब GI Tag भी मिल चुका है.
धारवाड़ पेड़े का यूपी से है कनेक्शन
धारवाड़ पेड़ा की उत्पत्ति के बारे में कई किस्से प्रचलित हैं. ऐसा ही एक किस्सा बताता है कि धारवाड़ के पास एक गांव हेब्बल्ली के जहांगीरदार (जमींदार) 1895 में वाराणसी (उत्तर प्रदेश राज्य का एक शहर) से अयोध्या प्रसाद 'मिश्रा' घर वापस लाए थे. जहांगीरदार घोड़ों की खरीदारी के लिए अक्सर उत्तर प्रदेश आते थे. और इस तरह से घोड़ों के साथ पेड़े भी धारवाड़ पहुंचे.
लेकिन कुछ लोगों का मानना है कि धारवाड़ पेड़ा मथुरा के प्रसिद्ध पेड़े का एक तात्कालिक संस्करण है, लेकिन इसका अपना खास रंग और अलग स्वाद है. हालांकि, एक किस्सा ऐसा है जिस पर ज्यादातर लोग यकीन करते हैं. दरअसल, 18वीं सदी के अंत में उत्तर प्रदेश के उन्नाव में रहने वाले कुछ परिवार राज्य में में तेजी से फैल रही घातक प्लेग से बचने के लिए दक्षिण की ओर धारवाड़, कर्नाटक में चले गए. उन्हीं परिवारों में एक था ठाकुर परिवार.
बॉम्बे के गवर्नर ने दी मान्यता
श्री राम रतन सिंह ठाकुर अपने परिवार में पहली पीढ़ी के हलवाई माने जाते थे. कुछ धन के साथ धारवाड़ में प्रवास करने के बाद उन्होंने 'पेड़ा' तैयार करना और धारवाड़ में बेचना शुरू कर दिया। शुरुआत में, उन्होंने एक छोटा सा काम शुरू किया था लेकिन ऐसा कहा जाता है कि उनकी लोकप्रियता तब बढ़ गई जब 1913 में बॉम्बे के गवर्नर ने धारवाड़ का दौरा किया और उन्हें ठाकुरों का बनाया गया धारवाड़ पेड़ा परोसा गया.
इसके स्वाद से मंत्रमुग्ध होकर, राज्यपाल ने धारवाड़ पेड़ा को आधिकारिक मान्यता देने के लिए एक प्रमाण पत्र जारी किया. कुछ ही समय में, धारवाड़ पेढ़ा इतना लोकप्रिय हो गया कि धारवाड़ के स्थानीय लोग इसे उसके नाम और "लाइन बाज़ार पेड़ा' (सड़क का नाम जिस पर दुकान स्थित है) के रूप में पहचानने लगे.
उत्तर भारत के पेड़े से थोड़ा अलग स्वाद
100 साल से भी ज्यादा पुराना धारवाड़ पेड़ा बेहतरीन खोया, शुद्ध घी और चीनी से तैयार किया जाता है. खोया अपने अनूठे स्वाद के लिए धारवाड़ के स्थानीय क्षेत्रों से खरीदे गए दूध का उपयोग करके बनाया जाता है. दूध और चीनी मुख्य सामग्री हैं जिन्हें आग पर तब तक पकाया जाता है जब तक कि रंग भूरा न हो जाए. अंतिम उत्पाद जिसे तैयार करने में तीन घंटे लगते हैं, उसे सफेद चीनी पाउडर में लपेटा जाता है और थोड़ी मात्रा में परोसा जाता है.
1913 से श्री राम रतन सिंह ठाकुर के वंशज इसकी लोकप्रियता और अथक प्रयासों में अपना योगदान देते रहे हैं. वर्तमान में, (स्वर्गीय) श्री राम रतन सिंह ठाकुर की पांचवीं पीढ़ी, श्री दुर्गा सिंह ठाकुर, धारवाड़ पेड़ा बनाने की समृद्ध और अनूठी पारिवारिक परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं.
मिल चुका है GI Tag
धारवाड़ पेढ़ा की समृद्ध ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के कारण, ठाकुर परिवार के धारवाड़ पेड़ा मैन्युफैक्चरर्स वेलफेयर ट्रस्ट ने अपने हितों की रक्षा करने और धारवाड़ पेड़ा के प्रचलन में प्रामाणिकता सुनिश्चित करने के लिए इसके GI Tag के लिए अप्लाई किया. लंबे इतिहास वाले स्वादिष्ट धारवाड़ पेढ़ा को साल 2007 में मिल्क प्रोडक्ट्स के तहत क्लास 29 के अंडर भौगोलिक संकेत रजिस्ट्री (Geographical Indications Registry) द्वारा भौगोलिक संकेत टैग (Geographical Indication Tag) से सम्मानित किया गया था, भौगोलिक संकेत टैग धारवाड़ जिले के भौगोलिक क्षेत्र के लिए प्रदान किया गया था. आज यह दुनियाभर में मशहूर है.