भारत में ऐसी बहुत सी डिशेज हैं जो कभी भी आउट ऑफ सीजन नहीं होती हैं और इनमें आइसक्रीम टॉप पर है. जी हां, गर्मी, बारिश या सर्दी... हर मौसम में लोग आइसक्रीम का लुत्फ उठाना पसंद करते हैं. वैसे तो आज सैकड़ों फ्लेवर्स में आइसक्रीम मिलती है लेकिन आइसक्रीम की एक वैरायटी ऐसी है जिसे हम बचपन से खाते आ रहे हैं लेकिन इससे मन ही नहीं भरता. और यह है फालूदा आइसक्रीम.
वैसे तो फालूदा एक तरह का शरबत है जिसे गुलाब के शरबत में ठंडी सेवईं, दूध और सब्जा डालकर बनाया जाता है. और इसके ऊपर थोड़ी-सी आइसक्रीम रखी जाती है. दूसरा वर्जन है कुल्फी या आइसक्रीम फालूदा, जिसमें ठंडी सेवईं के ऊपर कूल्फी रखते हैं और इसके ऊपर ड्राईफ्रूट्स डालकर परोसते है. अब वर्जन कोई भी हो, भारत के लोग बस फालूदा के दीवाने हैं. लेकिन क्या आपको पता है कि हमारे बचपन की यह सदाबहार डिश मूलतौर पर भारतीय नहीं है.
जी हां, आज दस्तरखान में हम आपको बता रहे हैं कहानी फालूदा की. सबसे पहले जानेंगे कि फालूदा कैसे बना और कहां पर? और फिर यह भारत कैसे पहुंचा? आपको शायद पता न हो लेकिन फालूदा को ईजाद करने में दो और देशों का योगदान है.
चीन की फ्रोज़न तकनीक से ईरान में बना फालूदेह...
फालूदा ईजाद करने का श्रेय जाता है ईरान (तत्कालीन फारस) को. 400 ईसापूर्व ईरान में फालूदा बनाया गया और इसे 'फालूदेह' के नाम से जाना गया. ईरान से ही यह डिश भारत पहुंची. अब सवाल है कि क्या ईरान के पास चीजों को ठंडा करने की तकनीक थी? दरअसल, तकनीक ईरान नहीं चीन के पास थी. ईरान ने तो चीन से तकनीक लेकर एक्सपेरिमेंट किए और बना दिया फालूदेह, जो आज अलग-अलग देशों में अलग-अलग नामों और तरीकों से खाया जाता है. आपको बता दें कि फालूदा दुनिया के सबसे पुराने मीठे व्यंजनों में से एक है.
बताया जाता है कि 4000 साल पहले भले ही फ्रिज़ जैसे डिवाइस नहीं थे लेकिन चीन में फ्रोज़न डिशेज का लुत्फ तब से ही लिया जा रहा है. इसके पीछे का कारण था चीनियों का अनोखा जुगाड़. चीन के लोगों ने देखा कि बर्फ में अगर पोटेशियम नाइट्रेट मिलाया जाए तो यह एकदम जम जाती है. इतना ही नहीं, अगर इस मिश्रण को किसी बर्तन के बाहर लगा दिया जाए तो उसमें मौजूद व्यंजन भी जम जाते हैं. बस यहीं से चीनियों ने फ्रोज़न डिशेज बनाना शुरू कर दिया. व्यापारियों के जरिए चीन की यह तकनीक ईरान पहुंची.
ईरान के लोगों ने इसके साथ अलग-अलग एक्सपेरिमेंट किए और नए-नए व्ंयजन बनाने की कोशिश की. लगभग 400 ईसा पूर्व उन्होंने गुलाबजल और सेवइयों को मिलाकर नई चीज ईजाद की. उन्होंने खीर (सेवईं) और शरबत का मिश्रण बनाया, जो फालूदेह के रूप में अस्तित्व में आया. ईरान का फालूदेह ही कुछ सैकड़ों साल बाद भारत पहुंचा और कुछ स्थानीय बदलावों के बाद बन गया फालूदा.
मुगलों ने दिया भारत को फालूदा
फालूदेह ईरान में 400 ईसापूर्व ही बन गया था लेकिन भारत यह पहुंचा 16वीं सदी में. दरअसल, मुगल जब भारत आए तो बाबर ने देखा कि भारत में बहुत गर्मी है. यहां न तो बर्फ थी, न ठंडा पानी और न ही उनके पसंद के फल. इसलिए बाबर ने भारत में अंगूर, तरबूज, आडु और खुबानी जैसे फलों की खेती करवानी शुरू की. सातवीं सदी की हर्षचरिता के मुताबिक, ठंडे पानी के लिए पानी के बर्तनों को गीली मिट्टी से ढका जाए तो पानी ठंडा रहता है.
लेकिन बाबर को कुछ और चाहिए था. इसलिए मुगल हिमालय पहुंचे और बताया जाता है कि कसौली के पास चूड़ी-चांदनी की धार यानी चूरधार नामक पहाड़ से बर्फ लाई जाने लगी. साल 1590 में लिखी आइने-अकबरी के मुताबिक, मुगलों ने कश्तियों से बर्फ लाना शुरू किया. बर्फ से वे शरबत बनाने लगे. लेकिन जब जहांगीर ईरान की एक रियासत को जीतने के लिए ईरान पहुंचा तो वहां की संस्कृति, शाही खान-पान ने उसे अपना कायल बना लिया.
जहांगीर को ईरानी खाने में फालूदा सबसे ज्यादा पसंद था, यह बेहद स्वादिष्ट और दिखने में भी अलग था. इतिहास की मानें तो एक बात तो पक्की है कि फालूदा एक शाही मिठाई रही है. जहांगीर के काल में मुगल रसोई में फालूदा बनने लगा और आज तक इसका चार्म बना हुआ है.
दूसरे देशों में भी मशहूर है फालूदा
दिलचस्प यह है कि फालूदा का सफर ईरान और भारत तक ही सीमित नहीं है. इस डिश को दूसरे देशों में अलग-अलग नाम, रंग और तरीके से खाया जाता है. आज फालूदा के अलग-अलग वर्जन भारत सहित कई एशियाई देशों में देखे जा सकते हैं. फिलीपींस में, फालूदा को हेलो-हेलो नामक पारंपरिक मीठे व्यंजन के साथ खाया जाता है. यह डिश दूध, नारियल और आइसक्रीम से तैयार की जाती है. मलेशिया और सिंगापुर में फालूदा को सेंडोल कहा जाता है जिसे जेली, लाल बीन्स, फल, मूंगफली, आइसक्रीम और स्वीट कॉर्न के साथ खाया जाता है. मॉरीशस में इसे अलौदा कहा जाता है और इसे बबल टी, स्ट्रॉबेरी और वेनिला सिरप के साथ खाया जाता है.