भारत में खाने के बाद मीठा खाना कोई शौक नहीं बल्कि परंपरा है. और मीठे अगर रसीला रसगुल्ला मिल जाए तो फिर क्या कहने? देश में शायद ही कोई जगह हो जहां रसगुल्ले न खाए जाते हों. क्योंकि रसगुल्ले कोई आम मिठाई नहीं है बल्कि बहुत सी पूजा, उत्सव और शादी-ब्याह में यह सबसे खास मिठाईयों में से एक होता है. लेकिन क्या आपको पता है कि रसगुल्ला, जिसे आप इतने चाव से खाते हैं वह कभी दो राज्यों के बीच मतभेद का कारण रहा है.
जी हां, रसगुल्ले की उत्पत्ति को लेकर हमेशा से विवाद रहा है. बहुत से लोगों का मानना है कि रसगुल्ला सबसे पहले ओडिशा में बनाया गया. लेकिन पश्चिम बंगाल के लोग इस बात से इत्तेफाक नहीं रखते हैं क्योंकि उनका दावा है कि बंगाल ने दुनिया को रसगुल्ला दिया है. आज दस्तरखान में हम आपको बता रहे हैं रसगुल्ले की खट्टी-मीठी कहानी.
पूरी के जगन्नाथ मंदिर से जुड़े हैं तार
रसगुल्ला का सबसे पहला प्रमाण महाकाव्य दांडी रामायण में पाया जा सकता है, जिसकी रचना प्रसिद्ध ओडिया कवि बलराम दास ने की थी. इसमें उन्होंने उल्लेख किया था कि नीलाद्रि बिजे नामक अनुष्ठान में भगवान जगन्नाथ ने मां लक्ष्मी को रसगुल्ला अर्पित किया था. ओडिशा के इतिहासकारों के अनुसार, रसगुल्ला की उत्पत्ति पुरी में खीर मोहन के रूप में हुई, जो बाद में पहला रसगुल्ला बन गया. इसे पारंपरिक रूप से पुरी के जगन्नाथ मंदिर में देवी लक्ष्मी को भोग के रूप में चढ़ाया जाता है.
वहीं एक स्थानीय किंवदंती के अनुसार, मां लक्ष्मी नाराज हो जाती हैं क्योंकि उनके पति भगवान जगन्नाथ उनकी सहमति के बिना 9 दिनों के प्रवास (रथ यात्रा) पर चले जाते हैं. इसलिए, वह मंदिर के द्वारों में से एक, जय विजय द्वार को बंद कर देती है और भगवान के काफिले को मंदिर के गर्भगृह में दोबारा प्रवेश करने से रोक देती है. उन्हें खुश करने के लिए, जगन्नाथ भगवान उन्हें रसगुल्ला देते हैं. यह अनुष्ठान, जिसे बचनिका के नाम से जाना जाता है, "नीलाद्रि बिज" (या "भगवान का आगमन") अनुष्ठान का हिस्सा है, जो रथ यात्रा के बाद देवताओं की मंदिर में वापसी का प्रतीक है.
लक्ष्मीधर पूजापंडा जैसे जगन्नाथ मंदिर के विद्वान और जगबंधु पाधी जैसे शोधकर्ताओं का कहना है कि यह परंपरा 12वीं शताब्दी से अस्तित्व में है, जब वर्तमान मंदिर संरचना पहली बार बनाई गई थी. पूजापंडा का कहना है कि नीलाद्रि बीजे परंपरा का उल्लेख नीलाद्रि महोदय में किया गया है, जो शरत चंद्र महापात्र ने 18वीं शताब्दी में लिखा है. महापात्रा के अनुसार, कई मंदिर ग्रंथ, जो 300 साल से अधिक पुराने हैं, पुरी में रसगुल्ला चढ़ाने की रस्म का प्रमाण देते हैं.
क्या कहती हैं ओडिया लोककथाएं
लोककथाओं के अनुसार, पहाला (ओडिशा की राजधानी भुवनेश्वर के बाहरी इलाके में एक गांव) में बड़ी संख्या में गायें थीं. गांव में बहुत ज्यादा दूध का उत्पादन होता था और जब वह खराब हो जाता था तो गांव वाले उसे फेंक देते थे. जब जगन्नाथ मंदिर के एक पुजारी ने यह देखा, तो उन्होंने गांव के लोगों को रसगुल्ला बनाने के साथ-साथ दही जमाने की कला सिखाई. इस प्रकार पहला इस क्षेत्र में छेना आधारित मिठाइयों का सबसे बड़ा बाजार बन गया.
जगन्नाथ पंथ और परंपराओं पर एक ओडिया रिसर्च स्कॉलर असित मोहंती के अनुसार, 15वीं शताब्दी के बलराम दास के ग्रंथ जगमोहन रामायण में मिठाई का उल्लेख "रसगोला" के रूप में किया गया है. पाठ में ओडिशा में पाई जाने वाली अन्य मिठाइयों के साथ-साथ रसगुल्ला का भी उल्लेख है. इसमें पनीर से बनी कई अन्य मिठाइयों जैसे छेनापुरी, छेनालाडु और रसबाली का भी जिक्र है. भूपति के एक अन्य प्राचीन ग्रंथ प्रेमपंचामृत में भी पनीर (छेना) का उल्लेख है. यह तर्क भी दिया जाता है कि ओडिशा में पुर्तगालियों के आने से पहले पनीर बनाने की प्रक्रिया अच्छी तरह से ज्ञात थी.
बंगाल में रसगुल्ला के इन्वेंशन का दावा
ऐसा माना जाता है कि स्पंजी सफेद रसगुल्ला को वर्तमान पश्चिम बंगाल में 1868 में कोलकाता स्थित नबीन चंद्र दास नामक हलवाई ने बनाया था. दास ने सुतानुटी (वर्तमान बागबाजार) में स्थित अपनी मिठाई की दुकान रसगुल्ला बनाना शुरू किया. उनके वंशजों का दावा है कि उनकी रेसिपी ऑरिजिनल थी. लेकिन एक और दावा यह है कि नबीन ने ओडिशा के रसगुल्ले में ही परिवर्तन किए ताकि यह लंबे समय तक चल सके और जल्दी खराब न हो.
दास का आविष्कार बंगालियों के बीच एक बड़ी सफलता बन गया. किंवदंती है कि बागबाजार के प्रसिद्ध चिकित्सक पशुपति भट्टाचार्य जब भी रवींद्रनाथ टैगोर से मिलने जाते थे तो दास का रसगुल्ला ले जाते थे. एक बार, जब भट्टाचार्य पहुंचे तो दुकान का सामान ख़त्म हो गया था. नतीजा यह हुआ कि उन्हें पास की दुकान से मिठाई खरीदनी पड़ी. लेकिन रसगुल्ले को खाते ही टैगोर को तुरंत फर्क महसूस हुआ और उन्होंने डॉक्टर से दास की दुकान से ही रसगुल्ला लाने को कहा.
वहीं, एक कहानी यह भी है कि कोलकाता में रहने वाले एक अमीर गैर-बंगाली व्यापारी भगवानदास बागला ने मिठाई के साथ पूरे भारत की यात्रा की, जिसके परिणामस्वरूप नई क्षेत्रीय विविधताएं सामने आईं. यह राजस्थान में रसबरी, यूपी में राजभोग, बनारस में रसमलाई और यहां तक कि ईस्ट इंडिया कंपनी के कार्यालयों में आधिकारिक 'चीज डंपलिंग्स' बन गया। 1930 में, केसी दास ने रसगुल्ला को डिब्बाबंद कर विभिन्न देशों में निर्यात किया गया और दुनिया भर में लोकप्रियता हासिल की.
क्या ओडिशा से बंगाल पहुंचा रसगुल्ला
बंगाली पाक इतिहासकार पृथा सेन के अनुसार, 18वीं सदी के मध्य में, बंगाली घरों में कई ओडिया रसोइये कार्यरत थे, जिन्होंने यकीनन कई अन्य ओडि व्यंजनों के साथ रसगुल्ला भी पेश किया. लेकिन इसे साबित करने के लिए कोई ठोस दावा नहीं किया गया है. एक अन्य सिद्धांत के अनुसार, यह संभव है कि पुरी में आने वाले बंगाली आगंतुक उन्नीसवीं शताब्दी में रसगुल्ला की विधि वापस बंगाल ले गए होंगे.
इस दावे का कई बंगाली इतिहासकारों ने खंडन किया है. खाद्य इतिहासकार के. टी. अचया और चित्रा बनर्जी के अनुसार, 17वीं शताब्दी से पहले भारत में पनीर (छेना सहित) का कोई संदर्भ नहीं है. पुर्तगाली प्रभाव के कारण पनीर आधारित मिठाइयों की शुरुआत होने से पहले, दूध आधारित मिठाइयां मुख्य रूप से खोए से बनी होती थीं. इसलिए, 12वीं शताब्दी में जगन्नाथ मंदिर में पनीर आधारित व्यंजन पेश किए जाने की संभावना बहुत कम है.
अंग्रेज भी थे रसगुल्ले के दीवाने
भारत में ब्रिटिश शासकों के रसगुल्ले के प्रति गहरे लगाव के बारे में एक दिलचस्प किस्सा है. विलियम हेरोल्ड एक प्रसिद्ध ब्रिटिश रसोइया था जिसे युद्ध के दौरान मदद के लिए भारत भेजा गया था. लेकिन उनके व्यंजन इतने स्वादिष्ट थे कि एक बड़े अधिकारी ने उन्हें अपने निजी रसोइया के रूप में पदोन्नत कर दिया. एक दिन, अधिकारी ने विलियम को रसगुल्ला की रेसिपी लाने को कहा क्योंकि उन्हें यह मिठाई बहुत पसंद थी.
उस समय, रेसिपी लिखने का काम बहुत कम होता था. इसलिए विलियम खुद लोगों के घर-घर जाकर रेसिपी पूछने लगे. लेकिन वे जिस भी घर में गए, वहां उन्हें अलग- अलग तकनीक मिली. इससे विलियम को कभी भई रसगुल्ले की रेसिपी नहीं मिली. लेकिन रसगुल्ला उन्हें इतना प्यारा हुआ कि वह 10 बक्सों के साथ देश से गए.
मिला चुका है GI Tag
साल 2015 में, पश्चिम बंगाल ने "बांग्लार रसगुल्ला" (बंगाली रसगुल्ला) के लिए भौगोलिक संकेत (GI Tag) के लिए आवेदन किया था. सरकार ने स्पष्ट किया कि ओडिशा के साथ इस पर कोई विवाद नहीं है, और उनका आवेदन केवल एक विशिष्ट वर्जन के लिए था जो ओडिशा के वर्जन से "रंग, बनावट, स्वाद, रस सामग्री और निर्माण की विधि दोनों" में अलग है. और यही बात ओडिशा रसगुल्ला के लिए भी लागू होती है, जो बंगाली रसगुल्ला से अलग है. 14 नवंबर 2017 को, भारत की जीआई रजिस्ट्री ने पश्चिम बंगाल को बांग्लार रसगुल्ला के लिए जीआई का दर्जा दिया.
चेन्नई में जीआई रजिस्ट्रार कार्यालय ने बाद में विशेष रूप से स्पष्ट किया कि पश्चिम बंगाल को केवल रसगुल्ला के बंगाली संस्करण ("बांग्लार रसगुल्ला") के लिए जीआई दर्जा दिया गया था, मिठाई की उत्पत्ति के लिए नहीं. इसके बाद, 2018 में ओडिशा ने चेन्नई जीआई रजिस्ट्री में जीआई दर्जे के लिए आवेदन किया था. 29 जुलाई 2019 को भारत की जीआई रजिस्ट्री ने ओडिशा को ओडिशा रसगुल्ला के लिए जीआई का दर्जा दिया.