बुजुर्गों की देखभाल करने के लिए छोड़ी नर्स की नौकरी, आज बूढ़े दादा-दादियों के लिए शबाना बन चुकी हैं आशा की किरण

शबाना दो बच्चों की मां हैं. पहले लॉकडाउन में उन्होंने अपनी नौकरी छोड़ी दी थी और बुजुर्गों के पास जाना शुरू किया. शबाना कहती हैं, “मैं हर दिन कम से कम 5 घंटे उनके साथ बिताती थी. उनकी कोई बड़ी-बड़ी ख्वाहिशें नहीं हैं. वे केवल इतना चाहते हैं कि कोई उन्हें सुने, उन्हें गले से लगाए. बस, वे और कुछ नहीं चाहते.मैं बहुत खुशकिस्मत हूं कि मैं उन्हें ये दे पा रही हूं.”

बुजुर्गों की देखभाल करने के लिए छोड़ी नर्स की नौकरी
gnttv.com
  • नई दिल्ली,
  • 02 मार्च 2022,
  • अपडेटेड 5:41 PM IST
  • बुजुर्गों की मदद के लिए हमेशा तैयार रहती हैं शबाना
  • हर महीने बुजुर्गों को 1000-1000 रुपये की किट देती हैं शबाना

73 साल की चक्कियम्मा अपने जर्जर घर के बरामदे में सब्र से बैठी हुई हैं. उनके शरीर का निचला हिस्सा लकवाग्रस्त है. चक्कियम्मा की आंखें बेसब्री से शबाना को खोज रही हैं. जैसे ही शबाना आती हैं वैसे ही बुजुर्ग महिला उसे कसकर गले से लगा लेती हैं. चक्कियम्मा की तरह, जानू और मधुेतन सहित छह दूसरे बुजुर्ग रोजाना शबाना के आने का इंतजार करते हैं. एक समय में शबाना डेंटल डिपार्टमेंट में नर्स के रूप में काम करती थीं. लेकिन अब तिरुरंगादी की आत्मा बन चुकी हैं.  

बुजुर्गों के लिए रोशनी की किरण हैं शबाना 

पिछले दस सालों से, मलप्पुरम-निवासी शबाना कई बुजुर्गों के लिए उनकी हिम्मत बन चुकी हैं. ये ऐसे बुजुर्ग हैं जिन्हें उनके परिवारों ने उनके ही घरों में या सड़कों पर ठोकर खाने के लिए छोड़ दिया है. इसमें कई ऐसी हैं जो अविवाहित हैं, या विधवा हैं. उनके लिए, शबाना वह बेटी है जो उनके पास कभी नहीं थी. हमेशा मदद के लिए तैयार रहने वाली शबाना उनके अंधकार भरे समय में एक रोशनी का काम कर रही हैं. 

लोग नहीं करते हैं बुजुर्गों की देखभाल 

इंडल्ज एक्सप्रेस के हवाले से शबाना कहती हैं, “जब मैं डॉक्टर्स के साथ असिस्टेंट के रूप में काम करती थी तब मैंने महसूस किया कि भले ही बुजुर्गों को दवाइयां और चेकअप टाइम पर मिल जाता हो लेकिन कहीं न कहीं उनकी अच्छे से केयर नहीं हो पाती है. इस उम्र में उन्हें कोई न कोई नहलाने, उनका दुःख सुख सुनने के लिए और उनको कंपनी देने के लिए कोई न कोई होना चाहिए. छोटी-छोटी चीजें भी बड़े-बड़े बदलाव ला सकती हैं.”

बुजुर्ग केवल चाहते हैं कि उन्हें कोई सुने ….  

शबाना दो बच्चों की मां हैं. पहले लॉकडाउन में उन्होंने अपनी नौकरी छोड़ी दी थी और बुजुर्गों के पास जाना शुरू किया. शबाना कहती हैं, “मैं हर दिन कम से कम 5 घंटे उनके साथ बिताती थी. उनकी कोई बड़ी-बड़ी ख्वाहिशें नहीं हैं. वे केवल इतना चाहते हैं कि कोई उन्हें सुने, उन्हें गले से लगाए. बस, वे और कुछ नहीं चाहते.मैं बहुत खुशकिस्मत हूं कि मैं उन्हें  ये दे पा रही हूं.”      

बुजुर्गों की मदद के लिए हमेशा तैयार रहती हैं शबाना 

एक दिन का जिक्र करते हुए शबाना बताती हैं कि एक दिन उन्हें एक जगह से फोन आया, जहां जाकर उन्होंने एक बुजुर्ग महिला को देखा. उनका नीचे का हिस्सा पूरा लकवाग्रस्त था. उनके बेड पर एक छेद बना हुआ था, न उनके आसपास सफाई थी न ही उनकी देखभाल के लिए कोई था. जब शबाना ने उनके घर फोन किया तो कोई नहीं आया. तब शबाना ने ही उनको नहलाया और उनके आसपास की जगह को साफ़ किया. शबाना कहती हैं, “आज इस बात हुए 5 साल बीत गए हैं, वो दादी अभी भी मेरी ही देखभाल में हैं. मैं उनका ख्याल रखती हूं.”

शबाना हर महीने बुजुर्गों को 1000-1000 रुपये की किट देती हैं. इस किट में दवाई से लेकर स्नैक्स और दूसरी जरूरत की चीजें होती हैं. वे कहती हैं, “मुझे बुजुर्गों की मदद करते हुए लगभग 10 साल बीत गए हैं. आज लोग मुझपर भरोसा करते हैं. बुजुर्गों की मदद के लिए कई लोग डोनेशन भी भेजते हैं, जिससे उनकी मदद की जाती है.”

 

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