गांव-गांव जाकर जरूरतमंदों को खाना खिलाती है 'चाची की चलती रसोई,' ताकि कोई भूखा न सोए

सोनभद्र जिले के राजपुर गांव की बिपिन देवी और उनके पति कल्लू यादव की, जो 'चाची की चलती रसोई' के नाम की चलती-फिरती रसोई चलाकर गांवों में भूखे बच्चों को खाना खिलाने की पूरी कोशिश कर रहे हैं.

Chachi ki chalati rasoi (Photo: Youtube screengrab)
gnttv.com
  • नई दिल्ली ,
  • 24 जनवरी 2025,
  • अपडेटेड 8:23 AM IST

उत्तर प्रदेश का सोनभद्र एक आदिवासी जिला है और यहां के कई गांवों में आज भी एक समय का खाना मिलना बड़े भाग्य की बात माना जाता है. लेकिन अब इस जिले की ही एक महिला ने इस भूख और गरीबी के खिलाफ जंग छेड़ी है. हम बात कर रहे हैं, सोनभद्र जिले के राजपुर गांव की बिपिन देवी और उनके पति कल्लू यादव की, जो 'चाची की चलती रसोई' के नाम की चलती-फिरती रसोई चलाकर इन गांवों में भूखे बच्चों को खाना खिलाने की पूरी कोशिश कर रहे हैं. 

कौन हैं बिपिन देवी और कल्लू यादव
बिपिन देवी और उनके पति कल्लू यादव राशन की दुकान चलाते हैं. बिपिन देवी के परिवार में उनके पति कल्लू यादव और उनके दो बेटे नीरज और मोहित हैं. दुकान से ही परिवार के चारों लोगों का खर्च चलता है. वे अपनी कमाई का ज्यादातर हिस्सा गरीब परिवारों, खासकर गांव के बच्चों को खाना खिलाने में खर्च करते हैं, ताकि वे लोग भूखे न सोएं.

बिपिन देवी, जिन्हें प्यार से बच्चे 'चाची' कहते हैं, उनके खाने की गाड़ी को देखकर बच्चे खुशी से झूम उठते हैं. सोनभद्र के आस-पास के गांव के ज्यादातर लोगों का रोजगार खेती और पशुपालन ही है. ऐसे में जब बारिश कम होती है तो कम उपज होती है जिसके चलते परिवार का भरण-पोषण करना मुश्किल हो जाता है. ऐसे में कई बार यहां के लोगों को भूखे ही रहना पड़ता है. 

दो साल से गरीबों को खिला रहीं है खाना
द न्यू इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक, भुखमरी के खिलाफ लड़ रहीं, बिपिन देवी ने यह काम करीब दो साल पहले महामारी के दौरान शुरू किया था, जब गांव के लोग बिना नौकरी और कमाई के कारण भूखे से बेहाल थे तब वे एक वैन में गांव-गांव घूमकर खाना बांटती हैं. खाने में वे दाल, चावल और सब्जी देती हैं.

वे कहती हैं कि इन लोगों को खाना खिला कर उन्हें बेहद खुशी मिलती है. वे कोशिश करती हैं कि कोई भूखा न रहे. महामारी के समय से वे हर महीने कम से कम 20-25 दिन लोगों को खाना खिलाती आ रही हैं. वे हर दिन 80 से 100 लोगों को खाना खिलाती हैं. जिनमें वे ज्यादातर आदिवासी गांवों तिलहर, कोटवा और राजपुर में अपनी रसोई लेकर जाते हैं. 

हर महीने आता है हजारों का खर्चा
बिपिन के बेटे नीरज का कहना है कि परिवार, रसोई, किराने का सामान और डीजल पर लगभग 60,000 रुपये खर्च होते हैं, जो उनकी महीने भर की कमाई का बड़ा हिस्सा है. वे कहते हैं, वो जो भी कमाते हैं, उससे सिर्फ दूसरों और खुद का पेट भर पाते हैं. लेकिन उन्हें खुशी मिलती है कि वे एक नेक काम कर रहे हैं.

(यह रिपोर्ट यामिनी सिंह बघेल ने लिखी है. यामिनी Gnttv.com के साथ बतौर इंटर्न काम कर रही हैं.)

 

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