हाल ही में, सोशल मीडिया पर उप राष्ट्रपति जगदीप धनखड़ का एक वीडियो वायरल हुआ जिसमें वह जाट समुदाय को लेकर एक कहावत कहते नजर आ रहे हैं. दरअसल, राजस्थान से भाजपा के राज्यसभा सांसद घनश्याम तिवारी ने सदन में एक चर्चा के दौरान कहा कि उनके गांव में कहावत है कि 'बिना पढ़ा हुआ यजमान पढ़ा बराबर और पढ़ा हुआ यजमान खुदा बराबर.' इस पर धनखड़ ने उन्हें टोकते हुए कहा कि वह सही बात नहीं कर रहे हैं.
धनखड़ ने सांसद की चुटकी लेते हुए कहा कि तिवारी जी उनका (सभापति का) और रणदीप सुरजेवाला का ख्याल रख रहे हैं क्योंकि वे दोनों जाट समुदाय से आते हैं. सही कहावत है, 'अपनढ़ जाट पढ़े बराबर और पढ़ा हुआ जाट खुदा बराबर.' यह सुनते ही सदन में ठहाके गूंज उठे. तब से यह वीडियो लगाता सोशल मीडिया पर शेयर किया जा रहा है. अब सवाल है कि आखिर इस कहावत का मतलब क्या है और यह कहावत कैसे बनी.
अमीर खुसरो के जमाने का है किस्सा
बताते हैं कि यह घटना सन् 1270-1280 के बीच की है. दिल्ली में बादशाह बलबन (1266–1287) का राज्य था. उनके दरबार में एक अमीर दरबारी था जिसके तीन बेटे थे. उसके पास 19 घोड़े भी थे. मरने से पहले वह वसीयत लिख गया था कि इन घोड़ों का आधा हिस्सा बड़े बेटे को, चौथाई हिस्सा मंझले को और पांचवां हिस्सा सबसे छोटे बेटे को दिया जाए. अमीर आदमी के बेटे उन 19 घोड़ों का इस तरह बंटवारा कर ही नहीं पाए और बादशाह के दरबार में इस समस्या को सुलझाने के लिए अपील की.
बादशाह ने अपने सब दरबारियों से सलाह ली पर उनमें से कोई भी इसे हल नहीं कर सका. उस समय प्रसिद्ध कवि अमीर खुसरो बादशाह के दरबारी कवि थे. खुसरो ने बादशाह के कहने पर जाटों की भाषा को समझाने के लिए एक पुस्तक लिखी, जिसका नाम “खलिक बारी” था. खुसरो से जब सलाह की गई तो उन्होंने कहा कि उन्होंने जाटों के इलाक़े में खूब घूम कर देखा है और पंचायती फैसले भी सुने हैं और सर्वखाप पंचायत का कोई पंच ही इसको हल कर सकता है. नवाब के लोगों ने इंकार किया कि यह फैसला तो हो ही नहीं सकता.
लेकिन अमीर खुसरो के कहने पर बादशाह बलबन ने सर्वखाप पंचायत में अपने एक खास आदमी को चिट्ठी देकर सौरम गांव (जिला- मुज़फ्फरनगर ) भेजा. इसी गांव में शुरू से सर्वखाप पंचायत का मुख्यालय चला आ रहा है और आज भी मौजूद है. चिट्ठी पाकर पंचायत ने प्रधान पंच चौधरी रामसहाय सूबेदार को दिल्ली भेजने का फैसला किया.
चौधरी साहब ने किया अनोखा बंटवारा
रमसहाय सूबेदार अपने घोड़े पर सवार होकर बादशाह के दरबार में दिल्ली पहुंच गये और बादशाह ने अपने सारे दरबारी बाहर के मैदान में इकट्ठे कर लिये. वहीं पर 19 घोड़ों को भी लाइन में बंधवा दिया.
चौधरी रामसहाय ने अपना परिचय देकर कहना शुरू किया- “शायद इतना तो आपको पता ही होगा कि हमारे यहां राजा और प्रजा का संबंध बाप-बेटे का होता है और प्रजा की सम्पत्ति पर राजा का भी हक होता है. इस नाते मैं जो अपना घोड़ा साथ लाया हूं, उस पर भी राजा का हक बनता है. इसलिये मैं यह अपना घोड़ा आपको भेंट करता हूं और इन 19 घोड़ों के साथ मिला देना चाहता हूं, इसके बाद मैं बंटवारे के बारे में अपना फैसला सुनाऊंगा.”
बादशाह बलबन ने इसकी इजाजत दे दी और चौधरी साहब ने अपना घोड़ा उन 19 घोड़ों वाली कतार के आखिर में बांध दिया, इस तरह कुल 20 घोड़े हो गये. अब चौधरी साहब ने उन घोड़ों का बंटवारा इस तरह कर दिया- आधा हिस्सा (20/2 = 10) यानि दस घोड़े उस अमीर आदमी के बड़े बेटे को दे दिए गए. चौथाई हिस्सा (20/4 = 5) यानी पांच घोडे मंझले बेटे को दे दिये. पांचवां हिस्सा (20/5 = 4) यानी चार घोड़े छोटे बेटे को दे दिये. इस प्रकार उन्नीस (10 + 5 + 4 = 19) घोड़ों का बंटवारा हो गया.
बीसवां घोड़ा चौधरी रामसहाय का ही था जो बच गया. बंटवारा करके चौधरी ने सबसे कहा - “मेरा अपना घोड़ा तो बच ही गया है, इजाजत हो तो इसको मैं ले जाऊं?” बादशाह चौधरी साहब के बंटवारे को देखकर दंग रह गए और उनका बहुत सम्मान और तारीफ की. चौधरी रामसहाय अपना घोड़ा लेकर अपने गांव सौरम की तरफ कूच करने ही वाले थे, तभी वहां पर मौजूद कई हजार दर्शक इस पंच के फैसले से गदगद होकर नाचने लगे और कवि अमीर खुसरो ने जोर से कहा, “अनपढ़ जाट पढ़ा जैसा, पढ़ा-लिखा जाट खुदा जैसा.”
तब से यह कहावत हरियाणा, पंजाब, राजस्थान और पश्चिमी उत्तर-प्रदेश सहित दूसरी जगहों पर फैल गई. आपको बता दें कि यह वृत्तांत सर्वखाप पंचायत के अभिलेखागार में मौजूद है.