Battle of Khalra: खालरा युद्ध की वो अनसुनी कहानी, जब देश के जवानों ने दिया था अदम्य साहस का परिचय

यह युद्ध हर लिहाज़ से एक बड़ी भूमिका अदा करता है लेकिन इतिहास के पन्नों में धुंधला नजर आता है. इसे बैटल ऑफ खालरा के नाम से जाना जाता है.

विजय दिवस
तेजश्री पुरंदरे
  • नई दिल्ली,
  • 16 दिसंबर 2022,
  • अपडेटेड 11:53 PM IST
  • कई दिन तक चली लड़ाई 
  • कई मायनों में थी महत्वपूर्ण लड़ाई

1971... इस साल का जिक्र होते ही हमें भारत पाकिस्तान का वो युद्ध याद आ जाता है जहां भारत ने पाकिस्तान को करारी शिकस्त देकर अपने अदम्य साहस का परिचय दिया था. जिसे हम विजय दिवस के रूप में भी मनाते हैं. इसी विजय दिवस से जुड़ी कई वीर गाथाओं को हमने सुना और पढ़ा है लेकिन एक ऐसी साहसीय गाथा, एक ऐसी पराक्रम की कहानी जो कई वर्षों से अनसुनी है, अनकही है... उसें आज हम आपको सुनाने जा रहे हैं.

वैसे देखा जाए तो यह लड़ाई अपने आप में बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि यदि पाकिस्तान की सेना खालरा के रास्ते पुल को पार करते हुए अंदर की ओर आ जाती तो उनके लिए खालरा के जरिए पंजाब पर पकड़ बनाना आसान था. लेकिन 65 इन्फेंट्री ब्रिगेड और 14 JAKRIFLES के जवानों ने ऐसा होने नहीं दिया. देखा जाए तो यह युद्ध हर लिहाज़ से एक बड़ी भूमिका अदा करता है लेकिन इतिहास के पन्नों में धुंधला नजर आता है.

सन् 1971 में जहां एक ओर पूर्वी पाकिस्तान तो दूसरी ओर पश्चिमी पाकिस्तान के साथ युद्ध जिसका एक हिस्सा खालरा की लड़ाई थी. खालरा में भी एक जंग जारी थी जिसे बैटल ऑफ खालरा के नाम से जाना जाता है. बैटल ऑफ खालरा में भारतीय सैनिकों ने पाकिस्तान की हरिके आने की साजिश को नाकाम कर दिया. 

कई दिन तक चली लड़ाई 

यह लड़ाई 3 दिसंबर 1971 से लेकर 17 दिसंबर 1971 तक चली थी. लेकिन इसकी शुरूआत 3 दिसंबर की शाम 6 बजकर 40 मिनिट पर हुई थी. दरअसल पाकिस्तान की सेना खालरा के जरिए भारतीय सीमा की सरहद पार करके हरिके जाने का मन बना चुकी थी. लेकिन 65 इन्फेंट्री ब्रिगेड और 14 JAKRIFLES के जाबाज सैनिकों ने पाकिस्तानी सेना को दूर से ही खदेड दिया. 

सन् 1971 में भारत पाक युद्ध के दौरान भारतीय सेना पश्चिमी सरहदों पर तीन प्रमुख एक्सेस की सुरक्षा के लिए तैनात थी, जिसमें लाहौर अमृतसर, लाहौर खालरा हरिके और लाहौर फिरोजपुर शामिल थे. अमृतसर और फिरोजपुर जहां आबादी वाले इलाके थे वहीं हरिके हेडवर्क्स ब्यास और सतलुज नदी के संगम पर स्थित भौगोलिक एवं सामरिक दोनों दृष्टियों से महत्वपूर्ण क्षेत्र था.

क्या थे उस वक्त के हालात?

हरिके तक जाने के लिए लाहौर बुर्की पट्टी सड़क के रास्ते खालरा के जरिए ही पहुंचा जा सकता था. पाकिस्तान के लिए खालरा को पार करने का मतलब अपर बड़ी दोआबा कैनाल (UBDC) और मारी मेघा ड्रेन पर तैनात भारतीय सेना को परास्त करना. लेकिन इस इलाके में 65 Infantry Brigade के जांबाज सैनिक पूरी तरह तैयार थी. ब्रिगेड का मुख्य डिफेंस मारी मेघा ड्रेन पर और स्क्रीन के तौर पर एक बटालियन मारी मेघा ड्रेन के पश्चिम में UBDC पर तैनात थी. UBDC को पार करने के लिए तीनों पुलों, कलसियां, खालरा और नारली, पर 14 JAKRIFLES बटालियन का एक सेक्शन तैनात था और बटालियन का मुख्य डिफेंस खालरा डिफेंसिव पोजिशन में था.

3 दिसंबर 1971 की रात भारी मात्रा में पाकिस्तान द्वारा हवाई और आर्टिलरी बमबारी इस इलाके में शुरू हो गई थी. आईबी के पास वाले बीएसएफ पोस्ट और गांवों में धमाकों की आवाजें गूंज उठी. गांव वाले सुरक्षित स्थानों की ओर जाने के लिए पूर्व की ओर जाने लगे और उन्हीं की आड़ में हमलावर दुश्मन सेना आगे बढ़ने लगी और शीघ्र ही, UBDC के पुलों के नजदीक पहुंच गई.  पर इस समय तक भारतीय सेना के जांबाज सिपाहियों ने अपने मोर्चे संभाल लिए थे. 03 एवं 4 दिसंबर और 04 एवं पांच दिसंबर की रात दुश्मन ने पुलों पर कब्जा करने के अनेकों प्रयास किए परंतु हर बार उसे मुंह की खानी पड़ी. तैनात टुकड़ियां छोटी थीं परंतु उनके हौसले बुलंद थे.

कई मायनों में थी महत्वपूर्ण लड़ाई

1971 में बैटल ऑफ खालरा में सेना में शामिल रि. कर्नल एच एस बाजवा बताते हैं कि बैटल ऑफ खालरा कई मायनों में एक महत्वपूर्ण लडाई थी. यदि ये लड़ाई नहीं जीतते तो पाकिस्तानी सेना कई गांवों पर बडी ही आसानी से कब्जा कर लेती. लेकिन 65 इन्फेंट्री ब्रिगेड और 14 जाक राइफल्स ने ऐसी लडाई लड़ी कि पाकिस्तानी सेना एक इंच तक आगे नहीं बढ़ पाई. कर्नल एच एस बाजवा बताते हैं कि यह समय अपने आप में काफी कठिन समय था क्योंकि एक तरफ इस्ट पाकिस्तान की लडाई थी तो दूसरी ओर वेस्ट पाकिस्तान में भी तनाव की स्थिति थी. 

इस युद्ध में फ्रंट सेक्शन पर लडने वाले रि कर्नल पी एम सिंह देव बताते हैं कि पाकिस्तान को यदि ना रोकते तो शायद उनकी सेना अमृतसर तक बडे ही आसानी से पहुंच पाती. कर्नल देव कहते हैं, “पाकिस्तान की तरफ से बडी संख्या में फौज आगे की तरफ बढ़ रही थी. तब हमारी बटालियन बने कुछ तीन या चार साल ही हुए थे. ऐसे में यह हमारे जवानों के लिए और भी ज्यादा चुनौतीपूर्ण था. शुरूआत में लगा जैसे कि हमें ही पीछे हटना पडेगा लेकिन पूरी फौज का हौसला चरम पर था और एक एक सैनिक हमारा दस के बराबर था इसलिए पाकिस्तान की सेना आगे नहीं बढ़ पाई.”

6 जवानों ने दिया बलिदान

खालरा के इस युद्ध में इस बटालियन के 06 जवानों ने अपने प्राणों का बलिदान दे दिया और 11 जवान बुरी तरह जख्मी हो गए, परंतु उन्होंने दुश्मन को उसके नापाक इरादों में सफल नहीं होने दिया. खालरा पुल पर तैनात सेक्शन के सेक्शन कमांडर लांस हवलदार रघबीर सिंह को मरणोपरांत उनके अदम्य साहस एवं पराक्रम के लिए वीर चक्र से सम्मानित किया गया एवं तीन अन्य को मेंशन इन डेसपैचेस के सम्मान से अलंकृत किया गया. ये युद्ध और इसकी शौर्य गाथा पिछले 51 वर्षों से आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा का स्रोत रही है एवं अनंत काल तक वीरता की एक मिसाल रहेगी. 
 

 

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