जहां मातम में भी उत्सव की तलाश पूरी होती है और शव को शिव समान पूजा जाता है, वह जगह है दुनिया की सबसे प्राचीन नगरी काशी. इसी तरह के अनोखे विरोधाभास का मिलन वर्ष में एक दिन काशी के महाश्मशान मणिकर्णिका घाट पर चैत्र नवरात्र की सप्तमी तिथि को होता है. जब न केवल वाराणसी, बल्कि आसपास के कई जिलों से नगरवधुएं और नर्तिका बाबा मसान नाथ के होने वाले तीन दिवसीय वार्षिक श्रृंगार के अंतिम दिन अपनी नृत्यांजलि पेश करने आती हैं. जलती चिताओं के समानांतर होने वाला यह अनोखा उत्सव देर रात तक चलता रहता है. जहां एक तरफ अंतिम यात्रा पर शवों के आने का सिलसिला जारी रहता है तो वहीं वाद्ययंत्रों और म्यूजिक सिस्टम पर नृत्य का दौर जारी रहता है. इस बेमेल माहौल के पीछे नगरवधुओं और नर्तकियों की अपनी मान्यता है.
सरिता बताती हैं कि बाबा के दरबार में नृत्य करके वे कामना करती हैं कि उनका अगला जन्म सामान्य हो और इस नारकीय जीवन से छुटकारा मिले. तो वहीं एक अन्य नर्तकी बताती हैं कि साल में एक दिन अपनी नृत्यांजलि के जरिए वे बाबा मसान के दरबार में अपनी आस्था प्रकट करती है ताकि उनका अगला जन्म संवर जाए.
क्या है इसके पीछे की कहानी?
बाबा श्मशान नाथ मंदिर के व्यवस्थापक गुलशन कपूर बताते हैं कि दरअसल सत्रहवीं शताब्दी में काशी के राजा मानसिंह ने इस पौराणिक घाट पर भूतभावन भगवान शिव, जो मसान नाथ के नाम से श्मशान के स्वामी हैं के मंदिर का निर्माण कराया था और साथ ही यहां संगीत का एक कार्यक्रम कराना चाहते थे. लेकिन ऐसा स्थान जहां चिताएं जलती हों वहां संगीत की सुरों को छेड़े भी तो कौन? जाहिर है कोई कलाकार यहां नहीं आया. आई तो सिर्फ तवायफें और गंगा किनारे मसान नाथ के दरबार में अपनी नृत्यांजलि प्रस्तुत कर जलती चिताओं के समानांतर भी अपनी कला को प्रस्तुत किया. तभी से ये परंपरा हर साल जिवंत होते चली आ रही है. एक तरफ जलती चिताएं और मातम तो दूसरी तरफ हर्ष और खुशी के बारे में गुलशन बताते हैं कि इसके पीछे काशी की वहीं पुरानी परंपरा है जहां मातम को भी उत्सव के रूप में मनाया जाता है.
तो वहीं मंदिर कमेटी के संरक्षक जंतलेश्वर यादव की मानें तो 84 लाख योनियों में जन्म लेने के बाद मनुष्य का जन्म मिलता है. इसलिए अंतर पट खोलकर बाबा से कामना कर रहें है कि इन नर्तिकों और नगरवधुओं को मोक्ष के मार्ग पर बाबा ले जाए.
(रौशन जायसवाल की रिपोर्ट)