तमिलनाडु में त्रिची के श्री रंगनाथस्वामी मंदिर को तिरुवरंगा तिरुपति के नाम से भी जाना जाता है. यह देश के सबसे शानदार वैष्णव मंदिरों में से एक है, जो हिंदू देवता भगवान विष्णु के लेटे हुए रूप रंगनाथ को समर्पित है. मान्यता है कि भगवान विष्णु यहां रामजी के रूप में विराजित हैं. कावेरी और कोल्लीदम (कावेरी की एक सहायक नदी) की दो नदियों से घिरे श्रीरंगम द्वीप पर स्थित यह मंदिर भगवान विष्णु को समर्पित 108 दिव्य देसमों में से सबसे पहले और सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है.
इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि यह सिर्फ एक मंदिर नहीं है, बल्कि एक मंदिर-नगर है. इसका मतलब है कि यह ऐसा मंदिर जिसमें पूरा नगर बस जाए. मंदिर के गर्भगृह के चारों और कई मोटी और विशाल प्राचीर की दीवारें हैं. परिसर के भीतरी पांच घेरे मंदिर का निर्माण करते हैं, और बाहरी दो घेरे लोगों के लिए हैं. इस प्रकार, मंदिर और नगर के बीच का अंतर मिट जाता है. यह टेम्पल-टाउन टाइपोलॉजी अद्वितीय है और श्री रंगनाथस्वामी मंदिर इसका एक असाधारण उदाहरण है.
156 एकड़ में फैला है मंदिर
वास्तुकला की द्रविड़ शैली में निर्मित, यह मंदिर परिसर विशाल पैमाने पर है और 156 एकड़ (63.131 हेक्टेयर) में फैला हुआ है. कुछ विद्वानों के अनुसार, यह श्री रंगनाथस्वामी मंदिर को दुनिया का सबसे बड़ा कार्यात्मक मंदिर (Functioning Temple) बनाता है और इसे अक्सर दुनिया के सबसे बड़े धार्मिक परिसरों में से एक माना जाता है, जिसमें ल्हासा, तिब्बत में पोटाला पैलेस, कंबोडिया में अंगकोर वाट, इंडोनेशिया में बोरोबोदुर, पेरू में माचू पिचू और वेटिकन सिटी शामिल हैं.
विशाल दीवारों वाले 7 प्राकरमों के अलावा, मंदिर परिसर में 21 बहुत ही रंगीन मूर्तिकला वाले गोपुरम, 50 छोटे मंदिर, 9 पवित्र तालाब, देवता के गर्भगृह के ऊपर सोने का पानी चढ़ा विमान (गुंबद) और कई दूसरी दिलचस्प चीजें हैं. मान्यता है कि इस मंदिर परिसर की योजना, डिजाइन, कार्यान्वयन और उपयोग में जनता और शासकों के बीच मानवीय मूल्यों का सक्रिय आदान-प्रदान हो रहा था. मंदिर का एक हिस्सा वैष्णव पंथ की नियमित सेवाओं, त्योहारों और गतिविधियों के लिए समर्पित है. दूसरा हिस्सा अपनी सभी दैनिक दिनचर्या के साथ लोगों के लिए समर्पित है और लोगों का जीवन इसके आसपास केंद्रित है.
क्या कहती हैं पौराणिक कथाएं
मान्यता है कि एक बार गंगा, यमुना, सरस्वती और कावेरी नदी में झगड़ा हुआ कि उनमें से सर्वश्रेष्ठ कौन है. बहस में यमुना और सरस्वती ने हार मान ली लेकिन गंगा और कावेरी पीछे नहीं हटीं. गंगा ने तर्क दिया कि वह भगवान विष्णु के चरणों से निकलती हैं. इस बात का उत्तर कावेरी के पास नहीं था और उन्होंने भगवान विष्णु की तपस्या करने का ठानी.
कावेरी नदी की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने उन्हें वरदान दिया कि वे धरती पर ऐसी जगह स्थापित होंगे जहां कावेरी उनके गले का हार बनकर बहेगी. कालांतर में, ब्रह्मा जी की तपस्या के कारण भगवान विष्णु ने क्षीरसागर से रंगविमान में प्रकट हुए, विमान को गरूड चला रहे थे और आदिशेष ने विष्णु जी पर छाया की हुई थी. इस स्वरूप को रंगनाथस्वामी कहा गया. ब्रह्मा जी ने उनके इस रूप को विराज नदी किनारे स्थापित किया.
रामायण से है संबंध
भगवान के इस रूप की पूजा करने का सौभाग्य कई महानात्माओं को मिला. लेकिन राम जी ने जब लंका पर विजय प्राप्त की तो रावण के भाई विभीषण ने उनके स्वरूप रंगनाथस्वामी को लंका ले जाने की अनुमति मांगी. हालांकि, जब विभीषण रंगनाथस्वामी को उठाकर ले जा रहे थे तो वह कावेरी नदी के किनारे पहुंचे और यहां पर उन्होंने दैनिक पूजा के लिए प्रतिमा को नीचे रख दिया. पर जब पूजा के बाद उन्होंने प्रतिमा को उठाया तो वे उठा नहीं सके.
इसके बाद, विभीषण को कावेरी नदी को मिले वरदान के बारे में पता चला और उन्होंने रंगनाथस्वामी को यहीं पर स्थापित कर दिया. मान्यता है कि इसके बाद विभीषण हर 12 साल में रंगनाथस्वामी की पूजा करने श्रीरंगम आते हैं.
भक्तों ने हर बार की प्रतिमा की रक्षा
माना जाता है कि रंगनाथस्वामी मंदिर का निर्माण चोल साम्राज्य के दौरान हुआ था. हालांकि, यहां चोल, पांड्य, होयसाला और विजयनगर के शासकों के शिलालेख मिलते हैं. एक एतिहासिक घटना यह भी है कि 1310-1311 में मलिक काफूर के आक्रमण के दौरान, यहां से देवता की मूर्ति चोरी हो गई और दिल्ली ले जाया गया. लेकिन श्रीरंगम के भक्तों ने दिल्ली की ओर प्रस्थान किया और अपनी नाटक कला से सम्राट को मंत्रमुग्ध कर दिया. उनकी प्रतिभा से प्रभावित होकर सम्राट प्रसन्न हुए और उन्होंने श्रीरंगम के देवता की मूर्ति लौटा दी.
हालांकि, 1323 ई. में दूसरे आक्रमण के दौरान, आक्रमणकारी सैनिकों के श्रीरंगम पहुंचने से पहले ही देवता को हटा लिया गया. देवता को 1371 में पुनः स्थापित किया गया और तब तक मूर्ति को छह दशकों तक तिरुमाला तिरुपति की पहाड़ियों में रखा गया था. ऐसा माना जाता है कि मंदिर की रक्षा के लिए हुए भीषण युद्ध में 13,000 भक्तों ने अपनी जान दे दी थी.