Navratri: मां आदिशक्ति का दूसरा रूप है ब्रह्मचारिणी... जानिए देवी के इस नाम और स्वरूप का अर्थ

नवरात्रि में मां दूर्गा को नौ नामों और स्वरूपों में पूजा जाता है. मां के हर नाम और स्वरूप का अलग-अलग अर्थ है जो हमें प्रेरित करते हैं. जानिए मां के दूसरे स्वरूप के बारे में.

Maa Brahmacharini (Photo Pinterest)
gnttv.com
  • नई दिल्ली ,
  • 04 अक्टूबर 2024,
  • अपडेटेड 9:16 AM IST

जगत् की सम्पूर्ण शक्तियों के दो रूप माने गये है– संचित और क्रियात्मक. नवरात्र साधना क्रियात्मक साधना है, जिसमें  प्रसुप्त शक्तियों को जागरण, उज्जागरण हेतु 9 दिनों तक पराम्बा दुर्गा के 9 रूपों की पूजा का विधान है. पहले दिन माता के शैलपुत्री स्वरूप की उपासना से आरंभ कर इस ‘शाक्त-साधना’ में दूसरे दिन माता के ‘ब्रह्मचारिणी’ स्वरूप की उपासना की जाती है. ‘ब्रह्मचारिणी’ का शाब्दिक अर्थ है–‘ब्रह्मा का-सा आचरण करने वाली.' 'ब्रह्म' (ब्रम्ह नहीं) शब्द का व्युत्पत्तिगत अर्थ विस्तार है. विस्तार के लिए साधना करनी पड़ती है; स्वयं को तपाना पड़ता है. यही कारण है कि 'ब्रह्मा' का एक अर्थ तपस्या भी है और इसलिए ब्रह्मचारिणी को ‘तपश्चरिणी’ भी कहा जाता है. 

प्रतीक के रूप में इनके बाएं हाथ में कमण्डलु और दाहिने हाथ में जप की माला दी गई है, जो साधना की अवस्था को दर्शाती है. योग साधना की दृष्टि से इसमें साधक का ध्यान 'मूलाधार' से उठकर 'स्वाधिष्ठान' चक्र (लिंग-स्थान) पर आया है, जिसका मूल तत्त्व जल है.

मां ब्रह्मचारिणी के बारे में मान्यता है कि महादेव को पति के रूप में प्राप्त करने के लिए यह घोर तपस्या करती हैं : “ब्रह्म चारयितुं शीलं यस्या: सा ब्रह्मचारिणी.” अर्थात् सच्चिदानंदमय ब्रह्मस्वरूप की प्राप्ति कराना जिसका स्वभाव हो वे ब्रह्मचारिणी हैं. यहां महत्त्वपूर्ण है कि महादेव की आराधना से शक्ति या यह स्वरूप उनके सदृश ही स्तुत्य हो जाती हैं. यह स्पष्ट इंगित करता है कि हमारी संस्कृति में शिव का जितना महत्त्व है, उतना ही शक्ति का. समस्त चराचर सृष्टि इस आदि-शक्ति से ही संचालित है और इनके सान्निध्य से इतर कुछ भी अकल्पनीय है... अचिन्त्य प्राक्कल्पना है. "यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते तदृशं भारतं सदैव पूजनीयम्!" – के आर्ष उद्घोष के रूप में यह सनातन संस्कृति का एक ऐसा वैशिष्ट्य है जो आदि काल से सभ्यताओं के आवर्तन, विवर्तन में शाक्त साधना और नवरात्र साधना के रूप में अक्षुण्ण रहा, गुंजायमान रहा.

वस्तुतः इस प्रकृति का पुरुष से या शिव का शक्ति से साहचर्य ही एकमेव तत्त्व है; जिसे नवरात्र के नौ रूपों की साधना से अनुभूत किया जा सकता है. इस साधना से आभ्यन्तरिक अपूर्णता को पूर्णता मिलती है. इससे मनो-दौर्बल्य दूर होते हैं, अक्षमताएं मिटती हैं, औदात्य आता है और साधक पूर्णता और समरसता की ओर गमन करता है.

लेखक: कमलेश कमल 

(कमलेश कमल हिंदी के चर्चित वैयाकरण एवं भाषा-विज्ञानी हैं. उनके 2000 से अधिक आलेख, कविताएं, कहानियां, संपादकीय, आवरण कथा, समीक्षा इत्यादि प्रकाशित हो चुके हैं. उन्हें अपने लेखन के लिए कई सम्मान भी मिल चुके हैं.)

 

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