Navratri: क्या है ‘नवरात्र’ और क्या हैं माता के सभी रूपों के वास्तविक अर्थ?

नवरात्रि में मां दुर्गा के अलग-अलग रूपों की पूजा-अर्चना की जाती है. भक्तजन मां को उनके अलग-अलग नामों और स्वरूपों से जानते हैं. आज जानिए मां दुर्गा के विभिन्न रूपों और उनके अर्थों के बारे में.

Shardiya Navratri 2024
gnttv.com
  • नई दिल्ली ,
  • 03 अक्टूबर 2024,
  • अपडेटेड 12:37 PM IST
  • दुर्गा शब्द की उत्पत्ति और अर्थ
  • मां दुर्गा के अलग-अलग स्वरूप और नाम
  • नवरात्रि में करें 'दुर्गा-सप्तशती' का पाठ 

मां दुर्गा को आदिशक्ति, पराशक्ति या सर्वोच्च देवी कहा गया है; अर्थात् सभी शक्तियां इन्हीं से निःसृत होती हैं. यही अखिल ब्रह्माण्ड को नियोजित, नियमित, निर्देशित व संचालित करने वाली हैं और अपने दिव्य स्पंदनों से स्पंदित करने वाली भी. लेकिन इस आदि शक्ति और इनके नामों की क्या व्याख्या हो? न केवल भक्त, बल्कि साधक, जिज्ञासु, शोधार्थी और अर्थार्थी इस आदि-शक्ति के नामों और उनसे संबद्ध उपासना पद्धतियों के अर्थ और निहितार्थ को समझने की आकांक्षा रखते हैं.

साल में चार बार अर्थात् चारों ऋतु-संधियों (चैत्र, आषाढ़, आश्विन और माघ) पर शुक्ल प्रतिपदा से नवमी तक ‘नवरात्र’ मनाया जाता है. इनमें भी शारदीय नवरात्र का विशेष महत्त्व है. आदिशक्ति की आराधना का यह महान् पर्व न केवल धर्म और आस्था; अपितु भाषा, तर्क, दर्शन, योग, विज्ञान या कहें कि जीवन जीने की दृष्टि से भी महत्त्व है. यह पर्व अपने में भारतीय संस्कृति, धर्म और जीवन-दर्शन के विविध पहलुओं को समाहित किए हुए है.

दुर्गा शब्द के हैं कई अर्थ 
दुर्गा शब्द की मीमांसा करें, तो यह ‘दुर्गा’ शब्द ‘दुर्’ और ‘गः’ अथवा ‘दुर्’ और ‘गम्’ से बना है. दुर् का अर्थ मुश्किल, कठिन आदि है. गः या गम् का अर्थ जाना या गमन करना है. इस तरह दुर्गा का अर्थ हुआ– जहां जाना कठिन हो या जिसे पाना कठिन हो. यह किसी साधक के लिए सर्वोच्च चेतना हो सकती है, भक्तों के लिए भगवत्ता की प्राप्ति हो सकती है, तो किसी योगी के लिए मूलाधार से सहस्रार की यात्रा हो सकती है. 

‘दुर्ग’ शब्द में ‘आ’ प्रत्यय जुड़कर व्युत्पन्न ‘दुर्गा’ शब्द का एक अर्थ है –"जो शक्ति दुर्ग की रक्षा करती हैं, दुर्गा हैं." इस दृष्टि से भी, भक्त के लिए सर्वशक्तिस्वरूपिणी दुर्गतिनाशिनी ही ‘दुर्गा’ हैं या कहें व्यष्टि से समष्टि तक की नानाविध रक्षा करने वाली शक्ति ही दुर्गा हैं. जानना चाहिए कि वेदों में ‘दुर्गा’ शब्द का उल्लेख नहीं है. उपनिषदों में ‘उमा’ या ‘हेमवती’ शब्द हैं, जबकि पुराण में ‘आदिशक्ति’ की चर्चा की गई है. 

दुर्गा मां के हैं कई नाम 
हम जानते हैं कि दुर्गा को ‘पहाड़ों वाली मां’ भी कहा जाता है. इसका कारण है कि पृथ्वी पर सबसे दुर्गम स्थान ऊंचे-ऊंचे पर्वत होते हैं और यह अनायास ही नहीं है कि मां दुर्गा के लगभग सभी मंदिर ऊंचे-ऊंचे पर्वतों पर हैं, दुर्गम जगहों पर हैं; जहां जाने के लिए साधना करनी पड़ती है. दुर्गा को जगदंबा भी कहा जाता है जगदंबा बना है– जगत् +अम्बा से। अर्थात् आदिशक्ति ही जगत् की अम्बा (माँ) हैं (जगज्जननी भी); क्योंकि सभी शक्तियों की स्रोत वही हैं.  

मां दुर्गा के अलग-अलग हैं स्वरूप

माँ दुर्गा को ‘महिषासुर मर्दिनी’ भी कहा गया है. 'महिषासुर' सामान्य जनों के लिए एक भैंसे की आकृति वाला राक्षस है, लेकिन भाषा-विज्ञान की दृष्टि से महिषासुर शब्द ‘महिष’ और ‘असुर’ के योग से बना है. महिष शब्द ‘मह्’ धातु से बना है, जिसका अर्थ महान्, बलवान्, शक्तिमान् इत्यादि होता है. इस तरह से ‘महिष’ का अर्थ महान् होता है और इसी का स्त्रीलिंग रूप ‘महिषी’ है। राजमहिषी राज्य की प्रथमस्त्री या महारानी होती है. इसी प्रकार, महिषासुर का अर्थ हुआ ‘महान् असुर’. असुर को राक्षस भी कहा जाता है और अ(बिना) सुर का भी कहा जा सकता है. तो, हमारी चेतना का ताल या सुर का बिगड़ना ही अंदर का ‘अ-सुर है. दूसरे शब्दों में विकार का आना ही आसुरी वृत्ति का आना है. अतः, महिषासुर का अर्थ हुआ : 'महान् है जो असुर' (जो हमारे अंदर ही होता है, कहीं बाहर नहीं.) नवरात्र वस्तुतः अपने अंदर की इस आसुरी वृत्ति को समाप्त कर परम-चेतना की अवस्था को प्राप्त करने के लिए ही मनाया जाता है. 

मां ने दी इन राक्षसों को मुक्ति 
कहते हैं कि मा ने ‘धूम-राक्षस’ (इसे धूम्र-राक्षस न लिखें) का वध किया। यह प्रतीकात्मक व्यवस्था है. धूम या धुँआ अज्ञानता का प्रतीक है. तो, प्रतीक में निहितार्थ यह है कि माँ दुर्गा की उपासना से अज्ञानता रूपी राक्षस का नाश होता है. दुर्गा-पाठ में जब पढ़ते हैं कि माता ने धूम-राक्षस का वध किया, तो समझें कि शक्ति के जागरण से अज्ञान का अंत हुआ.

इसे ‘रक्त-बीज’ का वध करने वाली भी कहा गया है। आदमी रक्त और बीज से ही तो बनता है. अतः, 'रक्त-बीज' संस्कारों के वाहक हैं। लोक में अभी भी DNA अथवा जीनपूल के लिए 'रक्त-बीज' का प्रयोग मिलता है. लोग कहते हैं– "उसका 'रक्तबीज' ही ख़राब है/ दूषित है." ध्यान दें कि यहां बीज 'वीर्य' का पर्यायवाची है. अस्तु, इस निष्पत्ति से रक्त-बीज के वध का अर्थ है– कुसंस्कारों का अंत. अर्थात् शक्ति के जागरण से आत्मा इतनी पवित्र हो गई कि अब कुछ भी असाधु तत्त्व संस्कारों द्वारा वहन नहीं होगा. 

इस प्रकार, समझना चाहिए कि रक्त और बीज हमारे भौतिक रूप अर्थात् हमारी जडता के प्रतीक हैं. रक्तबीज का वध करने वाली मां का अर्थ जडत्व का नाश कर अमृत देने वाली होता है; इसलिए ही तो मां को अमृत-फल-दायिनी कहा गया है.

मां दुर्गा ने किया कई राक्षसों का वध

चंड-मुंड का वध करना भी प्रतीकात्मक है. चंड हमारी चिंता या अज्ञानता है और मुंड हमारा सिर है और अहंकार का प्रतीक है. तो, मां दुर्गा हमारे अहंकार का नाश करने वाली भी हैं. माता के रौद्र रूप में जो गले में मुंडमाला लटकी है, वह वस्तुतः हमारे अहंकार के विविध रूपों की माला है. मां दुर्गा की उपासना से इस अहंकार रूपी माला का समूल नाश हो जाता है. 

हर नारी में है शक्ति 
इसी तरह मां दुर्गा के हर नाम से ही उसका अर्थ उद्घाटित हो जाता है. मां स्त्री-शक्ति को भी रूपायित करती हैं। सनातन की सीख है कि स्त्री अगर किंचित् कुछ अर्थों में वंचिता है; तो वह मुक्ति, शक्ति व अधिकारों की पात्रा, अधिकृता व अधिकारिणी भी है. वह आधुनिका समर्था है. वह सदा शिव की पूरक रही है. प्रकृति का पुरुष से या शिव का शक्ति से सहकार समता की धरातल पर है. यथा – भगवान् शिव पर प्रीति रखने वाली (भवप्रीता), भारी या महती तपस्या करने वाली (महातपा), जिस के स्वरूप का कहीं अंत न हो (अनंता), सब को उत्पन्न करने वाली (भाविनी), भावना एवं ध्यान करने वाली (भाव्या), जिससे बढ़कर भव्य कोई और नहीं हो (अभव्या), रेशमी वस्त्र पहनने वाली (पट्टाम्बरपरिधाना), असीम पराक्रम वाली (अमेय विक्रमा) इत्यादि.

नवरात्र की बात करें तो, मां के नौ रूपों की पूजा होती है, लेकिन मूर्ति एक ही लगती है. यह एक मूर्ति दिखाती है कि नौ रूप नहीं हैं, एक ही रूप है. जैसे एक व्यक्ति कभी पिता, कभी भाई, कभी मित्र तो कभी पुत्र हो सकता है, वैसे ही माता का रूप एक ही है जो अलग-अलग समय में अलग-अलग साधना की अधिष्ठात्री बन जाती हैं। तभी तो कहा गया है– “भेद सहित अभेद की निर्मात्री शक्ति ही दुर्गा है.”

जागरण क्या है 
दुर्गोत्सव से जुड़ी तमाम अवधारणाओं के बीच एक प्रश्न यह भी प्रश्न उठता है कि जागरण क्या और जागरण किसका? माता का 'जगराता' (जागरण की रात्रि का अपभ्रंश) कर हम माता को जगाते हैं अथवा स्वयं को? वस्तुतः, ईश्वरीय शक्ति नहीं सोई है, हमारी शक्ति प्रसुप्त है...और जागरण उसी का है. यह ध्यान रहे कि 'माता' हमारे अंदर अवस्थित आदि-शक्ति है. इस तरह, जो हम सबके अंदर है, उस शक्ति का अर्थात् आभ्यन्तरिक शक्ति का जागरण करना ही 'नवरात्र' का अभीष्ट है. 

मां दुर्गा का जागरण

जब हम विजयादशमी मनाते हैं, तो यह स्मरण रहे कि यह दुर्गोत्सव हमारे अपने ही 'दुर्ग' पर विजय का उत्सव है. अगर जीत गए, तो स्वयं को ही साधकर 'सिद्ध' होने की जीत है. वस्तुत:, स्वयं का ही जागरण हो गया, तभी विजयादशमी की सार्थकता है. इसी तरह, जिस पराम्बा, चिन्मात्र, अप्रमेय, निराकार, मंगलरूपा, आराधिता, मोक्षदा, सर्वपूजिता, सर्व सिद्धिदात्री, नारायणी शक्ति की हम आराधना करते हैं, वह हमारे अंदर ही अवस्थित है. इसे समझकर ही हम अपनी संकल्पित इच्छाशक्ति से उस शिवा (शिव या कल्याण को उपलब्ध कराने वाली) को महसूस कर आगे बढ़ सकते हैं. अपनी वासनाओं पर विजय प्राप्त कर सकते हैं और कर्म के बंधन काट सकते हैं.

नवरात्रि में करें 'दुर्गा-सप्तशती' का पाठ 
700 श्लोकों से युक्त 'दुर्गा-सप्तशती' के पाठ को हम बाह्य और आंतरिक दोनों चक्षुओं को खोल कर पढ़ें. साथ ही, इनसे जुड़ी पूजा-पाठ की पद्धतियों को वैज्ञानिकता की कसौटी पर कसने की कोशिश करें. उदाहरण के लिए, जब हम आचमण करें, तो “गंगे च यमुना चैव गोदावरी सरस्वती नर्मदा सिंधु कावेरी जलेस्मिन् सन्निधिं कुरु” पढ़ते समय यह ध्यान हो कि ये पवित्र नदियों के नाम हैं, जिनसे हमारी आस्था सन्नद्ध है, जो हमारे संस्कार में प्रवाहित हैं. हम इनका पवित्र जल अत्यंत अल्प मात्रा में पी रहे हैं. यह भी ध्यान रहे कि आचमन में 'चम्' धातु है जिसमें पीना और 'गायब होना' दोनों शामिल है. क्या संयोग है कि 'चम्मच' और 'आचमन' दोनों का मूल एक ही है. तो, आचमन का जल इतनी मात्रा में(एक चम्मच भर) हो कि आंतों तक न पहुंच सके. यह हृदय के पास ज्ञान चक्र जाते-जाते तिरोहित हो जाए, समाविष्ट हो जाए. अर्थात् यह प्रतीकात्मक रूप से ज्ञान की तैयारी है.

जब अर्घ्य दें तो पता हो कि जो अर्घ(अर्पण) के योग्य है, वही अर्घ्य (अर्घ् +य) है... या जो बहुमूल्य है और देने के योग्य है, वही अर्घ्य है. तो, पूजा-पाठ की सामग्री के साथ अपने मन के आदर और श्रद्धाभाव को भी मिलाएं जिससे वह देने योग्य हो जाए. जब हम संकल्प करें, तो अपनी वासनाओं, बुराइयों पर विजय का संकल्प करें. जब हम शुद्धि करें (कर शुद्धि, पुष्प शुद्धि, मूर्ति एवं पूजाद्रव्य शुद्धि, मंत्र सिद्धि, शरीर-मन की शुद्धि); तो यह स्मरण रहे कि यह साधना है, कोई आडंबर नहीं.

तदुपरांत दिव्या: कवचम्, अर्गलास्तोत्रम् ,  कीलकम्, वेदोक्तं रात्रिसूक्तम् से लेकर त्रयोदश अध्याय तक पाठ करते समय हमें शब्दों के महत्त्व पर विचार अवश्य कर लेना चाहिए. कील का अर्थ धुरी है. तो यहां दुर्गासप्तशती में 'कील' साधना की 'धुरी' है, ध्येय है. कवच अपने सद्विचारों एवं संयम का संकल्प है. कब कवच का पाठ करें, तो समझें कि आध्यात्मिकता का कवच पहन रहे हैं जिससे सांसारिक वासनाओं के अस्त्र-शस्त्र बेध न सकें. अर्गला का अर्थ किवाड़ की सिटकनी है. इस तरह चित्त और आभ्यन्तरिक भित्ति के पट पर यह अर्गला(सिटकनी) है. दूसरे शब्दों में, यह बाह्य व्यवधानों को अंदर प्रवेश न देने का प्रण है. ध्यान दें कि इसी तरह हम जो भी पढ़ रहे हैं, उसका कुछ ऐसा ही शुभंकर अर्थ है. 

दुर्गा सप्तशती का पाठ करें

अंत में क्षमा प्रार्थना, श्रीदुर्गा मानस पूजा, सिद्ध कुंजिकास्तोत्रम्, आरती आदि के पाठ के समय नित यह ध्यान रहे कि हमें अपनी ही आंतरिक शक्ति को जगाना है, अपने ही सत्त्व, रजस् और तमस् वाली त्रिगुणात्मक प्रकृति पर विजय पाना है, किसी बाहरी व्यक्ति या वस्तु पर नहीं. अगर हम ऐसा कर सके, तो हमारी यह शक्ति नित्या (“जो नित्य हो, विनष्ट न हो), सत्या (सत्यरूपा) और शिवा (सर्वसिद्धिदात्री) हो जाएगी. हम पुलकित भाव से अपनी साधना को फलीभूत होते देख सकेंगे और हमारा सर्वविध अभ्युदय हो सकेगा. 

एक और विचारणीय बिंदु है कि विजयादशमी 'दुर्गापूजा' भी है और 'दशहरा' भी. स्मर्तव्य है कि दुर्गापूजा के रूप में यह आदि-शक्ति की महती आसुरी-शक्ति (महिषासुर) पर विजय का उल्लास है. इसी तरह, दशहरा के रूप में यह ‘जिसमें मन रमे'–उस राम की ‘गर्जना करने वाले’(रावण) पर विजय का उत्सव है.

10 मनोरोगों पर पाएं विजय
यहां ठहरकर सोचें कि आपने इन 9 दिनों में क्या किया? क्या दशहरा का अर्थ 10 मनोरोगों या पापों पर विजय नहीं है? मनोवैज्ञानिक रूप से DSM-05 भी 10 रोगों की बात करता है, तो वेद-उपनिषद् से लेकर मनु-स्मृति तक में 10 विकारों की चर्चा है. समीचीन है कि अंदर उठने वाले इन 10 विकारों के राव:(रु मूल), रौरव, शोर या ‘गर्जन’ को भाषा-वैज्ञानिक आधार ‘रावण’ समझा जाए. यह भी समझना चाहिए कि भाषा-वैज्ञानिक आधार पर तो रावण का अर्थ ही यही है कि जो रौरव या शोर करे, जो लोगों का पीडन(पीड़न न लिखें) या उत्पीडन करे या कहें कि जो लोगों को रुलाए. 

हम जानते हैं कि रावण की हार हुई. यह हार तो हर रावण की होगी और हर युग में होगी क्योंकि दूसरी ओर राम हैं. राम तो 'रमन्ति रामः' हैं. विचारणीय है कि एक तरफ़ 'रौरव वाला रावण' हो और दूसरी तरफ़ 'रमण वाले राम', तो अन्ततः जय राम की ही होगी. राम-रावण संग्राम को बाह्य-शोर (रावण)और ‘भगवत्ता में रमने की इच्छा-शक्ति’ (राम) के द्वंद्व के रूप में भी देखा जा सकता है. वस्तुतः, यह केवल बुराई के प्रतीक के रूप में रावण के किसी स्थूल पुतले में आग लगाकर उत्सव मना लेने से अच्छा है. अंदर के रावण का वध हो, यह काम्य हो.

10 विकारों पर पाएं सफलता

द्रष्टव्य है कि आज के परिप्रेक्ष्य में काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह, हिंसा, स्तेय (चोरी), अनृत(झूठ), व्यभिचार और अहं रूपी 10 विकारों को ही ‘दशानन’ मानना चाहिए; जिसे ज्ञान और साधना से समूल नष्ट करने को उद्यम हो. यदि इन पर विजय हो गई हो, तभी आपके लिए विजय की दशमी (विजयादशमी) सिद्ध हुई. ''राम की रावण पर' या 'दुर्गा की महिषासुर पर' विजय की गाथा से आप प्रेरणा लें, यही श्रेयस्कर है. साधक के लिए तो 'दस विकारों का हरण' ही दशहरा या विजयदशमी है. राम, रावण, दुर्गा, महिषासुर, दशहरा, आदि शब्दों के मूलार्थ से तो यही व्यंजित हो रहा है.

इसी मीमांसा के क्रम में नवरात्र में निहित ‘रात्रि’ को देखें तो यह प्रतीक के रूप में अज्ञानता है. जागरण करना का अर्थ है– साधना से अपने अंदर जाग्रति लाने का प्रयास करना. इस जागरण हेतु, कालुष्य के नाश हेतु, एक दीपक चाहिए. अंतस-चेतना ही वह दीपक है. नवरात्र में उपवास किया जाता है. उपवास का शाब्दिक अर्थ है–‘समीप वास’ या ‘अपनी चेतना के पास रहना’ है. ‘व्रत’ का अर्थ संकल्प है, जो चेतना की सिद्धि के लिए है, तभी तो वह व्रत है. तो आइए, इन नौ दिनों में हम माता के नौ रूपों के भाषाई और प्रतीकात्मक अर्थ को  समझने की कोशिश करते हैं!

लेखक: कमलेश कमल

(कमलेश कमल हिंदी के चर्चित वैयाकरण एवं भाषा-विज्ञानी हैं. कमल जी के 2000 से अधिक आलेख, कविताएं, कहानियां, संपादकीय, आवरण कथा, समीक्षा इत्यादि प्रकाशित हो चुके हैं. उन्हें अपने लेखन के लिए कई सम्मान भी मिल चुके हैं.)

 

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