इस प्रोफेसर ने ढूंढा हानिकारक जलकुंभी से निपटने का तरीका, ऑर्गनिक खाद और दवाइयां बनाकर बचा रहे हैं जलीय जीवन

आपको बता दें कि जलकुंभी दुनिया का सबसे बड़ा जलीय खरपतवार है, क्योंकि यह एक मौसम में 48,000 गुना तक बढ़ सकता है. इसके कारण होने वाली मीथेनेशन ग्लोबल वार्मिंग पर सीधा प्रभाव डालती है. इसके कारण जलीय जीवन प्रभावित होता है.

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  • नई दिल्ली,
  • 21 मार्च 2022,
  • अपडेटेड 11:07 AM IST
  • प्रोफेसर ने ढूंढा हानिकारक जलकुंभी से निपटने का तरीका
  • जलकुंभी से बना रहे ऑर्गनिक खाद और दवाइयां

झारखंड में वनस्पति विज्ञान के एक प्रोफेसर ने जलकुंभी से जैविक खाद और दवाएं बनाने की तकनीक तैयार की है. केकेएम कॉलेज, पाकुड़ के प्रोफेसर डॉ प्रसेनजीत ने दावा किया कि यह तकनीक न केवल रसायनिक मुक्त उर्वरकों को सस्ती दर पर उपलब्ध कराएगी बल्कि पर्यावरण को बचाने में भी मदद करेगी. क्योंकि जलकुंभी होने से तालाब, नदी के ऑक्सीजन स्तर को कम करती है.

आपको बता दें कि जलकुंभी दुनिया का सबसे बड़ा जलीय खरपतवार है, क्योंकि यह एक मौसम में 48,000 गुना तक बढ़ सकता है. इसके कारण होने वाली मीथेनेशन ग्लोबल वार्मिंग पर सीधा प्रभाव डालती है. इसके कारण जलीय जीवन प्रभावित होता है.

प्रसेनजीत का कहना है कि जलकुंभी को नियंत्रित करने का सबसे प्रभावी तरीका इसे फिजीकली नियंत्रित करना है. इसके लिए ज्यादा कामगरों की जरूरत है और यह डीकंपोज हो जाता है.

बना रहे हैं जैविक खाद:

प्रसेनजीत इस खरपतवार को कच्चे माल में परिवर्तित करके जैविक खाद बना रहे हैं. उन्होंने रांची विश्वविद्यालय के विज्ञान डीन (सेवानिवृत्त) डॉ ज्योति कुमार के मार्गदर्शन में विज्ञान में डॉक्टरेट (डीएससी) की पढ़ाई के दौरान यह नवाचार किया. विवि ने अब इसके पेटेंट के लिए आवेदन किया है.

सबसे पहले खरपतवार को छोटे टुकड़ों में काट दिया जाता है और परत दर परत 5x5 आयाम के गड्ढे में रखा जाता है. इसमें गाय के गोबर का घोल, पाउडर सुपरफॉस्फेट और यूरिया मिलाया जाता है. बेहतर अपघटन के लिए दो बांस के खंभे लगाकर दो एरेशन छेद बनाए जाते हैं और गड्ढे को मिट्टी से ढक दिया जाता है. 70 दिनों के अपघटन के बाद लगभग 2-3 टन जैविक खाद तैयार की जाती है जो बाजार में उपलब्ध रासायनिक उर्वरकों की तुलना में काफी सस्ता है.

उन्होंने दावा किया कि इससे न केवल फसलों को लाभ होता है बल्कि मिट्टी की उर्वरता में भी सुधार होता है. उनका शोध कार्य 2014 में शुरू हुआ और 2017 में पूरा हुआ.

 

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