पोलो, जिसे 'राजाओं का खेल' भी कहा जाता है, का जयपुर के साथ गहरा संबंध है. जयपुर, अपनी ऐतिहासिक धरोहर, सांस्कृतिक वैभव और शाही परंपराओं के लिए जाना जाता है. इस शहर का पोलो खेल से जुड़ा इतिहास भी उतना ही गौरवमयी है. जयपुर का पोलो इतिहास 1900 के शुरुआती वर्षों से जुड़ा हुआ है, जब जयपुर पोलो क्लब की स्थापना हुई थी, और यह खेल आज भी इस शहर की शाही पहचान का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बना हुआ है.
पोलो और जयपुर का संबंध: एक ऐतिहासिक कड़ी
जयपुर का पोलो क्लब दुनिया के सबसे पुराने और प्रतिष्ठित पोलो क्लबों में से एक है. इसकी स्थापना 1901 में हुई थी, और इसके बाद से यह पोलो का एक प्रमुख केंद्र बन गया. इस क्लब ने न केवल पोलो के खेल को बढ़ावा दिया बल्कि कई महान पोलो खिलाड़ियों को भी जन्म दिया, जिनमें महाराजा मान सिंह द्वितीय, महाराज भवानी सिंह, और राव साहब विजय सिंह जैसे शाही खिलाड़ी शामिल हैं. जयपुर के पोलो क्लब ने पोलो के खेल को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाने में अहम भूमिका निभाई है.
पोलो का खेल सिर्फ एक खेल नहीं बल्कि एक जीवनशैली, एक सांस्कृतिक पहचान बन गया है. जयपुर में पोलो का संबंध केवल एक खेल तक सीमित नहीं है, बल्कि यह शहर के शाही परिवार की परंपराओं और उनके गौरवमयी इतिहास का एक अभिन्न हिस्सा बन चुका है.
महाराजा सवाई पद्मनाभ सिंह और पोलो की दुनिया
आज के समय में जयपुर के पोलो का चेहरा महाराजा सवाई पद्मनाभ सिंह हैं. महाराजा पद्मनाभ सिंह, जो भारतीय पोलो टीम के कप्तान हैं, इस खेल की शाही विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं. उन्होंने पोलो में अपनी उत्कृष्टता के साथ न केवल जयपुर के पोलो क्लब की प्रतिष्ठा बढ़ाई है बल्कि भारतीय पोलो की अंतरराष्ट्रीय पहचान भी स्थापित की है. उनकी कप्तानी में भारतीय पोलो टीम ने कई प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय टूर्नामेंट्स में भाग लिया और शानदार प्रदर्शन किया है.
महाराजा सवाई पद्मनाभ सिंह का पोलो के प्रति समर्पण न केवल उनकी व्यक्तिगत रुचि का परिचायक है, बल्कि यह जयपुर की समृद्ध पोलो परंपरा को जीवित रखने का उनका प्रयास भी है. उनके योगदान से पोलो का खेल जयपुर में और भी ज्यादा लोकप्रिय हुआ है और दुनिया भर के पोलो खिलाड़ियों के लिए आकर्षण का केंद्र बन गया है.
पोलो और जयपुर का ऐतिहासिक कनेक्शन
जयपुर का पोलो इतिहास 1930 के दशक में अपने शिखर पर पहुंचा. 1933 में जयपुर की पोलो टीम ने एक अद्वितीय रिकॉर्ड बनाया था, जब उन्होंने ब्रिटेन के सभी प्रमुख ओपन टूर्नामेंट्स और भारत में 1930 से 1938 तक हर भारतीय चैंपियनशिप जीती. यह उपलब्धि जयपुर के पोलो इतिहास में एक मील का पत्थर साबित हुई और इसने जयपुर को पोलो की दुनिया में एक सम्मानजनक स्थान दिलाया.
इतना ही नहीं, 1957 में जब भारत की आधिकारिक पोलो टीम वर्ल्ड चैंपियनशिप के लिए गई, तो उसमें जयपुर के महाराजा भी शामिल थे. इसने जयपुर के पोलो क्लब और पोलो की विरासत को वैश्विक मंच पर प्रतिष्ठित किया और पोलो की दुनिया में जयपुर का नाम रोशन किया.
रम्बाग पोलो ग्राउंड: जयपुर का पोलो केंद्र
जयपुर के रामबाग पोलो ग्राउंड का भी पोलो के इतिहास में एक महत्वपूर्ण स्थान है. यह पोलो का एक प्रमुख स्थल है और पोलो प्रेमियों के लिए एक ऐतिहासिक स्थल बन चुका है. रामबाग पोलो ग्राउंड केवल जयपुर के पर्यटन का हिस्सा नहीं है, बल्कि यह पोलो की दुनिया का भी एक आदर्श स्थल है. यहां पर दुनिया भर के पोलो मैच आयोजित होते हैं, और यह स्थल पोलो के खिलाड़ियों और दर्शकों के लिए एक विशेष आकर्षण का केंद्र बना हुआ है.
इस मैदान पर खेले जाने वाले पोलो मैच न केवल जयपुर की सांस्कृतिक धरोहर को दर्शाते हैं बल्कि यह इस शहर के शाही वैभव और इतिहास की गवाही भी देते हैं. रामबाग पोलो ग्राउंड में आयोजित होने वाले टूर्नामेंट्स में हिस्सा लेने वाले पोलो खिलाड़ी इसे एक विशिष्ट स्थान मानते हैं.
पोलो घोड़े और उनकी अहमियत
पोलो में घोड़े की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण होती है, और जयपुर में पोलो घोड़ों की विशेष महत्वता है. पोलो में उपयोग होने वाले घोड़ों को पोलो पोनी कहा जाता है. जयपुर में कई प्रकार की पोलो पोनी नस्लें पाई जाती हैं, जिनमें थोरब्रेड, अर्जेंटीना पोलो पोनी, धोरब्रेड क्वार्टर हॉर्स क्रॉस और मणिपुरी नस्ल प्रमुख हैं.
भारत में पहले अधिकांश पोलो मैचों में भारतीय घोड़ों का इस्तेमाल किया जाता था, लेकिन अब जयपुर में अधिकतर पोलो मैचों में अर्जेंटीना के इंपोर्टेड घोड़ों का इस्तेमाल किया जा रहा है. अर्जेंटीना के घोड़े पोलो के लिए विशेष रूप से अच्छे होते हैं क्योंकि उनमें लचीलापन होता है और उनकी गति भी तेज होती है. जयपुर के पोलो क्लब में इन घोड़ों का ध्यान रखा जाता है, और यहां के घोड़े पोलो के लिए विशेष प्रशिक्षण प्राप्त करते हैं.
पोलो घोड़ों की ट्रेनिंग में कम से कम 2 साल का समय लगता है, और इनमें से सिर्फ कुछ घोड़े ही पोलो खेलने के योग्य बन पाते हैं. जयपुर में करीब 800 पोलो घोड़े हैं, जिनमें से 400 घोड़े पोलो खेलने के लिए पूरी तरह से प्रशिक्षित हैं. इन घोड़ों की ऊंचाई और स्वभाव पोलो खेलने के लिए बेहद महत्वपूर्ण होते हैं, और उनकी विशेषताएं मैच के दौरान खिलाड़ी को बेहतर प्रदर्शन करने में मदद करती हैं.
जयपुर पोलो सीजन 2025
पिछले कुछ वर्षों में जयपुर का पोलो बहुत बदल चुका है. पहले जहां पोलो सीजन के दौरान महज कुछ टूर्नामेंट आयोजित होते थे, अब यह 22 सप्ताह तक चलता है. जयपुर में पोलो का क्रेज तेजी से बढ़ा है, और इसके आयोजन के लिए बेहतर सुविधाएं उपलब्ध कराई जा रही हैं. अब पोलो मैचों में भारतीय घोड़ों की बजाय इंपोर्टेड घोड़ों का इस्तेमाल अधिक हो रहा है. जयपुर का पोलो अब वैश्विक मानकों के अनुरूप होता जा रहा है.
जयपुर में हाल ही में आयोजित एक उच्च-स्तरीय अंतरराष्ट्रीय पोलो मैच, "एचएच राजमाता पद्मिनी देवी ऑफ जयपुर इंटरनेशनल शील्ड एंड आईपीए इंटरनेशनल डे", भारतीय टीम और दक्षिण अफ्रीकी टीम के बीच खेला गया. भारतीय टीम ने यह मैच 7-5 के स्कोर से जीतकर शील्ड अपने नाम की. इस मैच में महाराजा सवाई पद्मनाभ सिंह ने भी हिस्सा लिया और उनके नेतृत्व में भारतीय टीम ने शानदार प्रदर्शन किया.
जयपुर का पोलो सिर्फ एक खेल नहीं है, बल्कि यह शहर की शाही धरोहर, गौरव और सांस्कृतिक पहचान का प्रतीक है. जयपुर पोलो क्लब और रामबाग पोलो ग्राउंड ने पोलो के खेल को न केवल देशभर में बल्कि वैश्विक स्तर पर एक नई पहचान दिलाई है. महाराजा सवाई पद्मनाभ सिंह और अन्य पोलो खिलाड़ियों की कड़ी मेहनत ने जयपुर को पोलो के प्रमुख केंद्र के रूप में स्थापित किया है. जयपुर का पोलो आज भी शाही परिवारों की परंपराओं और गौरव की निशानी है, और यह खेल शहर की समृद्ध विरासत को एक नई ऊंचाई दे रहा है.
(रिद्म जैन की रिपोर्ट)