आज हम आपको राजस्थान के अजमेर जिले के एक ऐसे बदलाव की कहानी बता रहे हैं, जिसने न केवल खेल की दुनिया में एक नई क्रांति लाई है, बल्कि समाज में व्याप्त पुरानी कुरीतियों को भी चुनौती दी है. यह कहानी है उन बेटियों की, जिन्होंने बाल विवाह और पारंपरिक बंधनों के खिलाफ आवाज उठाई और फुटबॉल के मैदान में अपनी पहचान बनाई.
महज 3-4 साल की उम्र में कर दी जाती थी शादी
जी हां, हम बात कर रहे हैं अजमेर जिले के केकड़ी उपखंड के 13 गांवों की, जहां कभी नाबालिग लड़कियों की शादी महज 3-4 साल की उम्र में कर दी जाती थी, वहीं अब यहां की बेटियां फुटबॉल खेल रही हैं और अपने अधिकारों के लिए लड़ रही हैं. इन गांवों में हर दूसरे घर की बेटी फुटबॉल खेलती है. यहां की 550 लड़कियां फुटबॉल खेल रही हैं. इनमें से 245 ने बाल विवाह के खिलाफ खड़ी होकर समाज की पुरानी मान्यताओं को चुनौती दी. कई लड़कियों ने तो फुटबॉल खेलने के लिए अपनी सगाई तक तोड़ दी. गौना तक को रोकवा दिया.
लड़कियों को एक नई दिशा दिखाई
अजमेर के इन 13 गांवों में हुए बदलाव और छोटी लड़कियों के संघर्ष की कहानी के पीछे महिला अधिकार समिति की डायरेक्टर इंद्रा पंचोली और समन्वयक पद्मा जोशी का योगदान है. इन्होंने अपनी मेहनत और संघर्ष से इन लड़कियों को एक नई दिशा दिखाई. इंद्रा पंचोली बताती हैं कि हमने देखा कि बंगाल में बच्चियां स्कूल के बाद फुटबॉल खेल रही थीं. जब हमने यहां भी ऐसा करना चाहा तो शुरुआत में बहुत विरोध हुआ. घरवाले मानते थे कि फुटबॉल लड़कों का खेल है और लड़कियों के लिए यह ठीक नहीं है. हमने धैर्य और मेहनत से इन लड़कियों को समझाया और एक नया रास्ता दिखाया.
खुद की मेहनत और संघर्ष ने किया है बदलाव
आज इन 13 गांवों में फुटबॉल ने सिर्फ खेल का रूप नहीं लिया, बल्कि यह सामाजिक बदलाव का एक अहम हिस्सा बन चुका है. लड़कियों को अपने अधिकारों के प्रति जागरूक किया गया है और उन्होंने खुद को साबित किया है कि वे किसी से कम नहीं हैं. ये लड़कियां अब न सिर्फ फुटबॉल खेल रही हैं, बल्कि इनमें से 6 बेटियां डी-लाइसेंस हासिल कर कोच भी बन चुकी हैं. 15 लड़कियां राष्ट्रीय और राज्य स्तरीय टूर्नामेंट्स में भाग ले चुकी हैं. इस बदलाव को साकार इनकी इनकी खुद की मेहनत और संघर्ष ने किया है.
नेशनल और स्टेट लेवल पर खेल रहीं
ये लड़कियां अब अपने जीवन के फैसले खुद ले रही हैं. किसी ने फुटबॉल के कारण अपनी शादी तक को ठुकरा दिया. यही कारण है कि अब ये नेशनल और स्टेट लेवल पर खेल रही हैं और अपने सपनों को पूरा करने के लिए हर दिन कड़ी मेहनत कर रही हैं. इनकी सफलता का संदेश सिर्फ फुटबॉल तक सीमित नहीं है, बल्कि यह उन लड़कियों के लिए एक प्रेरणा है, जो अपनी पढ़ाई और खेल के जरिए अपने भविष्य को संवारना चाहती हैं. इन बेटियों ने यह साबित कर दिया है कि अगर जज्बा हो तो कोई भी सपना सच हो सकता है.
हर क्षेत्र में बना रहीं अपनी पहचान
इन लड़कियों ने खेल के जरिए केवल अपने अधिकारों के बारे में जागरूकता नहीं फैलाई, बल्कि अपनी सेहत और जीवनशैली के प्रति भी सजगता दिखाई है. अब ये हर क्षेत्र में अपनी पहचान बना रही हैं. फुटबॉल ने इन लड़कियों को वह ताकत दी है, जिससे वे अपने भविष्य को खुद लिखने की दिशा में कदम बढ़ा रही हैं. उनके लिए अब केवल 'घर की बहु' बनना ही नहीं, बल्कि एक समाज में मजबूत और स्वतंत्र पहचान बनाना भी मुमकिन है. इन बेटियों ने समाज की पुरानी बेड़ियों को तोड़ा और अपने सपनों को उड़ान दी. अब वे सिर्फ खेल की दुनिया में ही नहीं, बल्कि समाज में भी बदलाव लाने के लिए प्रेरणा का स्रोत बन चुकी हैं. आशा करते हैं कि ये बदलाव की लहर और भी दूर तक पहुंचे.
इनकी कहानी पर बन चुकी है डॉक्यूमेंट्री
इन फुटबॉल खेलने वाल लड़कियों की कहानी पर एक डॉक्यूमेंट्री 'किकिंग बॉल्स' बन चुकी है. यह डॉक्यूमेंट्री रिलीज हो चुकी है. निर्माता अश्विनी यार्डी और ऑस्कर विजेता गुनीत मोंगा कपूर की डॉक्यूमेंट्री फिल्म किकिंग बॉल्स को न्यूयॉर्क फिल्म फेस्टिवल सहित कई पुरस्कार मिल चुके हैं. यह डॉक्यूमेंट्री इन लड़कियों के संघर्ष और उनकी सफलता को उजागर करती है.
(रिदम जैन की रिपोर्ट)