'कप्तान' क्रिकेट की दुनिया का एक ऐसा शब्द जिसके इर्द-गिर्द कई महान कहानियां लिखी गढ़ी गईं. एक ऐसी उपाधि, जिसे हासिल करना लगभग हर खिलाड़ी का सपना होता है. वो कप्तान ही होता है, जिसके सिर कभी जीत का सेहरा बंधता है, तो कभी हार की गाज भी उसकी के सिर पर गिरती है. इतिहास गवाह है कि जिस टीम का कप्तान समझदार और दूर दृष्टि रखने वाला हुआ है, उस टीम ने बड़ी से बड़ी चुनौती को भी पार किया है. भारतीय क्रिकेट में एक ऐसे ही अडिग, समझदार और दमदार कप्तान का नाम है दादा यानी सौरभ गांगुली.
दादा ने विदेशी धरती पर भारत को जीत का स्वाद चखाया, वो सौरभ गांगुली जिन्होंने विरोधियों की आंखों में आंखें डालकर मुकाबला किया, वो सौरभ गांगुली जिन्होंने आज की सर्वश्रेष्ठ भारतीय टीम की नींव 20 साल पहले ही रख दी थी. तो चलिए आज उनके जन्मदिन के मौके पर सौरभ की जिंदगी के उन पहलुओं पर नजर डालते हैं, जिनकी सीढ़ियां चढ़कर गांगुली ने एक आक्रामक बल्लेबाज से महान बल्लेबाज तक का करिश्माई सफर तय किया.
सौरभ गांगुली का जन्म 8 जुलाई 1972 को कोलकाता के पारंपरिक बंगाली परिवार में हुआ था. उनके पिता चंडीदास गांगुली शहर के मशहूर व्यापारी होने का साथ क्रिकेट एसोसिएशन ऑफ बंगाल के सदस्य भी थे. पिता की वजह से सौरभ ने ग्राउंड जाना शुरू किया और फुटबॉल को दिल दे बैठे. सौरभ ने अपनी शुरुआती शिक्षा सेंट जेवियर्स स्कूल से की थी, और वहीं उन्होंने दसवीं तक फुटबॉल खेला. उस दौरान सौरभ रोज शाम को चोट खाकर मैदान से घर लौटते और अगले दिन स्कूल नहीं जाते. जबकि माता निरूपा गांगुली चाहती थीं, कि सौरभ पढ़ाई में टॉप करें. जिस वजह से सौरभ के फुटबॉल खेलने पर रोक लग गई.
सौरभ की जिंदगी में कुछ ऐसे हुई क्रिकेट की एंट्री
दसवीं के बाद हुई स्कूल की छुट्टियों में सौरभ ने अपनी शैतानियों के घर वालों की नाक में दम कर दिया था. फिर सौरभ का ध्यान भटकाने के लिए घरवालों ने उन्हें क्रिकेट स्टेडियम भेजा जाने लगा, और इस तरह सौरभ की जिंदगी में क्रिकेट की एंट्री हुई. घर से बचने के लिए सौरभ ने भाई के साथ मैदान में वक्त गुजारना शुरू किया. उस दौरान गांगुली नेट्स पर सिर्फ बॉलिंग और फील्डिंग रखते थे. कभी बल्लेबाजी का मौका मिलता भी तो वो बड़े भाई के पैड्स और ग्लव्स पहनकर लेफ्ट हैंड से बैटिंग किया करते थे. जबकि असल जिंदगी में सौरभ गांगुली राइट हैंडेड हैं. इस वक्त तक सौरभ केवल छुट्टियां बिताने के लिए क्रिकेट खेल रहे थे. लेकिन कुदरत को कुछ और ही मंजूर था.
7 खिलाड़ियों को टाइफाइड होने के कारण रणजी में मिला मौका
साल 1987 में बंगाल टाइफाइड की मार झेल रहा था. उस दौरान ही एक मैच से पहले बंगाल अंडर 15 के 7 खिलाड़ियों को टाइफाइड हो गया. ऐसे में कोच एमपी परमार के कहने पर सौरभ को टीम में लिया गया, गांगुली ने उस मैच में शतक बनाया और टीम को जीत दिलाई. इस पारी ने क्रिकेट को लेकर गांगुली के नजरिए को बदल दिया, अब उन्हें क्रिकेट खेलने में मजा आने लगा. गांगुली को जब भी मौका मिलता वो अच्छा प्रदर्शन करते थे. लगातार बेहतरीन प्रदर्शन गांगुली को साल 1989 में बंगाल रणजी स्क्वाड में ले आया. लेकिन वो अंतिम 11 में जगह नहीं बना पाए. फिर आया साल 1989 रणजी फाइनल, गांगुली को रणजी डेब्यू करने का मौका मिला, लेकिन अपने भाई स्नेहाशीष गांगुली की जगह एक अजीब से एहसास के साथ गांगुली ने रणजी डेब्यू किया. फिर पीछे मुड़कर कभी नहीं देखा.
तो सौरभ ने ऐसे किया इंटरनेशनल डेब्यू
सौरभ के लिए रणजी डेब्यू भले ही नाटकीय अंदाज में रहा हो, पर रणजी के बाद के तीन साल उनकी करियर में काफी उतार-चढ़ाव रहा. जिसकी शुरुआत साल 1991 के आखिरी दिनों में तब हुई, जब सौरभ को अच्छे प्रदर्शन के लिए दक्षिण अफ्रीका के विरुद्ध भारतीय टीम में शामिल किया गया. हालांकि सौरभ को उस सीरीज में डेब्यू करने का मौका नहीं मिला. लेकिन चयनकर्ताओं ने उन्हें अस्ट्रेलिया जाने वाली भारतीय टीम में शामिल किया. साल 1992 का वो दौरा करीब 4 महीने चला, लेकिन गांगुली को पर्याप्त मौके नहीं मिले. उस दौरे पर गांगुली का ज्यादातर वक्त ड्रिंक्स ब्वॉय के रूप में गुजरा. इसके अलावा सिर्फ नेट बॉलिंग करने का मौका मिला. आलम ये था, जब दौरे के अंत में गांगुली को डेब्यू करने की बारी आई तो उन्होंने स्पिनर वेंकटपति राजू से कुछ गेंदे फेंकने के लिए कहा, और महीनों बाद बल्लेबाजी की. आखिर 11 जनवरी 1992 के दिन वेस्टइंडीज के विरुद्ध सौरभ गांगुली ने इंटरनेशनल डेब्यू किया. मगर ये डेब्यू सौरभ के लिए बहुत साधारण रहा, और वो सिर्फ तीन रन बनाकर आउट हो गए. महज एक मैच बाद ही सौरभ को टीम से ड्रॉप कर दिया गया, और उन्हें वापस भारत भेज दिया गया. दरअसल टीम के मैनेजर ने शिकायत कर दी थी, की मैच के दौरान सौरभ ड्रिंक्स ले जाने के लिए मना कर दिया करते थे. इसके बाद मीडिया में सौरभ गांगुली को घमंडी कहा जाने लगा. हालांकि आगे चलकर ये आरोप गलत साबित हुए.
22 साल की उम्र में हार और बदनामी झेली
22 साल की उम्र में सौरभ को हार और बदनामी दोनों का सामना करना पड़ा. घर वापस लौटकर उन्होंने अपने पिता से वादा किया वो एक दिन जरूर क्रिकेट में अच्छा नाम कमाएंगे. अब तक सौरभ को जो कुछ भी मिला वो उनकी किस्मत से मिला था, पर ऑस्ट्रेलिया में जो ठोकर लगी उसके बाद सौरभ ने जमकर मेहनत करना शुरू किया. सौरभ ने अपने सेशन्स का टाइम बढ़ा दिया. उस दौरान सौरभ दिन के 6 घंटे सिर्फ नेट्स पर बिताया करते थे. इसके बाद सौरभ ने 1993-94 और 1994-95 के रणजी सत्र में सौरभ ने अपने बल्ले से धूम मचा दी. ये सिलसिला उन्होंने आगे भी जारी रखा और दिलीप ट्रॉफी में 171 रनों की पारी जारी रखी.
सिद्धू की नाराजगी के कारण मिला मौका
अब सौरभ इंडिया टीम के चयनकर्ताओं ने दोबारा याद किया. फिर साल 1996 में इंग्लैंड जाने वाली टीम में शामिल किया. इंग्लैंड पहुंच कर सौरभ ने महान बल्लेबाज डेसमंड हेन्स से कुछ टिप्स मांगी, वो हेन्स को ध्यान से सुनते और उनकी हर बात मानते. इंग्लैंड में जहां एक तरफ भारतीय बल्लेबाज रनों को तरस रहे थे. वहीं सौरभ ने मुश्किल पिच पर 62 रनों की पारी खेली. लेकिन पहली श्रृंखला में उन्हें जगह नहीं मिली. लेकिन उन दिनों नवजोत सिंह सिद्धू कप्तान अजहरुद्दीन से नाराज से थे. अपनी नाराजगी के चलते वो बिना किसी को बताए भारत लौट आए. सिद्धू की ये नाराजगी सौरभ के लिए अवसर लेकर आई. सौरभ के लगातार प्रदर्शन ने उनके विश्व क्रिकेट में आने का ऐलान कर दिया. उसके बाद सौरभ ने कई इंटरनेशनल मैचों में बेहतरीन प्रदर्शन किया. इंटरनेशनल मैचों में खेलने के बाद जब वो भारत लौटे तो सभी ने उनका स्वागत किया और वो किंग ऑफ कोलकाता बन गए.
भारतीय क्रिकेट के नए अध्याय की शुरुआत
इसके बाद सौरभ ने हर मौके पर अच्छा प्रदर्शन किया और भारतीय बल्लेबाजी की रीढ़ बन गए. अगले पांच सालों तक सौरभ के खेल का ग्राफ चढ़ता रहा. लेकिन भारतीय टीम की अंदरूनी कलह के कारण फैंस के हिस्से में केवल निराशा ही लगी. ऐसे में अप्रैल 2000 में हुए फिक्सिंग खुलासे ने भारतीय टीम को हिला कर रख दिया. सचिन तेंदुलकर ने कप्तान बनने से मना कर दिया. भारतीय क्रिकेट अंधेरे में नजर आ रहा था, तब उभर कर आए कप्तान सौरभ गांगुली. सौरभ ने आगे बढ़कर टीम की कमान संभाली और इस तरह भारतीय क्रिकेट में शुरुआत हुई एक नए अध्याय की. सौरभ देश भर में सभी के चहेते हैं.