लहरों से डरकर नौका पार नहीं होती, कोशिश करने वालों की हार नहीं होती. ऐसी तमाम लाइनें हिमांशु मिश्रा जैसे लोगों पर बिल्कुल सटीक बैठती हैं. सतना जिले में रामपुर बघेलान के एक छोटे से गांव बड़ा बरहा में किसान विनय मिश्रा और माया मिश्रा के घर जन्मे महज 17 साल के हिमांशु भाला (जैवलिन) फेंकने के एवज में अब तक 3 गोल्ड और 1 सिल्वर मेडल अपने नाम कर चुके हैं.
लकड़ी के जैवलिन से की प्रैक्टिस
आर्थिक तंगी के चलते हिमांशु ने जुगाड़ से लकड़ी को भाला बनाया और गांव से करीब 3 किलोमीटर दूर आम के बगीचे में प्रैक्टिस शुरू की. इस बीच गांव वालों ने तमाम किस्म के तंज कसे. मसलन, क्या मवेशी चराने जा रहे हो, विराट कोहली नहीं बन जाओगे. गांव वालों के इन्हीं तंज को हिमांशु ने अपनी ताकत बनाई और आज इस मुकाम तक जा पहुंचा कि उसका चयन खेलो इंडिया यूथ गेम्स के लिए हो गया.
माधवगढ़ में एक निजी स्कूल के 12वीं कक्षा में पढ़ने वाले हिमांशु यूं तो एक सफल धावक बनना चाहते थे. इसके लिए उन्होंने 400 और 800 मीटर की दौड़ में अपने नाम का झंडा भी गाड़ रखा था मगर स्कूल स्पोर्ट्स में उन्हें भाला फेंक ने अपनी ओर आकर्षित किया. पीटी टीचर अनूप पाठक जब अन्य बच्चों को जैवलिन की प्रैक्टिस कराते तो हिमांशु का दिल भी जैवलिन फेंकने का करता. उसने इसके लिए जुगाड़ से लकड़ी का जैकलीन बनाया और आसपास ग्राउंड न होने की वजह से प्रैक्टिस के लिए आम का बगीचा चले जाते थे. वह हर रोज सुबह बगीचा जाते और भाला फेंकने की कड़ा अभ्यास शुरू करते थे. इस तरह से उसके जैवलिन थ्रोअर बनने का सफर शुरू हो गया.
घर पर देसी जिम बनाया
जैवलिन थ्रोअर बनने के लिए शारीरिक क्षमता की बड़ी जरूरत थी. इसके लिए हिमांशु सफल धावक पहले से था, उसने दौड़ना जारी रखा. हिमांशु हर रोज करीब 5 से 7 किलोमीटर दौड़ते और साथ-साथ दोस्तों की मदद से घर पर ही देसी जिम बनाया. जिम में उन्होने कंक्रीट के डंबल्स और अन्य साजो सामान बनाए. कसरत को भी हिमांशु ने अपने जीवन में शामिल कर लिया. लकड़ी के भाला से वह धीरे-धीरे प्रैक्टिस को तेज करता गया.
जैवलिन प्रैक्टिस आसान नहीं
हिमांशु ने बताया कि प्रैक्टिस करना आसान नहीं था. कोहनी के नजदीक नसों में खिंचाव की वजह से 5-6 माह गेम भी बंद करना पड़ा. कोहनी का पेन ऐसा हो गया था कि लगा सब कुछ खत्म हो गया. थ्रो करने के बाद हिमांशु आधा घंटा तक ग्राउंड में ही लेटा रहता था. एक खाली बॉटल भी नहीं उठा पाता था. क्योंकि उन्हें कोई उसकी ट्रिक पता नहीं थी, बस जैसा बनता वैसा अभ्यास करते. मगर उन्होमे हार नहीं मानी और प्रैक्टिस जारी रखी. दृढ़शक्ति की बदौलत हिमांशु एक बार फिर उठ खड़े हुए और कड़ा अभ्यास शुरू कर दिया. अंतत: सफलता ने उसके कदम चूमे.
पदकों की लग गई भरमार
हिमांशु अब बीते 5 माह से राजस्थान में कोच खडग़ सिंह से जैवलिन की बारीकियां सीख रहे हैं. उन्होने 2021 में गुवाहाटी में आयोजित 36वां जूनियर नेशनल में जैवलिन थ्रो के जरिए में गोल्ड मेडल अपने नाम किया तो रायपुर में 32वां वेस्ट जोन रायपुर में स्वर्ण पदक जीतने में कामयाबी हासिल की. दिल्ली के थर्ड इंडियन जैवलिन चैलेंज चौथी पोजीशन में ही संतोष करना पड़ा. मगर कड़ी मेहनत के बाद इसी साल एमपी यूथ चैम्पियनशिप में एक बार फिर गोल्ड अपने नाम किया. 8 मई को जमशेदपुर में हुई फोर्थ ओपन इंडियन जैवलिन चैलेंज में हिमांशु ने 66.40 मीटर भाला फेंक कर सिल्वर मेडल अपने नाम किया. खिलाड़ी ने इसका श्रेय खेल समन्वयक ज्योति तिवारी और एसपी धर्मवीर सिंह को दिया. जिन्होंने उसका बड़ा सपोर्ट किया. हिमांशु का चयन 4 जून से 15 जून तक पंचकुला हरियाणा में होने वाले खेलो इंडिया यूथ गेम्स के लिए हो गया है. इसे खेलों का महाकुंभ कहा जाता है.
स्कूल से बढ़ी जैवलिन में दिलचस्पी
हिमांशु बताया कि उन्होंने जेआरडी टाटा नगर जमशेदपुर में सिल्वर मेडल चौथे इंडियन जैवलिन ओपन चैलेंज में जीता है. डी पॉल सीनियर सेकेंडरी स्कूल माधवगढ़ में पढ़ता हूं. जब मैं 7-8वीं कक्षा में था तो मैंने अपने स्कूल के पीटी टीचर अनूप पाठक को जैवलिन कराते देखा था सीनियर्स को. मैं भी गांव से था तो रनिंग करा करता था. फुटबॉल खेलता था. तो इस दौरान मैंने जैवलिन देखा. उसको देखकर मेरे अंदर थोड़ा उत्साह जागा. क्योंकि मैं उसके बारे में बहुत जानता नहीं था. जैवलिन मुझे कुछ डिफरेंट लगा. पहली बार में अच्छा लगा इसलिए मैंने इसे अपनाया. फिर मैंने घर पर प्रैक्टिस स्टार्ट कर दी. खुद लकड़ी का जैवलिन बनाया. उसके जरिए मैंने प्रेक्टिस स्टार्ट की. उसको लेकर मैं सिंसियर नहीं था पर जब मैं कई बार जैवलिन लेकर गांव में निकलता था तो काफी लोग लकड़ी का जैवलिन देखकर बोलते थे कि क्या गाय-भैंस को चराने जा रहे हो. वह बात मेरे दिल पर लग गई. उसके लिए मैंने जी-जान लगा दिया. मेरे लिए यही बिगेस्ट मोटिवेशन थे जो मुझे बोलते थे कि क्या कर रहे हो बड़े प्लेयर नहीं बन जाओगे... विराट कोहली नहीं बन जाओगे. जिनको यह भी नहीं पता कि विराट कोहली क्रिकेट का है. और जैवलिन दूसरा गेम है. उनका मैं धन्यवाद करना चाहता हूं कि उन्होंने ऐसा बोला और उन्हीं की वजह से मैं यहां तक पहुंचा. वो न बोलते तो मैं इस गेम को इतना सीरियस न ले पाता.
मां-पिता ने कर्ज लेकर जैवलिन की कराई कोचिंग
हिमांशु के पिता विनय मिश्रा ने कहा कि जब ये पिछले साल से खेलने लगा. असम गुवाहाटी में नेशनल खेला... फिर इधर उधर से 25-30 हजार रुपए कर्ज़ लेकर कोचिंग कराई. जब ये करने लगा तो मेरी भी इच्छा बढ़ी कि जब ये इतनी मेहनत कर रहा है तो इधर उधर से कर्ज लेकर सपोर्ट कर रहे हैं. अब हम इतना कर्जा में डूब गए कि कहां हम कहाँ तक करें. ढाई-तीन एकड़ की काश्तकारी है, फिर भी कोशिश है.
भले ही कर्जा लेना पड़े लेकिन जहां तक जाएगा वहां तक भेजेंगे
हिमांशु की मां माया मिश्रा ने कहा कि जैवलिन तो स्टार्ट किया उसने बांस से. फिर मुझसे बोला कि जिम बनाना है. मैंने बोला कि तुम ये क्या कर रहे हो. बोला नहीं मम्मी मुझे अपनी देसी जिम बनाकर घर में प्रैक्टिस करना है. डंबल ढालने में मैं भी उसकी मदद की. भाला फेंक कर आता तो उसके हाथ में दर्द करता था. मैं फिर उसकी मालिश करती थी. मैं दिन भर सोचा कि क्या करूं नहीं मानता. दिन भर मेहनत करता है. असम कोचिंग के लिए गया तो सोचा इतना पैसा कहां से आएगा. फिर बोली कि कर्जा लो,.मान लो जुआ खेल लिए इतने का. बहुत खुशी हुई जब से वह मेडल पाया. भले ही कर्जा लेना पड़े लेकिन जहां तक जाएगा वहां तक भेजेंगे उसको.
(सतना से योगितारा दूसरे की रिपोर्ट)