Solar-powered Reactor turning air into fuel: कैंब्रिज रिसर्चर्स ने बनाया हवा को फ्यूल और प्लास्टिक को ग्लाइकोलिक एसिड में बदलने वाला सोलर रिएक्टर

कैंब्रिज यूनिवर्सिटी के रिसर्चर्स ने Solar Powered Reactor डेवलप किया है जो प्लास्टिक वेस्ट की मदद से कार्बन डाइऑक्साइड को Sustainable Fuel में बदल सकता है.

प्रतीकात्मक तस्वीर
gnttv.com
  • नई दिल्ली ,
  • 20 जून 2023,
  • अपडेटेड 12:15 PM IST
  • हवा से बन रहा है ईंधन
  • नेट जीरो कार्बन फ्यूल्स पर है फोकस 

कैंब्रिज विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने सोलर पावर से चलने वाला रिएक्टर विकसित किया है जो कैप्चर की गई कार्बन डाइऑक्साइड और प्लास्टिक कचरे को एक सस्टेनेबल फ्यूल में बदल सकता है. दिलचस्प बात यह है कि इस प्रक्रिया में कुछ अन्य उपयोगी रसायनों का उत्पादन भी होता है.

रिएक्टर कार्बन डाइऑक्साइड को सिनगैस या सिंथेटिक गैस में बदल देता है. सिनगैस स्वयं ज्वलनशील है और इसे सीधे ईंधन के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है. 20वीं शताब्दी में कई औद्योगिक शहरों में को कुछ प्रकार की सिनगैस की आपूर्ति की गई थी. लेकिन यह काम करने के लिए एक चुनौतीपूर्ण ईंधन है और इसलिए बेहतर है कि दूसरे ईंधन बनाने के लिए इसका उपयोग किया जाए. 

इस टेस्टिंग में इस्तेमाल की गई प्लास्टिक की बोतलों को ग्लाइकोलिक एसिड में बदल दिया गया. ग्लाइकोलिक एसिड हेल्थकेयर इंडस्ट्री में कई तरह से इस्तेमाल किया जाता है. WebMD के अनुसार, ग्लाइकोलिक एसिड का इस्तेमाल लोग समय से पहले त्वचा की उम्र बढ़ने, डार्क स्किन पैच और मुंहासों के निशान के इलाज के लिए करते हैं. 

हवा से बन रहा है ईंधन 
सोमवार को पीयर-रिव्यू जर्नल जूल में प्रकाशित एक रिसर्च के मुताबिक, रिएक्टर्स औद्योगिक निकास और सामान्य हवा सहित वास्तविक दुनिया के स्रोतों से कार्बन डाइऑक्साइड का उपयोग करते हैं. जूल आर्टिकल के सह-लेखक सायन कर ने इंडियन एक्सप्रेस को बताया कि मीडियम टर्म में, इस तकनीक का उपयोग कार्बन उत्सर्जन को इंडस्ट्री (बिजली संयंत्र, सीमेंट कारखाने, बायोगैस संयंत्र) से कैप्चर करके और सूरज की रोशनी और प्लास्टिक कचरे का उपयोग करके ईंधन में बदला जा सकता है.

इससे कार्बन एमिशन कम होगा. वहीं, लॉन्ग टर्म में, इसका उपयोग डायरेक्ट एयर कैप्चर (DAC) और CO2 कन्वर्जन के लिए किया जा सकता है, जिससे एक सर्कुलर कार्बन इकोनॉमी हासिल होगी. यह रिसर्च कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में रसायन विज्ञान के यूसुफ हमीद विभाग में इरविन रीस्नर के रिसर्च ग्रुप ने की. इरविन विभाग में ऊर्जा और स्थिरता के प्रोफेसर हैं. और सायन कर विभाग में पोस्ट-डॉक्टरल साइंटिस्ट हैं. 

नेट जीरो कार्बन फ्यूल्स पर है फोकस 
सालों से, इस रिसर्च ग्रुप को प्रकाश संश्लेषण (Photosynthesis) से प्रेरित नेट-जीरो कार्बन ईंधन बनाने वाली तकनीकों को बनाने में काफी सफलता मिली है. पिछले महीने टीम ने "कृत्रिम पत्तों" (Artificial Leafs) का उनावरण किया, जो कार्बन डाइऑक्साइड को प्रोपेनोल और इथेनॉल में बदल सकते हैं. 

लेकिन अब तक, उनके सौर-ऊर्जा से संचालित सभी प्रयोगों में सिलेंडर से शुद्ध, केंद्रित कार्बन डाइऑक्साइड का उपयोग किया गया है. हवा में ज्यादा डाइल्यूटेड कार्बन डाइऑक्साइड का उपयोग करना एक व्यापक तकनीकी चुनौती है. इसके लिए टीम ने कार्बन कैप्चर और स्टोरेज की तकनीक पर काम किया. इरविन के अनुसार, कार्बन कैप्चर और स्टोरेज एक ऐसी तकनीक है जो जीवाश्म ईंधन उद्योग में लोकप्रिय है. उन्होंने दावा किया कि कार्बन डाइऑक्साइड को कैप्चर और संग्रहीत करने के बजाय, अगर इसे कैप्चर करके इस्तेमाल किया जा सकता है, तो इसका अच्छा उपयोग किया जा सकता है. 

किस प्रकार करता है काम 
कन्वर्जन प्रोसेस या तो हवा या फ़्लू गैस (ईंधन जलाने से उत्पन्न गैस) को एक क्षारीय घोल (Alkaline Solution) में बब्लिंग से शुरू होती है. यह सॉल्यूशन कार्बन डाइऑक्साइड को कैप्चर करता है जबकि नाइट्रोजन और ऑक्सीजन जैसी अन्य गैसें बाहर निकलती हैं. यह विधि हवा में कार्बन डाइऑक्साइड को कंसंट्रेट करती है, जिससे काम करना आसान हो जाता है.

इस सिस्टम में दो भाग होते हैं- एक तरफ, कार्बन डाइऑक्साइड का एल्कलाइन सॉल्यूशन है जो कार्बन डाइऑक्साइड को पकड़ता है, और यह सिनगैस में बदल जाती है. दूसरी तरफ, प्लास्टिक ग्लाइकोलिक एसिड में परिवर्तित हो जाता है. अब, शोधकर्ता सिस्टम की दक्षता, स्थिरता और स्थायित्व में सुधार करने पर काम कर रहे हैं.

 

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