नवीकरणीय ऊर्जा (Renewable Energy) के क्षेत्र में बड़ी खोजें बहुत कम होती हैं, लेकिन जब होती हैं तो वे तकनीक और पर्यावरण दोनों के लिए बदलाव लाती हैं. हाल ही में, पेन स्टेट यूनिवर्सिटी (Penn State University) की एक इंजीनियरिंग छात्रा दिव्या त्यागी ने ऐसा ही एक बड़ा काम किया है.
उन्होंने 100 साल पुरानी एक मैथ्स प्रॉबल्म को नए नजरिए से हल करके विंड टर्बाइन की क्षमता बढ़ाने का तरीका खोजा है. इस खोज से पवन ऊर्जा का उत्पादन बढ़ सकता है, जिससे दुनिया भर में ऊर्जा की बढ़ती ज़रूरतों को पूरा करने में मदद मिल सकती है. आज के समय में क्लीन और सस्टेनेबल एनर्जी की जरूरत बढ़ रही है.
100 साल पुरानी प्रॉब्लम को नए तरीके से किया हल
करीब एक सदी पहले, हर्मन ग्लाउअर्ट (Hermann Glauert) नाम के एक ब्रिटिश वैज्ञानिक ने पवन टर्बाइन की कार्यक्षमता को बेहतर बनाने की नींव रखी थी. लेकिन उनके तरीके में कुछ कमियां थीं, जिसकी वजह से उस समाधान की क्षमता सीमित रह गई. अब, दिव्या त्यागी ने अपने प्रोफेसर स्वेन श्मिट्ज़ (Sven Schmitz) की मेंटरशिप में उसी पुराने सवाल को फिर से हल किया है. उन्होंने गणित की एक उन्नत तकनीक Calculus of Variations का इस्तेमाल किया, जिससे टर्बाइनों में हवा का प्रवाह और ऊर्जा उत्पादन पहले से ज्यादा बेहतर तरीके से तय किया जा सकता है.
रिसर्च के लिए मिला अवॉर्ड
दिव्या की यह रिसर्च Wind Energy Science नाम की अंतरराष्ट्रीय पत्रिका में प्रकाशित हुई है. उनकी रिसर्च को Anthony E. Wolk Award से सम्मानित किया गया. दिव्या कहती हैं कि उन्होंने ग्लाउअर्ट के पुराने सवाल में एक नया जोड़ दिया है. यह खोज इतनी अनोखी है कि यह आने वाले समय में दुनियाभर के स्टूडेंट्स के लिए एक ट्रेनिंग मॉडल बन सकती है, जिससे वे समझ सकें कि पुराने सवालों को नए तरीके से कैसे हल किया जा सकता है.
हालांकि, दिव्या का यह सफर आसान नहीं था. इस मुश्किल काम को करने के लिए उन्हें हर हफ्ते 10 से 15 घंटे तक लगातार मेहनत करनी पड़ी. लेकिन उन्होंने कभी हार नहीं मानी और निरंतर लगे रहने से यह बड़ी सफलता हासिल की. उनके प्रोफेसर स्वेन श्मिट्ज़ को ग्लाउअर्ट की थ्योरी में कमियां नजर आयी थीं, इसलिए उन्होंने यह चुनौती अपने छात्रों को दी. दिव्या ने उस चुनौती को न केवल स्वीकार किया, बल्कि उसे बेहद सुंदर और प्रभावी तरीके से हल भी किया.
बढ़ेगी विंड टर्बाइन्स की क्षमता
दिव्या के शोध का असर काफी बड़ा हो सकता है. अगर सिर्फ 1% भी पावर एफिशिएंसी (coefficient of power) में सुधार हो जाए, तो उससे एक पूरा मोहल्ला बिजली पा सकता है. उनका समाधान कुछ ऐसी चीजों को भी ध्यान में रखता है जिन्हें पहले नजरअंदाज किया गया था, जैसे टर्बाइन के रोटर पर लगने वाली पूरी ताकत, और हवा के दबाव से ब्लेड में होने वाला झुकाव. इस नई जानकारी से अगली पीढ़ी के पवन टर्बाइन बनाए जा सकते हैं, जो ज्यादा ऊर्जा देंगे और साथ ही पर्यावरण के लिए भी बेहतर होंगे.
आपको बता दें कि हर्मन ग्लाउअर्ट का जन्म 1892 में शेफ़ील्ड (ब्रिटेन) में हुआ था. उन्होंने कैंब्रिज यूनिवर्सिटी के ट्रिनिटी कॉलेज से पढ़ाई की थी. उन्हें Tyson Medal for Astronomy और Rayleigh Prize for Mathematics जैसे कई सम्मान मिले थे. उनका काम, खासकर Prandtl-Glauert method, आज भी वैमानिकी (aeronautics) में उपयोग होता है. दिव्या का काम ग्लाउअर्ट की थ्योरी पर आगे बढ़ते हुए यह दिखाता है कि कैसे नए विचार और युवा दिमाग पुराने वैज्ञानिक कामों में नया जीवन भर सकते हैं.